[प्रह्लाद का सहपाठी बालकों को ज्ञानोपदेश] प्रह्लाद पुनः अपना पाठ पढ़ने लगे, गुरु-पुत्रों ने उनको शुक्रनीति के तत्त्वों को भली भाँति पढ़ाया और अर्थ, धर्म तथा काम इन त्रिवर्गों को समझाया। साथ ही आचार्य-पुत्रों ने शिवपरत्व के न जाने कितने दार्शनिक सिद्धान्तों की शिक्षा दी और धीरे-धीरे उनको यह विश्वास होने लगा कि अब प्रह्लाद ठीक रास्ते पर आ गये हैं, विष्णुभक्ति का भूत उनके ऊपर से उतर गया है। क्योंकि अब प्रह्लादजी उनके सामने हरिकीर्तन करना उचित न समझ उनकी अनुपस्थिति में ही सब कुछ करते थे। उनकी पाठशाला के वे सब छात्र भी अब प्रह्लाद के अनुगामी बन गये जो पहले प्रह्लाद की शिकायत करते थे। अतएव गुरुवरों को प्रह्लाद की भगवद्भक्ति की खबर ही नहीं मिलती थी। अब उन्हें विश्वास हो गया था कि प्रह्लाद की वह लड़कपन की सनक थी, जो अब मिट गयी। इसी कारण वे उसकी चर्चा करके पुनः प्रह्लाद को उसका स्मरण दिलाना उचित नहीं समझते थे।
इधर गुरुवर इस प्रकार निश्चिन्त हो बैठे थे, उधर ब्रह्मचारी प्रह्लाद की भगवद्भक्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही थी। उनके सहपाठी उनको पूज्य दृष्टि से देखने लगे और उन्हीं के उपदेशानुसार हरिभक्ति के अमृतरस का आस्वादन करने लगे। क्या असुर-बालक और क्या द्विजातियों के बालक, सभी प्रह्लाद के अनुगामी बन अपने आपको कृतकृत्य मानने लगे। एक दिन आचार्यगण अपने गृहकार्य से बाहर चले गये थे। पीछे से सभी लड़के आकर प्रह्लाद के समीप बैठ गये। प्रह्लाद जी से उन लोगों ने प्रार्थना की कि आप हमको कुछ हमारे जीवन के लिये हितकर उपदेश दें। बालकों की प्रार्थनानुसार प्रह्लादजी ने कहा—
“संसार में भगवद्भक्ति से बढ़कर आत्मोद्धार का उपाय दूसरा कोई नहीं, इस बात को तो तुम लोग खूब ही जान चुके हो। इस समय मैं तुम लोगों से केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि, कुमार अवस्था से ही भगवान् की शरणागति करनी चाहिए। जो इस अवस्था से भक्ति करते हैं, वे ही पण्डित हैं। जो यह सोचते हैं कि, अभी खेलने-कूदने का समय है, फिर भक्ति कर लेंगे या जो सोचते हैं कि अभी पढ़ने-लिखने का समय है, फिर भक्ति कर लेंगे और जो यह समझते हैं कि, अभी गृहस्थ धर्म का पालन करें पीछे भगवद्भक्ति कर लेंगे, वे तीनों ही भूलते हैं। जो समझते हैं कि, प्रथम अवस्था में विद्या पढ़ें, दूसरी अवस्था में धनोपार्जन करें और तीसरी अवस्था में धर्मोपार्जन के समय भगवद्भक्ति कर लेंगे, वे अपने आत्मा को ठगते और सर्वथा भूल करते हैं। भक्ति जैसे अमृतपान के लिये किसी अवस्थाविशेष की राह देखना मूर्खता है। अतएव हे मेरे सहपाठी बन्धुओं! असुरों और द्विजातियों के सुपूतो! भगवद्भक्ति ही में लग जाओ और जो लगे हो तो अपने अन्यान्य बन्धुओं को भगवान् के भक्त बनाने में लग जाओ और सब लोग कहो तो—
'हरे राम, हरे राम,
राम-
राम हरे हरे। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण,
कृष्ण-
कृष्ण हरे हरे।।' थोड़ी देर इस प्रकार बड़े ही प्रेम से हरिकीर्तन होता रहा, पश्चात् जब प्रह्लाद चुप हो गये तब बालकों ने फिर कहा “राजकुमार! यद्यपि हम आप सहपाठी हैं, सहधर्मी हैं, सजातीय हैं और समवयस्क हैं, तथापि आपकी दैवीशक्ति, आपकी अपूर्व भक्ति तथा आपकी अपने ऊपर अनुरक्ति देखकर हम लोग आपके चरणों के दास बन रहे हैं और आचार्य पुत्रों के स्थान में हम लोग आप ही को अपना पूज्य गुरु मानते हैं। हम लोग जन्म से अद्यावधि (आज तक) एक ही साथ रहे किन्तु हम लोगों को यह पता न चला कि आपने यह अमृतोपम भगवद्भक्तिरूपी ज्ञान कब और किस गुरु से प्राप्त किया?
