[पिता का साम्परायिक कर्म, विवाहोत्सव और राज्याभिषेकोत्सव]
भगवान् के अन्तर्धान हो जाने पर ब्रह्मादि देवतागण भी अपने-अपने स्थान को चले गये और सुरराज इन्द्र तथा सब के सब दिकपाल प्रह्लाद के प्रति स्नेहमयी कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने-अपने पदों पर जा विराजे। इधर ये लोग अपने-अपने स्थानों को गये और उधर महर्षि शुक्राचार्य तथा अन्यान्य ऋषि-मुनि-गण और प्रह्लादजी के दोनों गुरु षण्ड एवं अमर्क भी दैत्यराज का वध सुन कर वहाँ जा पहुँचे। दैत्यराज के साम्परायिक कर्म की तैयारी होने लगी और विधवा राजमाता कयाधू अपने प्राणपति के वियोग में व्याकुल हो पति के शव के साथ सती होने को तैयार हुईं। उस समय मातृभक्त प्रह्लाद की दशा बड़ी ही शोचनीय थी। वे कुछ बोलने का साहस नहीं करते थे। अपने ही कारण पिता की मृत्यु होने के कारण प्रह्लादजी माता के सामने जाने में बड़े ही सकुचा रहे थे। प्रह्लादजी ज्ञानी थे, विद्वान् थे, संसार को असार समझते थे और जीवन्मुक्त थे, किन्तु माता की स्नेहमयी मूर्ति को विलपते देख, वे बहुत ही दुखी थे। लौकिकरूप में वे समझते थे कि माता के वैधव्य का कारण मेरा ही शरीर है । अतएव वे लज्जित थे और माता के सामने जाने का साहस नहीं करते थे ।
शुक्राचार्यजी ने उनके आन्तरिक भावों को भली भाँति समझकर विधवा राजमाता कयाधू को समझाया और कहा– “बेटी! शोक मत कर, भावी बड़ी प्रबल होती है। जो अनिवार्य था, वह हो गया! तेरे ये पुत्र तुझको दुःखित देख दुःखी हो रहे हैं और तेरा प्राण प्रह्लाद तो अत्यन्त ही व्याकुल है। तू सावधान हो और अपने पतिदेव के साम्परायिक कर्म कराने के लिये पुत्रों को उत्साहित कर। इस समय तेरा सती होना उचित नहीं। तू राजमाता है और आज प्रह्लाद का समावर्तन-संस्कार ऐसे अवसर पर हो रहा है कि जो संस्कार के रूप में नहीं, एक आपत्तिधर्मरूप में है। उसके विवाह के पहले तेरा संसार से विदा होना उसके गार्हस्थ्यधर्म में बड़ा बाधक होगा। अवश्य ही तू अपने प्राणपति की अनन्य भक्ता है अतः पतिदेव की अनुगामिनी बनना तेरे लिये स्वाभाविक ही है! किन्तु तू जैसी पतिव्रता है वैसे ही पुत्रवत्सला भी तो है। यह सनातन प्रथा है कि पुत्रवत्सला माताएँ 'आत्मा वै जायते पुत्रः' को मान कर पतिदेव का चिन्तन करती हुई जीवित रह कर अपना पवित्र जीवन ब्रह्मचर्य से बिताती हैं। इस समय धैर्य धारण करके तू शोक को दूर कर और अपने प्राणप्रिय पुत्र प्रह्लाद की ओर देख। उसको दुःखी छोड़ तुझको सती होना उचित नहीं है।”
राजमाता कयाधू– “भगवन् ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, किन्तु क्या करूँ? व्याकुल हृदय नहीं मानता। चित्त यही चाहता है कि जिन प्राणपति के आज्ञानुसार मैं सदा रहती थी, जो प्राणपति मुझे अपनी हृदयेश्वरी मानते थे, आज वे अपने सारे राजपाट, सारे परिजन एवं पुरजन को छोड़, अकेले सुदूर यात्रा को जा रहे हैं, नियमानुसार उनकी सेवा के लिये मैं ही उनकी अनुगामिनी हो सकती हूँ, फिर भी मैं यदि उनको छोड़ संसार के बन्धन में पड़ी रहूँगी तो मेरा कर्तव्य पूरा न होगा और मैं सती कैसे कहलाऊँगी? आचार्यप्रवर! आप मुझे आज्ञा दें कि मैं प्राणप्रिय पुत्र प्रह्लाद का स्नेह हृदय में रखती हुई अपने स्वामी की सहगामिनी बनने के लिये सती हो जाऊँ। प्रह्लाद को आप समझा दें। वह शोक न करे और मेरे लिये, स्वामी के साथ सती होने का उपकरण ठीक करा दे।”
