[भगवान् श्रीनृसिंह का अवतार, दैत्यराज का वध]
यत्पादपद्ममवनम्य महाघमोऽपि पापं विहाय व्रजति स्वमनोऽभिलाषम्।
तं सर्वदेवमुकुटेडितपादपीठं श्रीमन्नृसिंहमनिशं मनसा स्मरामि॥
अर्थात्– जिनके चरण-कमल को प्रणाम करके महानीच प्राणी भी सकल पापों को छोड़ अपने मनोरथ को प्राप्त होते हैं, उन, सब देवों के मुकुट से पूजित चरणारविन्द वाले भगवान् श्रीनृसिंहजी महाराज को मैं सदा स्मरण करता हूँ।
प्रह्लादजी का समावर्तन-संस्कार अभी नहीं हुआ था, अतएव शिक्षालाभ करने पर भी अभी वे गुरुजी के आश्रम में निवास करते तथा पठन-पाठन के व्यसन में ही लगे रहते थे। एक दिन गुरुजी की अनुपस्थिति में प्रह्लादजी के सहपाठी दैत्यबालकों ने उनसे पूछा कि “राजकुमार! आपके मारने के लिये इतने प्रबल प्रयत्न किये गये, किन्तु आपका बाल भी बाका नहीं हुआ, इसका क्या कारण है? ऐसी कठिन आपत्तियों में आपकी किसने रक्षा की?” बालकों के वचनों को सुनकर प्रह्लादजी ने ईश्वर की महिमा का सविस्तार वर्णन किया और अन्त में कहा कि “हे असुर बालको! भगवान् हरि ही सबके रक्षक और सहायक हैं, तुम लोग ध्यान देकर सुनो, मैं उनकी और उनकी भक्ति की कुछ महिमा तुम लोगों को सुनाता हूँ– बड़ों की सेवा, भक्ति, समस्त प्राप्त वस्तुओं का समर्पण, साधु-भक्तों का संग, ईश्वर का आराधन, भगवान् की कथा में श्रद्धा, भगवान् के गुण और कर्मों का कीर्तन, भगवान् के चरण-कमलों का ध्यान, भगवान् की मूर्तियों के दर्शन और उनका पूजन एवं हमारे ईश्वर भगवान् श्रीहरि ही सर्वभूतप्राणियों में विराजमान हैं, इस निश्चय से सब जीवों में समदृष्टि रखना। इन सब साधनों के द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर इन छहों शत्रुओं को जीतकर भगवान् की भक्ति करनी चाहिए, ऐसा करने से वासुदेव भगवान् में अनन्य रति पैदा होती है। भगवान् में प्रेम हो जाने पर, भगवान् ने अपनी लीला से अवतार धारण करके जो विलक्षण कर्म किये हैं, उन्हें सुन-सुन कर जब अति हर्ष के कारण मनुष्य का शरीर पुलकित हो जाता है, उसके आनन्द के आँसू बहने लगते हैं, कण्ठ गद्गद हो जाता है, तब वह ऊँचे स्वर से कभी नाचता गाता हुआ आनन्द की ध्वनि करता है, कभी पागल की भाँति हँसता है, कभी रोता है, कभी ध्यान करता है, कभी सबमें हरि जान कर सभी लोगों को प्रणाम करने लगता है, कभी बारम्बार साँस लेता हुआ लाज छोड़कर—‘हे हरे, हे जगत्पते, हे नारायण' पुकारता है। उस दशा में वह समस्त बन्धनों से छूट जाता है। भगवान की भावना से उसका अन्तःकरण विशुद्ध हो जाता है, अनन्य भक्ति के प्रयोग से उसके वासनारूप संसार का बीज दग्ध हो जाता है और वह पूर्णरूप से अधोक्षज भगवान् श्रीहरि को प्राप्त होता है। भगवान् विष्णु का आश्रय ही संसारासक्त मनवाले लोगों के लिये संसार-चक्र का नाश करने वाला है, इसी को विद्वान् लोग ब्रह्मनिर्वाण-सुख कहते हैं, अतएव तुम लोग अपने-अपने हृदय में हृदीश्वर भगवान् का ध्यान करते हुए उनका भजन करो। हे असुर-बालको! सबके हृदय में आकाश के समान स्थित, आत्मा के परम सुहृद् श्रीहरि की उपासना में प्रयास ही कौन-सा है? सांसारिक विषयों के उपार्जन से क्या प्रयोजन है? धन, स्त्री, पशु, पुत्रादि, घर, जमीन, हाथी, खजाना आदि सभी अर्थ और काम क्षणभंगुर हैं, इन चंचल पदार्थों से मनुष्य को क्या प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है? इन्हीं विषयों की भाँति, यज्ञ आदि कर्मों के फलस्वरूप स्वर्गादि लोक भी स्थायी और निर्मल नहीं हैं। अतएव जिसमें कोई भी दोष देखने या सुनने में नहीं आता, आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिये उस परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति से भजो। अर्थ, काम और धर्म सब जिसके अधीन हैं, तुम लोग निष्कामभाव से उस निरीह आत्मा हरि ईश्वर का ही भजन करो।
सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्मेश्वरः प्रियः।