प्रह्लाद– “प्रिय बन्धुवर्ग! मुझको भगवद्भक्ति का ज्ञान महर्षि नारदजी के द्वारा प्राप्त हुआ था, जो संसार में सर्वश्रेष्ठ त्यागी और परमभागवत हैं।'
बालकगण - “हे राजकुमार! जन्मकाल से तो आप अपने अन्तःपुर में रहते थे, जब से गुरुकुल में आये तब से हम लोगों का और आपका रात-दिन साथ रहता है, कभी एक क्षण को भी साथ नहीं छूटता, फिर महर्षि नारद कब आये और कब आपको
उन्होंने उपदेश दिया? यह बात हम लोगों की समझ में नहीं आती।”
प्रह्लाद– “हे मित्रगण! आप लोगों का सन्देह ठीक है, मैंने जन्म ग्रहण करने के बाद आज तक महर्षि नारदजी से या अन्य किसी महात्मा से भगवद्भक्ति का उपदेश नहीं पाया। मैंने यह उपदेश उस समय पाया था जब मैं अपनी माता के पवित्र गर्भ में था।”
बालकगण– “राजकुमार ! आपकी जैसे सभी बातें
कौतूहलकारक होती हैं वैसे ही यह बात भी बड़े अचरज की है। लोग पहले अक्षरारम्भ करते हैं, शास्त्र पढ़ते हैं और तब कहीं उनको भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है। आपने गर्भ ही में कैसे इस ज्ञान को प्राप्त कर लिया? गर्भ में तो जीव अज्ञान-दशा में रहता है। उसके ऊपर ज्ञानोपदेश का प्रभाव ही कैसे पड़ सकता है?”
प्रह्लाद–“भाइयो! आप मेरी बात को हँसी न समझें। मैंने आपसे सत्य ही कहा है कि मुझको हरिभक्ति की शिक्षा गर्भ में मिली है। इसका इतिहास इस प्रकार है कि मेरे पिताजी जब मन्दराचल की कन्दरा में तप कर रहे थे, तब देवराज इन्द्र ने उनको निर्जीव-सा समझ कर 'हिरण्यपुर' पर अकारण आक्रमण करके उसे तहस-नहस कर डाला। पिताजी के सारे सेनापति और हमारे भाई लोग, आत्मसमर्पण कर देवराज के बन्दी बन गये थे और कायर कुपूत असुर भाग-भाग कर अपनी-अपनी जान बचाते फिरते थे। युद्ध विशारद वीर सैनिक युद्ध में काम आ गये तथा विशाल अन्तःपुर अनाथ-सा हो गया। अनन्तर मदान्ध देवराज मेरी माता को अन्तःपुर से बलात्' अपने साथ ले जाने के लिये तैयार हो गये, उस समय मैं माता के गर्भ में था और वह बहुत ही दीन एवं दुखित दशा में थीं। बारम्बार अनुनय-विनय करने पर भी इन्द्र ने उनका पिण्ड नहीं छोड़ा, इसलिये वह बड़े ही करुण-स्वर से रो रही थीं। उनके करुणापूर्ण रुदन को महर्षि नारदजी ने सुन लिया। अतः मार्ग ही में आकर देवराज को समझा-बुझा कर उनसे माताजी का पिण्ड छुड़ाया। उस समय सारा 'हिरण्यपुर' मटियामेट हो चुका था। अन्तःपुर भी निर्दयी देवताओं की करतूतों से निर्जन खँडहर के रूप में शेष रह गया था । असुरगण या तो मारे जा चुके थे, या बन्दी हो चुके थे अथवा भाग-भाग कर देश-देशान्तरों में लुकछिप रहे थे। ऐसी दशा में माताजी को कौन आश्रय देता ? महर्षि नारद अपनी दिव्यदृष्टि से यह जान चुके थे कि मैं गर्भ में हूँ अतएव उन्होंने मेरी अनाथा माता को उस समय अपने आश्रम में ले जाकर आश्रय दिया और जब तक मेरे पिताजी तपस्या करके नहीं लौटे, तब तक वहीं पर उनको सुरक्षित रखा। उस समय माताजी के व्याज से महर्षि नारदजी मुझ गर्भस्थ को नित्य ही भगवद्भक्ति एवं भागवत धर्म का उपदेश करते थे, जो मुझे अबतक स्मरण है। मैंने अबतक जो उपदेश आप लोगों को सुनाया है वह सब उन्हीं का है। माताजी तो कदाचित् उन उपदेशों को भूल गयीं, किन्तु मुझे वे सब अक्षरशः याद हैं और ऐसे याद हैं मानों अभी-अभी महर्षि नारदजी सुनाकर गये हैं।”
