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भोला सिंह खेत में काम करवा कर लौट आए थे । गेजा आते ही नौहरे मे गया और गायों का दूध निकाल कर ले आया । शाम अपने पूरे जौबन पर थी । सूरज अपना दिन का काम खत्म करके अब पश्चिम की यात्रा पर निकल पङा था । रात अपनी सितारों जङी चुनरी अपने चौगिर्द बिखेरे धीरे धीरे धरती पर पग बढा रही थी । जयकौर ने आसमान की ओर आजिजी से देखा । सुभाष को संधवा से गये हुए छब्बीस घंटे हो गये थे और अभी तक उसके लौटने की कोई खबर न थी । जैसे जैसे वक्त बीत रहा था , जयकौर के दिल की बेचैनी बढती जा रही थी । एक - एक मिनट बिताना उसे भारी हो रहा था । लगता जैसे थोङी देर और इंतजार करना पङा तो साँस रूक ही जाएगी ।
उसे लगता बेकार में ही चला गया वह । यहीं से कपङे ले लेता , घर जाकर कौन से सौ कपङे उठा लाएगा । गरीब लोगों के पास तीन जोङे कपङे रोज काम धंधे के पहनने के कपङे होते हैं और एक दो जोङे बाहर अंदर पहनने के लिए । इससे ज्यादा की न तो जरूरत होती है ,न ही गुंजाइश । जिसके पास नये , पहनने लायक तीन जोङे निकल आएं , वह तो सबसे अमीर आदमी हुआ । इसके साथ ही उसे बसंत कौर याद आई , जिसने इन दस बारह दिनों में हर रोज नया कपङा पहना था । किसी कपङे की अभी तक दोबारा पहनने की बारी नहीं आई थी । रानियों की तरह शान से रहती थी बसंत कौर । जयकौर के अपने पास भी अब पाँच सूट हो गये थे । सारे एक से बढ कर एक सुंदर सूट । ऐसे कपङे तो उसने कभी किसी शादी ब्याह में भी नहीं पहन कर देखे थे । जेवर में से उसने चूङियाँ और चेन संभाल कर रख ली थी । सिर्फ कांटे पहने रहती । ये कांटे ही एक तोले सोने में बने थे । कम से कम चालीस हजार के तो रहे होंगे ।
जयकौर ने सुभाष को कपङे लाने के लिए कम्मेआना भेज तो दिया , पर वह लौट आएगा , इस पर उसका मन संशय में था । अगर वहाँ जाकर उसका मन बदल गया तो .... । अगर चाची ने न आने दिया तो ... । उसे वहाँ कोई काम पङ गया तो ... । यह तो की लिस्ट खत्म ही नहीं होती थी । एक तो दिमाग से निकलता तो दूसरा उससे भी बङा तो सामने आ खङा होता । बाहर गली में जरा सा भी खटका होता , वह भाग कर दरवाजे पर जा पहुँचती । अगर न जा पाती तब भी नजरें चौखट पर ही चिपकी रहती । काम में मन न लगता । चाय बनाने बैठी तो दूध की जगह मटठा डाल दिया । डर के मारे सारी चाय गाय भैंसों के चारे में मिला आई । सब्जी बनाने लगी तो उसमें हल्दी डालना भूल गई । मूली काटने बैठी तो अपनी ऊँगली ही काट ली । बसंत कौर ने ऊँगली से खून टपकता देखा तो लीर लपेट दी । खून रूक गया ।
तू रहने दे , बैठ आराम से । मैं बनाती हूँ रोटियाँ ।
नहीं बहन जी , मेरे रहते , आप काम करोगे । ऐसा कैसे हो सकता है । अब खून रुक गया है , मैं सेकती हूँ फुल्के । आप परोस दो ।
बसंत कौर ने दाल को तङका दिया और तवा चढा कर एक ओर हो गई – ले सेक ले फुल्के ।
जयकौर ने परात अपने आगे सरकाई और पेङे बनाने लगी । थोङी देर में ही चंगेर में फुलके फूल फूल कर रखे जाने लगे । चंगेर भर गई तो उसने लकङियाँ बाहर खींच कर आग बुझा दी । अंगारों पर दाल चढी छोङकर उसने हाथ धोए । बसंत कौर ने रोटियाँ और दाल डाल कर रोटियां परिवार के लोगों को देनी शुरु कर दी । भोला सिंह और गेजा रोटी खा कर उठ गये तो उसने केसर को रोटी पकङाते हुए जयकौर को पुकारा – आ जा तू भी रोटी खा ले ।