भूतैर्महद्भिः स्त्रकृतैः कृतानां जीवसञ्जितः॥
देवोऽसुरो मनुष्यो वा यक्षो गन्धर्व एव च।
भजमुकुन्दचरणं स्वस्तिमान् स्याद्यथा वयम्॥
नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वाऽसुरात्मजाः।
प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता॥
न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च।
प्रीयतेऽमलया भक्तया हरिरन्यद्वडम्बनम्॥
ततो हरौ भगवति भक्तिं कुरुत दानवाः।
आत्मौपम्येन सर्वत्र सर्वभूतात्मनीश्वरे॥
दैतेया यक्षरक्षांसि स्त्रियः शूद्रा व्रजौकसः।
खगा मृगाः पापजीवाः सन्ति ह्यच्युततां गताः॥
एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः।
एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम्॥
अर्थात् “हे असुर बालको! समस्त प्राणियों के आत्मा, ईश्वर और सबसे अधिक प्रिय एकमात्र हरि भगवान् हैं, वे अपने उत्पन्न किये हुए पञ्चमहाभूतों द्वारा रचित प्राणियों के अन्तर्यामी जीव-संज्ञक हैं। तुम लोग इस बात का सन्देह न करो कि हम दैत्य हैं, अतः ईश्वर की भक्ति करने के योग्य नहीं हैं क्योंकि जिस प्रकार हम भगवान् की भक्ति के प्रभाव से कल्याण को प्राप्त हुए हैं इसी प्रकार देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व आदि समस्त योनियों के प्राणी, भगवान् मुकुन्द के चरण-कमलों को भजते हुए कल्याणभाजन होते हैं। भगवान् मुकुन्द के प्रसन्नार्थ न तो केवल ब्राह्मण होना और न देवता होना और न ऋषि-महर्षि होना ही पर्याप्त है और न किसी वृत्त, बहुज्ञता, दान, तप, यज्ञ, आचार, विचार और केवल व्रत करना आदि ही पर्याप्त है। वे भगवान् तो विशुद्धा अच्युता भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। भक्तिरहित होकर अन्यान्य कर्मों को करना तो विडम्बना—तमाशामात्र है। हे असुर-बालको! इसी कारण मैं कहता हूँ कि तुम लोग अपने कल्याण के लिये भगवान् 'हरि' में भक्ति करो और सारे प्राणियों को अपने आत्मा के समान ही मानकर उन सबके अन्तर्यामी भगवान् हरि का भजन करो। हे मित्रो! केवल उनकी भक्ति के प्रभाव से न जाने कितने दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्री, शूद्र, व्रजवासी, पशु, पक्षी तथा अन्यान्य पापी जीव अमृतत्व को प्राप्त हो चुके हैं। अतएव इस लोक में मनुष्यों का सबसे बड़ा स्वार्थ यही है कि वे भगवान् गोविन्द की एकान्त (अनन्य) भक्ति करें जो उन्हें भगवान् की दृष्टि में सबसे बड़ा सम्मान प्रदान करने वाली है।”
पुरोहित लोग छिपे हुए प्रह्लादजी का व्याख्यान सुन रहे थे। जैसे ही उनका व्याख्यान समाप्त हुआ वैसे ही वे सामने आकर कहने लगे कि “राजकुमार! अब आप हम लोगों पर कृपा करें और अपने स्थान को चलें। क्योंकि आपके यहाँ रहने से हमारे अन्यान्य छात्र भी भक्ति-भावना के पागलपन में पड़ न जाने किस दिन किस यातना को प्राप्त हो जायँगे।” इतना कहकर पुरोहितजी ने प्रह्लाद को साथ लेकर राजसभा के लिये प्रस्थान किया। प्रह्लादजी के सहपाठी असुर-बालकों को पुरोहितों का बर्ताव कितना अप्रिय लगा होगा इसका अनुमान सहज ही में किया जा सकता है किन्तु उनमें छात्रधर्म था और गुरु की गुरुता का आदर था। इसका कारण यह था कि उन्हें योग्य धर्मशिक्षा मिली थी। इसीलिये असुर होने पर भी वे आजकल के धर्महीन विदेशी शिक्षा के पात्र स्वेच्छाचारी भूसुर विद्यार्थियों से ऊँचे विचार के छात्र थे। उनमें आजकल के छात्रों की जैसी धृष्टता, उच्छृंखलता और गुरुद्रोहिता के भाव नहीं थे। उस समय गुरुकुल में न कोई पुलिस थी और न पलटन थी। तथापि राजकुमार जैसे प्रभावशाली विद्यार्थी को अकेले गुरुजी राजद्रोह के अपराध में अपनी पाठशाला से निकालकर राजसभा में उनको प्राणदण्ड के समान कोई भयंकर दण्ड दिलाने के लिये ले जा रहे हैं। इतने पर भी पाठशाला में कोई अशान्ति नहीं हुई। वहाँ शान्ति का ही राज्य रहा और हृदय में चंचलता होने पर भी उन भगवद्भक्त निर्भीक छात्रों में से किसी का शरीर इतनी बड़ी घटना होने पर भी चंचल नहीं हुआ। आज हमको यह आश्चर्य-सा प्रतीत होता है, किन्तु यही उस समय के विद्यालयों, गुरुओं और छात्रों का आदर्श था। प्रह्लादजी के साथ उनके गुरु लोग राजसभा को चले गये और पाठशाला में छात्रगण मर्यादा के अनुसार शान्त बैठे अपना-अपना पाठ पढ़ते रहे।
