अब तक आपने पढ़ा रघुबीर सिया के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है , जिसे सुनकर सिया बहुत खुश होती है। रघुबीर की छुट्टियां भी खत्म हो जाती है वह लौट जाता है अपनी भारत माता की सेवा के लिए।।
अब आगें.....
मुझें जब रघुबीर ने गले से लगाया तो मैं अपने आँसू रोक नहीं पाई। रघुबीर की नीली शर्ट मेरे आंसुओं से भीग गईं। खुद को संभालते हुए रघुबीर ने कहा - बेवकूफ लड़की ! अपना वादा याद रखना , इन आँखों से आँसू बहने न देना।
अबकी बार जब आऊंगा तो घोड़ी पर बैठकर आऊंगा..तैयार रहना...
मैं हल्का सा मुस्कुरा दी। मैं रघुबीर के साथ स्टेशन तक गई। रघुबीर की ट्रेन के आने से लेकर उनके ट्रेन पर चढ़ने तक मैं उनका हाथ थामे रहीं।हाथ छोड़ते समय ऐसा महसूस हुआ जैसे प्राण छूट रहें हों। रघुबीर की ट्रेन धीरे - धीरे चलते हुए रफ़्तार पकड़ने लगीं। रघुबीर दूर तक हाथ हिलाते रहें..
रेलगाड़ी के साथ ही मेरा चैन - सुकून सब कुछ चला गया। प्लेटफार्म की तरह ज़िंदगी सुनी सी लगने लगीं। मैं घर की ओर चल पड़ी। आसपास हँसते , बोलते लोगों के बीच खुद को बहुत अकेला महसूस कर रहीं थीं मैं। कुछ हैं जो पीछे छूट रहा हैं..बहुत पीछे। अचानक से लगा जैसे कोई आवाज़ दे रहा हो मुझें । फिर अपना ही नाम हवाओं में तैरता हुआ कानों तक महसूस हुआ। लगा जैसे रघुबीर ने मेरा नाम पुकारा हों..
मैंने झटके से पलटकर देखा..अनजान चेहरों के सिवा वहाँ कोई न था। मैं घर लौट आई।
दिन बीत रहें थे रघुबीर के इंतजार में...
इस बार इंतज़ार बेसब्री से था...
दिन धुँए की तरह हवा हो गए। दिसम्बर की सर्द शाम को रघुबीर का फोन आया। चहकते हुए वो बोले - " सिया ! पता हैं मेरी पोस्टिंग कहाँ हो रहीं है ?
मैंने भी उत्सुकता से पूछा - " कहाँ ?"
"जम्मू" - रघुबीर की आवाज़ से उनकी ख़ुशी का अंदाज़ा लग रहा था। वो बोले फरवरी में हमारी शादी हैं औऱ मैंने तुमसे कहा भी था अगले साल का वैलेंटाइन्स डे जम्मू में ही मनाएंगे।
मैंने कहा - पर हमारी शादी तो 28 फ़रवरी की हैं !
रघुबीर ने कहा - तो क्या हुआ..? तुम यहाँ आ जाना , वेलेंटाइन्स डे मनाकर दोनों साथ चलेंगे ग्वालियर।
मैंने कहा - नहीं , आप ही आना , मुझें आपकों लाल गुलाब भी तो देना हैं।
रघुबीर ने मुझें समझाते हुए कहा - यार , सिया मैं कैसे आ सकता हूँ..? मुझें छुट्टी शादी के लिए मिली हैं। मैं 20 तक आऊँगा।
मैंने नाराज़ होकर कहा - मुझें कुछ नहीं सुनना , आप आओगे मतलब आओगे।
रघुबीर ने भी झल्लाकर कहा - बहुत ज़िद्दी हो सिया तुम कसम से। ठीक हैं मैं देखता हूँ।
वो दिन भी कितने रंगीन हुआ करतें थे बिल्कुल तितलियों से। मैं हमेशा अपनी मनमानी करतीं औऱ रघुबीर मेरी हर बात मान लेते। मैं अक्सर झुठमुठ में रूठ जाती औऱ हर बार वो मुझें प्यार से मना लेते।
काश ! हर बार ऐसा ही होता...
हम जैसी ज़िंदगी चाहतें हैं वह हमें मिलती नहीं हैं।
शेष अगलें भाग में.....
क्या सिया को अपनी चाही ज़िंदगी नहीं मिली ? जानने के लिए कहानी के साथ बने रहे।