मेरी रोटी लपेट कर रख दो बहन जी , मैं थोङी देर में खा लूँगी । आप पहले खा लो ।
थोङी देर में क्या जुग बदल जाएगा । गरम गरम खा कर काम खत्म करो । बरतन खाली होंगे तो टाईम से मंज जाएंगे ।
जयकौर अब कुछ कह न सकी । उसने चौके में जाकर पटरी खींची और रोटी खाने लगी । जैसे तैसे उसने दो रोटी खत्म की । तीसरी रोटी लेने की उसकी हिम्मत न हुई ।
इतनी जल्दी बस कर गई । एक रोटी और ले ले ।
नहीं बहन जी । बस हो गया , मैंने तो यह रोटी भी बङी मुश्किल से खत्म की है ।
उठते हुए उसने सारे जूठे बरतन नल पर लाकर इकट्ठे किए । केसर बरतन मांजने लगी ।
जयकौर ने दूध का चटूरा उठाया और दही जमाने लगी । तभी सामने से सुभाष आता दिखाई दिया । जयकौर मन से खुश हो गयी । उसका मन किया कि दौङ कर सुभाष के गले लग जाय । उसे बाहों में भर कर चूम ले । पर सामने केसर बर्तन मांज रही थी और चौंके में बसंत कौर थी तो अपने आप को संभालना बेहद जरूरी था ।
सुभाष ने आँगन में आकर सबके सतश्री अकाल बुलाई । और अपना झोला टिकाने के लिए इधर उधर देखा ।
ऐसा कर । ये कपङे वाला थैला उधर बरांडे में पङी चारपाई पर रख दे और हाथ मुँह धोकर दो फुल्के खाले । - बसंत कौर ने कहा ।
जी सरदारनी , मत्था देकता हूँ – सुभाष ने अपना आदर प्रकट किया और झोला टिकाने बरांडे की ओर बढ गया ।
तब तक जयकौर ने पानी का लोटा भर लिया था । उसने आँगन के ही कोने में सुभाष का हाथ मुँह धुलाया और पौंछने के लिए परना आगे बढा दिया ।
कैसा है तू
ठीक हूँ ।
मुझे तो लगा , तू नहीं आएगा । इतनी गहरी शाम जो हो गई है ।
तूने जोर देकर आने को कहा था , कैसे नहीं आता ।
घर वालों ने रोका नहीं ।
बाकी तो किसी ने नहीं रोका , बस भाभी मना कर रही थी ।
जयकौर ने आश्चर्य से देखा ।
असल में भाभी हमारी बात जानती है ।
अच्छा चल तू अब रोटी खा ले ।- कहते कहते जयकौर चौके में चली आई ।
सुभाष अभी संकोच में भरा वहीं खङा था । बसंत कौर ने थाली में फाँच फुल्के रखे । प्याज और हरी मिरच रखी । कटोरे में दाल डाल कर सुभाष को रोटी पकङाई । सुभाष वहीं पैरों के भार उकङू बैठ गया और रोटी खाने लगा । भूख के मारे उसका बुरा हाल हुआ पङा था या जयकौर को सामने देख उसकी भूख चमक उठी , कौन जाने पर वह फटाफट पाँचों फुल्के खा गया । उसके बाद उसने लोटा भर पानी पिया । संतुष्टि की लंबी सी डकार ली । और नल पर जाकर बर्तन मांजने लगा ।
तब तक बसंत कौर ने उसके लिए दरी , चादर और कंबल निकाल दिया था ।
ऐसा करो , आज यहाँ बरांडे में ही सो जाओ । कल तुम्हारा कोई इंतजाम हो जाएगा ।
कोई न सरदारनी । मैं आराम से सो जाउँगा । आप आराम करो ।
ठीक है । सरदारनी अपने चौबारे की सीढियाँ चढ गई । केसर अपनी कोठरी और जयकौर अपने कमरे में सोने गये तो सुभाष ने भी बरांडे में बिछी चारपाई झाङी । उस पर दरी और चादर बिछाई और आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगा ।
बाकी फिर ...