उधर पाठशाला में यह सब कुछ हो ही रहा था कि इधर तीर्थयात्रा से लौटकर शुक्राचार्यजी महाराज हिरण्यपुर में आ गये। वे सबसे पहले राजसभा में न जाकर, राजमहल में पहुँचे। गुरु के शुभागमन का समाचार सुन दैत्यराज ने पाँव-पियादे राजद्वार पर जाकर उनको साष्टाङ्ग प्रणाम किया और आचार्य को अपने साथ में ले जाकर अर्ध्य-पादार्ध्य आदि के द्वारा उनका यथोचित पूजन किया। शुक्राचार्यजी ने भी आशीर्वाद देकर, कुशल प्रश्न पूछा। दैत्यराज ने प्रह्लादजी के सारे चरित्रों का वर्णन किया और अन्त में कहा कि “महाराज! आज रात को मैंने बहुत ही विचित्र स्वप्न देखे हैं। मैंने देखा कि राजसभा में मेरे सामने ही वज्रपात हुआ, जिससे सारी सभा नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। मैं शिकार खेलने गया तो मुझे जंगली हाथियों ने खदेड़ा, जिससे मुझे भागना पड़ा। सबसे बुरी बात मैंने यह देखी कि महारानी कयाधू बड़ी ही विकलता से विलाप करती हुई रो रही हैं। यह तो स्वप्न की बातें हुईं, इसके सिवा आजकल शकुन भी अच्छे नहीं हो रहे हैं, इन सबका क्या कारण है और क्या फल है? आपके अतिरिक्त यह सब मुझे और कौन बतला सकता है?”
शुक्राचार्य– “हे वत्स ! तुमको जो स्वप्न हुए हैं न तो वे ही मंगलकारी हैं और न ये भौम आन्तरिक्ष और दिव्य शकुनरूप उत्पात ही शुभ हैं।
यस्यैते सम्प्रदृश्यन्ते राज्ञो राष्ट्रे महासुर।
देशो वा हृयते तस्य राजा वा वधमर्हति॥
अतो बुद्धया समीक्षस्व यथा सर्व प्रणश्यति।
बृहद्भयं हि न चिराद्भविष्यति न संशयः॥
अर्थात्– “हे महाअसुर हिरण्यकश्यपु! जिस राजा को ऐसे स्वप्न दिखलायी देते हैं और जिस राजा के देश में ऐसे उत्पात एवं अपशकुन होते हैं, उस राजा का या तो देश छीना जाता है या वह स्वयं मारा जाता है। अतएव इस बात को तुम खूब सोच लो कि बहुत ही शीघ्र कोई बहुत बड़ा भय उपस्थित होने वाला है जिससे सर्वनाश हो जायगा।” इतना कहकर शुक्राचार्यजी ने बिना अरिष्ट शान्ति बतलाये ही दैत्यराज को आशीर्वाद दे अपने आश्रम को जाना चाहा। दैत्यराज की दशा बुरी थी, वे अरिष्ट-शान्ति का उत्तर न पाने से विकल थे किन्तु गुरुजी से कुछ कह भी नहीं सकते थे अतएव भय एवं शोक से व्याकुल दैत्यराज ने उनको सादर साष्टाङ्ग प्रणाम कर विदा किया। इस समय दैत्यराज के चित्त पर अत्यन्त विषाद छाया था, भय एवं शोक का पूर्ण आवेश था। इसी समय ब्रह्मशाप का भी काल आकर उपस्थित हो गया। शाप के प्रभाव से उसके हृदय में पुनः अपने पुत्र प्रह्लाद की हरिभक्ति की ओर ध्यान गया। यह स्वाभाविक बात है कि भयातुर व्यक्ति को चारों ओर भय-ही-भय दिखलायी देने लगता है। यही दशा हिरण्यकश्यपु की थी। भय एवं शोक से व्याकुल दैत्यराज कुछ देर बाद राजसभा को गया, वहाँ पहुँचते ही उसने देखा कि शोक एवं चिन्ता युक्त गुरुपुत्र षण्ड और अमर्क प्रह्लाद को साथ लिये चले आ रहे हैं।
दैत्यराज एवं पुरोहितसहित राजकुमार, सब लोग एक ही साथ सभा में पहुँचे और सबका यथोचित स्वागत अभिवादन आदि हुआ। प्रह्लादजी ने पिता के चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम किया। दैत्यराज ने उनको आशीर्वाद दे अपने आसन पर बैठने की आज्ञा दी। राजसभा ठसाठस भरी थी, हिरण्यकशिपु की राजसभा समस्त ऐश्वर्य की मूर्तिमान् छटा थी, परन्तु दैत्यराज की उदासीनता से सारी-की-सारी सभा उदासीन-सी प्रतीत हो रही थी। भावी शोक की छाया मानों सबके हृदयों पर पड़ रही थी। सारे सभासद् चुपचाप बैठे थे, कोई किसी से कुछ भी कहता-सुनता नहीं था।