शुक्राचार्य– “राजमाता, बेटी कयाधू! हम तेरे हृदय को भली भाँति जानते हैं। जो कुछ तूने कहा है, शास्त्र और लोक की मर्यादा के सर्वथा अनुरूप है, किन्तु हमारी इस आज्ञा के पालन में भी शास्त्र और लोक की मर्यादा नहीं बिगड़ती। एक ओर हमारी आज्ञा और शास्त्र-लोक की मर्यादा है और दूसरी ओर शास्त्र-लोक की मर्यादा तथा तेरा हार्दिक दुःख है। अतएव तुझे जो अच्छा प्रतीत हो वही कर। दुःखित प्राणी को अपने विवेक का ज्ञान नहीं रह जाता। अतएव यदि तू हमारी आज्ञा का पालन करेगी तो तेरा दोनों ही लोक में कल्याण होगा।”
शुक्राचार्यजी की आज्ञा मान माता कयाधू ने सती होने का विचार त्याग दिया। प्रह्लादजी ने माता की आज्ञा से बड़े उत्साह एवं समारोह के साथ वैदिक-विधि से अपने पूज्यपाद पिता दैत्यराज का साम्परायिक कर्म किया। साम्परायिक कर्म में सभी असुरों ने और विद्वान् ब्राह्मणों ने भाग लिया। इस प्रकार दैत्यराज हिरण्यकशिपु की अन्त्येष्टि क्रिया के साथ-साथ उनकी अन्तिम कथा भी समाप्त हुई।
यद्यपि भगवान् श्रीनृसिंहजी के सहित ब्रह्मादि देवताओं ने हिरण्यकशिपु के वध के समय ही प्रह्लाद का राज्याभिषेक कर दिया था और वे नियमानुसार राजकाज चलाने लगे थे तथापि विधिपूर्वक राज्याभिषेक होना तथा राज्याभिषेक का महोत्सव मनाना शेष था। यद्यपि प्रह्लादजी गुरुकुल में शिक्षा समाप्त करके समावर्तित हो अपने घर आ गये थे तथापि उनका सविधि गार्हस्थ्य धर्म का गृहस्थाश्रम का आरम्भ, विवाह न होने के कारण अभी नहीं हुआ था। अतएव शुक्राचार्य, मन्त्रिगण तथा महर्षियों की सम्मति से राजमाता कयाधू ने सबसे पहले प्रह्लादजी के विवाह का प्रबन्ध किया। प्रह्लाद के विवाह के लिये उनकी ही योग्यता की कन्या की खोज होने लगी। किन्तु वैसी कन्या अन्यत्र कहीं नहीं मिली । अन्त में राजमाता को पता चला कि उनके पतिदेव के बूढ़े मन्त्री वज्रदंत की एकमात्र कन्या 'सुवर्णा' बड़ी ही योग्य और सुवर्णा ही नहीं सर्वतोभाव से सुलक्षणा भी है। राजमाता को यह भी सूचना मिली कि जबसे प्रह्लादजी ने भगवद्भक्ति का व्रत स्पष्टतया ग्रहण किया था और असुर-बालकों में उसका प्रचार आरम्भ किया था, तभी से
सुवर्णा भी हरिभक्ति के साथ-साथ प्रह्लाद की भक्ति में लीन रहती है और उसकी आन्तरिक इच्छा है कि वह प्रह्लाद ही को अपना हृदयेश्वर-प्राणपति बनावे। अन्ततोगत्वा राजमाता ने अपने भाई कुम्भनाक आदि की सम्मति लेकर शुक्राचार्यजी से विवाह-विधि मिलाने की प्रार्थना की। आचार्यजी ने विधि मिला कर कहा– “सर्वगुणसम्पन्न मेलापक ठीक है। बेटी ! इस विवाह से वर-वधू दोनों ही को आनन्द रहेगा।”
महाराज प्रह्लाद का विवाह किस धूम-धाम से हुआ, उसमें कितना दान-पुण्य हुआ, इसका कवितापूर्ण वर्णन करना इसलिये व्यर्थ है कि, इस छोटे से ग्रन्थ में उसका पूर्णतया समावेश ही नहीं हो सकता, अतः नाममात्र के वर्णन की अपेक्षा इतना ही लिख देना पर्याप्त है कि एक सम्राट् के विवाह में जितना बड़ा महोत्सव हो सकता है, उतना ही महाराज प्रह्लाद के विवाहोत्सव में भी हुआ, और इस प्रकार उनका विवाह-संस्कार 'सुवर्णा' के साथ हो गया। दोनों की समान शीलता के कारण प्रह्लाद और सुवर्णा में दाम्पत्य प्रेम का आधिक्य था। अतएव राजाधिराज प्रह्लाद और राजराजेश्वरी सुवर्णा अपना गार्हस्थ्यजीवन सुख-शान्तिपूर्वक बिताने लगे।
अब प्रह्लादजी के राज्याभिषेक का विधान और उसका
महोत्सव होने वाला है। इस समाचार से सारे साम्राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा और राज-दरबार की ओर से बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ होने लगीं। राज्याभिषेक का मुहूर्त निश्चित हुआ और