राजसभा शान्त थी, दैत्यराज भी चुपचाप बैठे थे, इसी बीच में दैत्य गुरुओं ने पाठशाला में छात्रों को प्रह्लाद द्वारा दी जाने वाली हरिभक्तिरूपी राजद्रोही वक्तृताओं का समाचार सुनाया। दैत्यराज का चित्त ब्रह्मशाप के प्रभाव से पहले से ही भय और शोक से सन्तप्त हो रहा था, अतः जैसे ही उसने गुरुवरों के मुख से प्रह्लाद की बातें सुनीं, वैसे ही उसके शरीर में आग सी लग गयी। उसने क्रोधपूर्ण विकराल नेत्रों से प्रह्लाद की ओर देखा और तड़क कर कहा कि “रे दुष्ट! क्या अभी तक तेरी मूर्खता नहीं गयी? सुनता है, तेरे गुरुवर क्या कह रहे हैं? क्या सचमुच तू अब मेरे ही हाथों मरना चाहता है? क्या अब भी अपनी दुष्टता छोड़कर मेरी आज्ञा का पालन नहीं करेगा? मेरा यह अन्तिम आदेश है कि—
अहमेवेश्वरो लोके त्रैलोक्याधिपतिर्यतः।
मामेवार्चय गोविन्दं त्यज शत्रुं दुरासदम्॥
अर्थात्– “तीनों लोक का एकमात्र मैं ही स्वामी हूँ, इसलिये तू मुझको ही ईश्वर मान, और मेरी ही पूजा कर, उस दुष्ट शत्रु गोविन्द का नाम छोड़ दे।”
दैत्यराज के वचन समाप्त होते ही राजपुरोहितों ने भी उनकी ही हाँ में हाँ मिला दी। पिता एवं पुरोहितजी के वचन सुन कर परम भागवत प्रह्लादजी हँसते हुए कहने लगे
“अहो भगवतः श्रैष्ठ्यं यन्मायामोहितं जगत्।
अहो वेदान्तविदुषः सर्वलोकेषु पूजिताः॥
ब्राह्मणा अपि चापल्यावदन्त्येवं मदान्विताः।
नारायणः परं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परम्॥
नारायणः परो ध्याता ध्यानं नारायणः परम्।
गतिर्विश्वस्य जगतः शाश्वतः स शिवोऽच्युतः॥
धाता विधाता जगतः वासुदेवः सनातनः।
तेनैव सृष्टी ब्रह्मेशौ सर्वदेवोत्तमावुभौ॥
तस्यैवाज्ञां पुरस्कृत्य वर्तेते ब्रह्मशङ्करौ।
तस्य विष्णोः परं धाम सदा पश्यन्ति सूरयः
एवं सर्वोपनिषदामर्थं हित्वा द्विजोत्तमाः।
रागाल्लोभाद्भयाद्वापि अन्यत्रमतिमानसाः॥
कृष्णं ध्यायेन्महात्मानो योगिनः सनकादयः।
यमर्चयन्ति ब्रह्मेशशक्राद्या देवतागणाः॥
स एव रक्षकः श्रीशो देवानामपि सर्वदा।
तमेव पूजयिष्यामि लक्ष्म्या संयुतमीश्वरम्॥”
अर्थात्– “बड़े आश्चर्य की बात है कि वेद-वेदान्त के जानने वाले विद्वान् ब्राह्मण, जिनको सारा संसार आदर की दृष्टि से देखता और पूजता है वे भी भगवान् की माया से मोहित हो धृष्टता के साथ, अभिमान के साथ इस प्रकार की अनर्गल बातें कहते हैं। जिन भगवान् की माया से यह सारा जगत् मोहित है उनकी बड़ाई कहाँ तक की जाय? मेरे विचार में तो नारायण ही परब्रह्म हैं, नारायण ही परम तत्त्व हैं, नारायण ही सबसे बड़े ध्यान करने वाले और नारायण ही सबसे बड़े ध्यान हैं। वे ही जगत् की गति हैं, वे ही इस अनवरत चलने वाले विश्व की गति हैं और वे ही अच्युत एवं भगवान् शिव हैं। वे ही नारायण संसार के धाता-विधाता हैं और वे ही सनातन वासुदेव हैं, उन्हीं नारायण ने ब्रह्मा और शिव इन दोनों सर्व देवताओं में उत्तम देवताओं को उत्पन्न किया है और उन्हीं की आज्ञा से वे दोनों अपना कार्य करते हैं। उन्हीं भगवान् विष्णु के धाम को विद्वान् लोग सबसे परे देखते हैं। परन्तु आज उन सर्वोपनिषदों से प्रतिपादित नारायण को छोड़ कर, ये ब्राह्मणों में उत्तम विद्वान भी राग, लोभ अथवा भयवश न जाने क्या कह रहे हैं और अपने चित्त को दूसरी ओर बहका रहे हैं? जिन परब्रह्म भगवान् कृष्ण का सनकादि योगिराज ध्यान करते हैं, जिनको ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि देवतागण पूजते हैं और जो एक ही देवताओं के भी सदा रक्षक रहते हैं। मैं उन्हीं परब्रह्म नारायण की, लक्ष्मीजी के सहित पूजा करूँगा।”
प्रह्लादजी के निर्भीक और ओजस्वी वचनों को सुनकर दैत्यराज के शरीर में आग लग गयी। क्रोध के मारे उसके अंग काँपने लगे और वह तिरछी नजर से प्रह्लाद की ओर देखता हुआ तिरस्कारयुक्त वचन बोला कि “रे दुष्ट राजकुमार! बता, जिसकी तू इतनी प्रशंसा करता है वह तेरा विष्णु है कहाँ? यदि तेरा विष्णु सर्वव्यापी है तो क्या इस राजसभा में भी है? यदि है तो दिखला, कहाँ है? यदि नहीं दिखलाता तो अब तेरा अन्त-समय आ गया। अब तक हमने तुझको अपना सुपुत्र समझकर अपने हाथों वध करना उचित नहीं समझा था, किन्तु अब ऐसा प्रतीत होता है कि तेरी मृत्यु हमारे ही हाथ है। शीघ्र बतला और दिखला तेरा विष्णु कहाँ है?” यों कहते-कहते दैत्यराज आपे से बाहर हो गया और बोला—
“हे दुर्विनीत मन्दात्मन् कुलभेदकराधम।
स्तब्धं मच्छासनोद्धूतं नेष्ये त्वाद्य यमक्षयम्॥
क्रुद्धस्य यस्य कम्पन्ते त्रयो लोकाः सहेश्वराः।
तस्य मेऽभीतवन्मूढ शासनं किंबलोऽत्यगाः॥”
अर्थात्– “रे दुर्विनीत, रे मन्द-बुद्धि, कुलांगार अधम! मेरी आज्ञा का उल्लंघन करनेवाले तुझको मैं अभी यमलोक पहुँचाता हूँ। जिसके कुपित होते ही लोकपालों के सहित तीनों लोक थर-थर काँपने लगते हैं, उस मेरे समान पराक्रमी की आज्ञा का अरे मूढ़! तू किसके बल पर निडर हो उल्लंघन कर रहा है?”
परम विश्वासी प्रह्लाद ने शान्ति और गम्भीरता के साथ उत्तर दिया—
“न केवलं मे भवतश्च राजन् स वै बलं बलिनां चापरेषाम्।
परेऽवरेऽमी स्थिरजङ्गमा ये ब्रह्मादयो येन वशं प्रणीताः॥
स ईश्वरः काल उरुक्रमोऽसावोजः सहः सत्त्वबलेन्द्रियात्मा।
स एव विश्वं परमः स्वशक्तिभिः सृजत्यवत्यत्ति गुणत्रयेशः॥
जह्यासुरं भावमिमं त्वमात्मनः समं मनो धत्स्व न सन्ति विद्विषः।
ऋतेऽजितादात्मन उत्पथस्थितात्तद्विद्ध्यनन्तस्य महत्समर्हणम्॥
दस्यून्पुरा षण्ण विजित्य लुम्पतो मन्यन्त एके स्वजिता दिशो दश।
जितात्मनो ज्ञस्य समस्य देहिनां साधोः स्वमोहप्रभवाः कुतः परे॥”
अर्थात्– “हे महाराज ! जिन्होंने ब्रह्मा से लेकर एक तिनके तक समस्त स्थावर जंगम जगत् को अपने वश में कर रखा है वे भगवान् ही मेरे बल हैं, मेरे ही नहीं, आपके और अन्यान्य सबके बल भी वे ही हैं। वे ही महापराक्रमी भगवान् ईश्वर हैं, काल हैं और ओज हैं; वे ही साहस, सत्त्व, बल, इन्द्रिय और आत्मा हैं वे ही तीनों गुणों के स्वामी अपनी परम शक्ति से विश्व की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। आप अपने इस आसुरी भाव को छोड़कर सबमें समभाव से परमात्मा को देखिये। फिर आपको पता लगेगा कि आपका ही क्या किसी का भी कहीं कोई शत्रु नहीं है। कुमार्ग पर चलने वाला बिना जीता हुआ मन ही परम शत्रु है। अतएव मन को वश में करके समत्व को प्राप्त होना ही अनन्त भगवान् की मुख्य आराधना है। कुछ मूर्ख लोग अपने अन्दर रहनेवाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर इन छः डाकुओं को पहले न जीत कर ही मान बैठते हैं कि हमने दशों दिशाओं को जीत लिया है। जिन्होंने अपने मन-इन्द्रियों को वश में कर लिया है उन समस्त भूत-प्राणियों में समदृष्टि हुए विद्वान् साधुओं के लिये अपने अज्ञान से कल्पित शत्रु कोई भी नहीं है।
हे पितृचरण! आप क्रोध न कर शान्त होइए, दैत्यों के नहीं, अपने मन के राजा बन क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें। अभी समय है, अब भी आप उन करुणावरुणालय की भक्ति में चित्त लगाइये। फिर आप देखेंगे कि मेरा वह प्रभु आपकी इस राजसभा में विद्यमान है। यदि आप ऐसा करें तो आप आज ही से परम सुखी और सन्तुष्ट होकर परम पद को प्राप्त कर सकते हैं।”
प्रह्लाद के इन वचनों को सुन कर हिरण्यकशिपु क्रोध से अधीर हो उठा और बोला “रे मन्दभागी, अब निश्चय ही तेरी मरने की इच्छा है—
'विनाशकाले विपरीतबुद्धिः' ठीक ही है। इसीसे तू हमारे सामने धृष्टता के साथ अनाप-शनाप बक रहा है। इस धृष्टता का फल अभी तुझको मिलता है। अच्छा! जब तू अपने विष्णु को हमारी सभा में भी बतलाता है, और उसे जगदीश्वर मानता है तो दिखला वह कहाँ है? क्या इस सामने वाले खम्भे में भी है ? यदि है तो जल्दी दिखला, नहीं तो अब हम तेरा सिर इसी तलवार के द्वारा धड़ से अलग करते हैं। देखेंगे, तेरा हरि कहाँ से आकर तुझे बचाता है?"