से धीरे-धीरे वह दिन आ पहुँचा। चारों ओर बाजे बजने लगे, गन्धर्वो और अप्सराओं के सितार, तम्बूरे और नूपुरों की ध्वनि सर्वत्र छा गयी । सारे साम्राज्य में विशेषकर दैत्यर्षि की परम रमणीय राजधानी ‘हिरण्यपुर' में बाजों-गाजों और नाच-गान की धूम मच गयी। सारा नगर माङ्गलिक वस्तुओं, मनोहर मालाओं और सुगन्धित पुष्पों से सजाया गया, एवं स्थान-स्थान पर भाँति-भाँति के सुगन्धित जलों से मार्ग वैसे ही छिड़के गये जैसे वे जल से छिड़के जाते थे। जिस ओर देखिये, जिस मार्ग और प्रासाद को देखिये, वही सुन्दर तोरणों से सुसज्जित दिखलायी पड़ता था। दैत्यराज का नगर देवराज की अमरावती की सौगुनी शोभा से संयुक्त दिखलायी पड़ता था। ज्यों-त्यों कर दिन का अवसान और रात्रि का शुभागमन हुआ। रात्रि के समय नगर में भाँति-भाँति के प्रकाशवृक्षों की सुषमा अनुपम थी। सारा नगर जगमगा रहा था। कल प्रातःकाल राज्याभिषेक होगा, चारों ओर यही चर्चा थी। दर्शकों की भीड़ से सारा नगर खचाखच भरा था। बड़े-बड़े राजमार्गों से लेकर छोटी-छोटी गलियों तक में खासी
चहल-पहल थी। राज्याभिषेकोत्सव में योग देने के लिये और देखने के लिये साम्राज्य के लोग तो आये ही थे साथ ही तीनों लोक और चौदहों भुवन के देव, दानव, गन्धर्व आदि भी आये थे। इस महोत्सव में बड़े-बड़े राजाओं-महाराजों से लेकर तपोधन वनवासी महर्षिगण तक बड़े प्रेम और उत्कण्ठा के साथ राजधानी में पधारे थे।
राज्याभिषेकोत्सव के पूर्व देवताओं की आराधना के लिये जो यज्ञमण्डप बनाया गया था उसमें वैदिक विधि से देवताओं की अर्चा-पूजा होते-ही-होते राज्याभिषेक का सुन्दर सुखद मुहूर्त आ गया। ब्रह्मादि देववृन्द, महर्षि शुक्राचार्य आदि विद्वान् तथा ब्राह्मणवृन्द की उपस्थिति में अभिषेक का कृत्य आरम्भ हुआ। आरम्भ में महाराज दैत्यर्षि प्रह्लाद को सपत्नीक मङ्गल-स्नान कराया गया, तदनन्तर राजदम्पती सुन्दर पवित्र वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत किये गये। स्नान के पश्चात् स्वस्तिवाचनपूर्वक राजदम्पती अभिषेक के शुभ स्थान में पहुँचे और वहाँ उपस्थित देवताओं तथा ब्राह्मणों को दोनों ने साथ-साथ प्रणाम किया। देवताओं और ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया। राजदम्पती के यथा स्थान बैठते ही वेद-मन्त्रों के पाठ होने लगे। अन्यान्य आवश्यक कृत्यों के समाप्त होने पर गुरुवर तथा पुरोहित लोग, समस्त तीर्थों के जल को वेद-मन्त्रों द्वारा राजदम्पती के ऊपर दूर्वा में भिगो-भिगो कर छिड़कने लगे। इस प्रकार अभिषिक्त हो जाने के पश्चात् आचार्य शुक्रजी के सुपुत्र षण्ड ने महाराज दैत्यर्षि प्रह्लाद के मस्तक पर केशर का तिलक किया और स्वयं आचार्यजी ने शिर पर रत्नजटित सुन्दर मुकुट रखा और राजदण्ड हाथ में धारण कराया।
इस प्रकार राज्याभिषेक होते ही चारों ओर से अगणित
प्राणियों के प्रसन्न मुख से प्रह्लाद और प्रह्लाद के प्रभु श्रीहरि की जय-जयकार की ध्वनि से आकाशमण्डल प्रतिध्वनित हो उठा। इस राज्याभिषेक से सारी प्रजा का हृदय प्रसन्न हुआ, सभी सुरासुर प्रसन्न हुए तथा प्रसन्न हुई जननी जन्मभूमि, और सबसे अधिक प्रसन्न हुई 'राजमाता कयाधू'। सारी प्रजा अपने को दैत्यर्षि के समान राजा पाकर धन्य धन्य मानने लगी। इस खुशी में जो दान-पुण्य और धन-धान्य लुटाये गये उनका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है। राज्याभिषेक के पश्चात् ब्रह्मादि देवता, महर्षिगण एवं विद्वद्गण महाराज प्रह्लाद को आशीर्वादपूर्ण अनेकानेक वरदान देकर अपने-अपने स्थानों को चले गये।