प्रह्लादजी ने पिताजी को प्रणामकर और हाथ जोड़कर कहा कि, पूज्यपाद पिताजी! आप शान्त हों, क्रोध न करें। मैंने मिथ्या नहीं, सत्य ही कहा है। मेरे विष्णु सर्वव्यापी हैं और इस खम्भे में भी हैं। भगवन्! देखिये, मुझे तो इस खम्भे में वे स्पष्ट दिखलायी पड़ते हैं, मैं नहीं कह सकता आपको भी दिखलायी पड़ते या नहीं। इसी प्रसंग में स्व० वा० वान्धवाधीश ने लिखा है—
पितु बावरो! तू कछु जाने नहीं प्रभु मेरो सबै थल में विचरै।अवनी में अकाश में शैलहु सिन्धु में मो महँ तो महँ तेज भरै॥रघुराज बड़ो करुणाकर सो निज भक्तन को प्रण पूरो करै।यह खम्भ में मोहि तो देखि परै तोहि देखि परै धौ न देखि परै॥ परमभागवत प्रह्लादजी के इन वचनों को सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु राजसिंहासन से सहसा कूद पड़ा और क्रोध के आवेश में प्रह्लादजी को न जाने कितने कटु एवं अवाच्य वचन कहता हुआ खड्ग लेकर, भाँति-भाँति के रत्नों एवं मोतियों की झालरों से सुशोभित सामने के स्फटिक-स्तम्भ की ओर लपककर उस पर बड़े जोर से एक ऐसा मुष्टि-प्रहार किया कि जिससे न केवल राजसभा ही किन्तु सारा भूमण्डल डगमगा गया मुष्टि-प्रहार के शब्द के साथ ही खम्भे में से सहसा ऐसा भयंकर एवं घोर शब्द हुआ जिससे तीनों लोक और चौदहों भुवन शब्दायमान हो गये। ब्रह्माण्ड के फूटने के समान घोर भैरव शब्द को सुनकर सारे संसार के समस्त भूतप्राणी घबरा गये। लोगों ने समझा कि प्रलयकाल उपस्थित है। अगणित असुर-स्त्रियों के गर्भ असमय में ही गिर गये। कायर असुर भयानक शब्द सुनते ही सभा से भाग निकले। आकाश से तारे टूट-टूट कर गिरने लगे। दिग्गजों के दाँत हिल गये। सहसा भूमण्डल में भारी भूकम्प-सा आ गया और न जाने कितने ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और उनके श्रृंङ्ग टूट-टूट कर वेग से उछले और दूर-दूर देशों में जा गिरे। जब पहाड़ों की यह दशा हुई तब विशाल राजमहलों की विशेषकर हिरण्यपुर के राज-प्रासादों की दशा कैसी हुई होगी, इसका अनुमान करना कठिन नहीं। सारे नगर के लोग भयभीत होकर अपने-अपने घरों से निकल-निकल कर भागने लगे और सर्वत्र हाहाकार मच गया।
इस प्रकार महाभैरव शब्द के साथ ही दैत्यराज ने अपने सामने ही सहसा स्तम्भ को फूटते हुए देखा—
सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः।
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन् स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम्॥ –( श्रीमद्भागवत ७ | १८ | १८ )
अर्थात्– “भगवान् मुझे तो इस खम्भ में भी दिखलायी पड़ते हैं।”अपने भक्त प्रह्लाद के इन वचनों को और अपनी सर्वव्यापकता को प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध करने के लिये भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरि सभा के बीच स्तम्भ के भीतर से अद्भुत नरहरि-रूप धारण कर प्रकट हो गये।’ [टीकाकारों ने यहाँ पर
'निजमृत्यभाषितम्' के अनेक अर्थ किये हैं। किसी ने लिखा है कि, अपने सेवक सनकादि महर्षियों के उस वचन को सत्य करने के लिये जो शाप के अनन्तर उन्होंने जय-विजय को तीन जन्म में मुक्ति पाने की बात कही थी अथवा निजभृत्य हिरण्यकशिपु के उस वचन को सत्य करने के लिये भगवान् ने नृहरिरूप धारण करके अवतार लिया है, जिस वचन में उसने ब्रह्माजी से वर माँगा था कि मैं न मनुष्य से मारा जाऊँ और न पशु से। इसी कारण यहाँ 'न मृगं न मानुषम्' ऐसे शब्द का प्रयोग भी हुआ है । किसी-किसी ने यह भी लिखा है कि कयाधू-हरण के समय इन्द्र से नारदजी ने कहा था कि इसके गर्भ में हरि-भक्त है उससे तुम्हारी रक्षा होगी, उस वचन को सत्य करने के लिये भगवान् प्रकट हुए हैं।]
दैत्यराज ने परम आश्चर्य और भय के साथ अद्भुत नृसिंह-रूप को देखा। जिसका सारा शरीर तो चतुर्भुज सुन्दर मनुष्य का सा है और सिर महाभयंकर सिंह सा दीख रहा है। प्रज्वलित अग्नि में तपाये हुए सोने से चमचमाते हुए भयावने नेत्र हैं और सिर पर आकाश तक फैली हुई सोने की-सी जटाएँ फहरा रही हैं। बड़े-बड़े तीखे भयंकर दाँतों और बिजली की चपलता को भी लज्जित करने वाली चमचमाती हुई लपलप करती जिह्वा को देखकर अजेय वीर दैत्यराज का हृदय काँप उठा और उसका मुख सहसा सूख गया। भगवान् नृसिंह के पर्वताकार शरीर के विशाल भुजदण्डों और ब्रह्माण्ड को फाड़ डालने योग्य बड़े-बड़े नखों को देखकर दैत्यराज का धीरज छूट गया और भयभीत हो जाने के कारण, उसकी आँखें सहसा बन्द हो गयीं। यह पहला ही अवसर था कि दैत्यराज को अपने जीवन में भय प्राप्त हुआ था। उसने भयभीत होकर शत्रु के सामने आँखें मूँद लीं। लोग कह सकते हैं कि, दैत्यराज-जैसे वीर के लिये मृत्यु से डर कर भयभीत हो आँख मूँद लेना कभी सम्भव नहीं था। उसने अपने स्वामी को अपने सामने देख, अपने उस अपराध को स्मरण किया जिसके कारण उसको सनकादि महर्षियों ने शाप दिया था और अपने ही अपराध के कारण
दयामय स्वामी को यह रूप धारण करने का कष्ट उठाना पड़ा था, इसलिये उसने लज्जित होकर अपनी आँखें मूँद ली थीं। यह भावना भी बड़ी सुन्दर है। अस्तु।
इधर दैत्यराज की जीते ही जी आँखें मुँद गयीं! तीनों लोक तथा चौदहों भुवन को जीतने वाले अजेय वीर का शरीर मृतप्राय हो गया। उधर घोर गर्जना करते हुए उन भयंकर मूर्तिधारी भगवान् श्रीनृसिंहजी ने तड़ककर एक छोटी भूमिका के समान दैत्यराज को उठाकर अपनी जंघा पर रख तीक्ष्ण नखों से उसका उदर विदीर्ण कर डाला और अँतड़ियों को निकाल अपने गले में माला—विजयमाला के रूप में धारण कर लिया। दैत्यराज का अन्त पलक मारते-मारते ही हो गया। साथ ही उसके साथी अन्यान्य सुर-असुर भी भगवान् नृसिंह की कोपज्वाला में भस्म होकर वहीं ढेर हो गये। [किसी-किसी पुराण में दैत्यराज और भगवान् नृसिंहजी के बीच बहुत दिनों तक घोर युद्ध होने का उल्लेख है। इतना ही नहीं, इस युद्ध में विष्णु जी के साथ इन्द्रादि देवताओं के लड़ने की भी बात है। सम्भवतः ऐसी कथाएँ कल्पान्तर की ही मानी जा सकती हैं।]
त्रिभुवनविजेता दैत्यराज हिरण्यकशिपु के सहसा वध होने का समाचार बिजली के समान सर्वत्र फैल गया। देवताओं के अधीश्वर इन्द्र और अन्यान्य दिक्पाल कारागार से तुरन्त मुक्त कर दिये गये। सारे संसार में विशेषकर देवता और उनके भक्त धार्मिक विश्वनिवासियों में आनन्दमय कोलाहल मच गया। असुरों से सन्तप्त देवताओं में उस समय जो आनन्द-समुद्र उमड़ा, उसका वर्णन करना तो लेखनी की शक्ति के सर्वथा बाहर है। हाँ, उस आनन्द का आंशिक अनुभव वे कर सकते हैं जो घोर अत्याचारी, धर्मद्रोही प्रबलतर शासक के पश्चात् उसके दुःशासन के अन्त और सुशासन के आरम्भ को देखने का सुख पा चुके हैं। अस्तु, दैत्यराज के वध से स्वर्ग के आनन्द का ठिकाना न रहा, जहाँ देखिये वहीं आनन्द-ध्वनि हो रही है, भगवान् नरहरि का जय-जयकार मनाया जा रहा है और परमभागवत प्रह्लादजी का गुण गाया जा रहा है। चारों ओर मंगलमय उत्सव होते दिखलायी दे रहे हैं और पटह-दुन्दुभी ही नहीं, बड़े-बड़े नगाड़ों से आकाशमण्डल घहरा उठा है। गन्धर्वों के संगीत और अप्सराओं के नृत्य से सारा स्वर्ग मंगलधाम बन गया है। इस आनन्दोत्सव में गन्धर्वों और अप्सराओं के साथ देवतालोग भी आकाशमण्डल में हिरण्यपुर के ऊपर टिड्डियों की तरह उड़ने लगे और विश्वम्भर की विजयध्वनि से विश्व को कम्पायमान करते हुए भगवान् श्रीनृसिंहजी महाराज के तथा उनके परमभक्त प्रह्लाद के ऊपर पुष्पवृष्टि करने लगे।
अवश्य ही दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध उसके वरदान की शर्तों को पालन करते हुए ही हुआ। उसने शर्तें रखी थीं कि 'न दिन में मरूँ न रात में अतएव उसका वध सन्ध्या समय किया गया उसने माँगा था कि 'मुझे न मनुष्य मारे न पशु' अतएव ‘न मृगं न मानुषं' नृसिंह रूप भगवान् को धारण करना पड़ा और उसने वर माँगा था कि 'मैं न हथियार से मारा जाऊँ और न ब्रह्माजी के उत्पन्न किये हुए किसी प्राणी से' अतएव नखों द्वारा और ब्रह्मा की सृष्टि के किसी प्राणी ने नहीं, स्वयम्भू भगवान् नृसिंहजी ने उसको मारा। उसकी यह भी शर्त थी कि 'मैं न भीतर मरूँ न बाहर तथा न जल में, न थल में' अतएव भगवान् ने उसे देहरी पर और अपनी जंघा पर गिरा कर मारा था। सारांश यह कि भक्तवत्सल भगवान् ने अपने पार्षद की, जो उस समय दैत्यराज के रूप में था, सारी शर्तें पूरी कीं और उसने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार शत्रुतापूर्ण उनका जैसा भजन किया, उसके फलस्वरूप यह प्रथम जन्म का काण्ड समाप्त हुआ।
हिरण्यकशिपु मारा गया, सारे संसार में आनन्द छा गया और देवताओं के दुःख का अन्त हो गया किन्तु राजसभा के मध्य भगवान् नृसिंह की उस विकराल मूर्ति के तेज से उनके सम्मुख डर के मारे किसी का भी जाने का साहस नहीं होता। अन्य देवताओं की कौन कहे, ब्रह्मा और शिव भी दूर दी खड़े उस छवि को देखते हैं। भगवान् की वह मूर्ति, मानों मूर्तिमान् क्रोधमयी मूर्ति बन गयी है। भगवान् का घोर गर्जन, उनके गले में दैत्यराज की अंतड़ियों की माला और रक्तरंजीत शरीर की ओर किसी को देखने का साहस नहीं होता था। अन्त में सब देवताओं ने जगन्माता महालक्ष्मी का स्मरण किया, उनकी स्तुति की। जगज्जननी प्रसन्न होकर उपस्थित हुई। ब्रह्मादि देवताओं ने उनसे प्रार्थना की कि “माता! इस समय जगत्पिता प्रभु का जैसा विकराल स्वरूप है, उनका जैसा क्रोध है और वे जैसे घोर गर्जन से बारम्बार भूमण्डल को कम्पायमान कर रहे हैं, ऐसा स्वरूप हम लोगों ने इससे पूर्व कभी नहीं देखा था। अतएव हम लोग भयभीत हो रहे हैं। किसी का साहस नहीं होता कि उनके चरणकमलों तक जाय और प्रार्थना करके उनके कोप को शान्त करावे। इसीलिये हम लोगों ने आपको कष्ट दिया है। माताजी ! इस समय आप ही उनके क्रोध को शान्त कर सारे संसार को
इस महान् आतंकरूपी संकट से मुक्त कर सकती हैं।” देवताओं के प्रार्थनानुसार जगन्माता महालक्ष्मी कुछ दूर तक तो गयीं, परन्तु भगवान् का भयंकर नृसिंहरूप और उनका प्रचण्ड तेज देखकर तुरन्त लौट आयीं। महालक्ष्मी ने देवताओं से कहा कि “देवगण! आजतक मैंने भी न तो भगवान् का ऐसा स्वरूप ही कभी देखा और न ऐसी क्रोधभरी प्रज्वलित आँखें ही देखी हैं अतएव मेरा साहस नहीं होता कि मैं उनके समीप तक जाऊँ और उनके क्रोध को शान्त कराऊँ।” आखिर में सब देवताओं की सम्मति से ब्रह्माजी ने प्रह्लादजी से कहा “बेटा प्रह्लाद ! अब इस त्रिलोकी में भगवान् का क्रोध शान्त कराने वाला तुम्हारे अतिरिक्त कोई नहीं है। यह क्रोध तुम्हारे पिताजी को मारकर तुम्हारी रक्षा करने के लिये ही हुआ है अतएव तुम्हीं इस क्रोध को शान्त करा सकते हो।” ब्रह्माजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर प्रह्लादजी शान्तचित्त से, निर्भय हो, भगवान् के समीप जा पहुँचे और उनको साष्टाङ्ग प्रणाम किया। जिस भयानक स्वरूप के भय से ब्रह्मादि देवता कोसों दूर भागते थे, श्रीनृसिंहजी की उसी मूर्ति के चरणों में प्रह्लादजी निर्भय साष्टाङ्ग प्रणाम कर रहे हैं। यह है क्या? किसके प्रभाव से आज प्रह्लाद निर्भय हैं? यह है भक्त का महत्त्व और अनन्य भगवद्भक्ति की अनन्त महिमा, जिसके वश होकर भगवान् को इस प्रकार की अलौकिक लीलाएँ करनी पड़ती हैं।