बालकगण– “राजकुमार! अपने अनुभव तथा महर्षि नारदजी के उपदेश का आप जो सर्वश्रेष्ठ ज्ञान समझते हों, कृपया हम लोगों को वही सुनाइये।”
प्रह्लाद–‘हे प्रिय बन्धुगण! तुम लोगों ने जो पूछा है उसको मैं संक्षेप में कहता हूँ, ध्यान लगाकर सुनो।
विस्तारः सर्वभूतस्य विष्णोः सर्वमिदं जगत्।
द्रष्टव्यमात्मवत् तस्मादभेदेन विचक्षणैः॥
समुत्सृज्यासुरं भावं तस्माद्यूयं तथा वयम्।
तथा यत्नं करिष्यामो यथा प्राप्स्याम निर्वृतिम्॥
या नाग्निना न चार्केण नेन्दुना न च वायुना।
पर्जन्यवरुणाभ्यां वा न सिद्धैर्न च राक्षसैः॥
न यक्षैर्नै च दैत्येन्द्रैरनोरगैर्न च किन्नरैः।
न मनुष्यैर्न पशुभिर्दोषैर्नैवात्मसम्भवैः॥
ज्वराक्षिरोगातीसारप्लीहगुल्मादिकैस्तथा।
द्वेषेर्ष्यामत्सराद्यैर्वा रागलोभादिभिः क्षयम्॥
न चान्यैर्नीयते कैश्चिन्नित्या यात्यन्तनिर्मला।
तामाप्नोत्यमले न्यस्य केशवे हृदयं नरः॥
असारसंसारविवर्तनेषु मा यात तोषं प्रसभं ब्रवीमि।
सर्वत्र दैत्यास्समतामुपेत समत्वमाराधनमच्युतस्य॥
तस्मिन्प्रसन्ने किमिहास्त्यलभ्यं धर्मार्थकामैरलमल्पकास्ते।
समाश्रिताद् ब्रह्मतरोरनन्ता-निःसंशयं प्राप्स्यथ वै
महत्फलम्॥
(विष्णु पुराण 1|17|84–91)
अर्थात् 'यह सारा विश्व भगवान् का विस्तृत रूप है। अतएव बुद्धिमानों को चाहिए कि सबको अभेद-दृष्टि से अपने ही समान देखें। हम और तुम लोग आसुरभाव को छोड़कर ऐसा यत्न करें कि जिससे इस अपार संसार से निवृत्त हो शान्ति लाभ कर सकें। भगवान् केशव में हृदय अर्पण करके मनुष्य जिस शान्ति को प्राप्त करता है वह अत्यन्त निर्मल है। उसको न वायु नष्ट कर सकता है, न अग्नि नष्ट कर सकता है, न सूर्य नष्ट कर सकता है और न चन्द्रमा नष्ट कर सकता है। पर्जन्य और वरुण भी उस शक्ति को नष्ट नहीं कर सकते, न सिद्धगण और न राक्षसगण ही उसकी ओर देख सकते हैं। यक्ष लोग भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते और न दैत्यराज ही कुछ कर सकते हैं। सर्प, किन्नर, मनुष्य और पशु भी उसे कुछ हानि नहीं पहुँचा सकते। इतना ही नहीं, अपने ही दोष से उत्पन्न ज्वर,अतीसार, प्लीहा, गुल्म आदि रोग तथा द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, राग और लोभ आदि विकार भी उसको नष्ट नहीं कर सकते। हे दैत्यपुत्रो! इस असार संसार के उलट-फेर में मत पड़ो! सर्वत्र समता का पवित्र भाव हृदय में रक्खो। सर्व भूतों में समता रखना ही सबसे बड़ा भगवान् का आराधन है। उन भगवान् को इस प्रकार भक्ति द्वारा प्रसन्न कर लेने पर संसार में कौन सा पदार्थ अलभ्य है? उस परब्रह्म परमात्मारूपी अनन्त कल्पवृक्ष के आश्रित होने पर धर्म, अर्थ और काम जैसे अल्प अर्थ से क्या? तुम लोग निस्सन्देह परमपद मोक्षरूपी महाफल को प्राप्त कर लोगे।"
प्रह्लाद जी के ज्ञानोपदेश को सुन उनके सहपाठी सभी छात्र आनन्दमग्न हो गये और भक्तिरस के अगाध सागर में गोते खाने लगे, थोड़ी देर तक सब मौन रहे, फिर प्रह्लाद के आदेशानुसार सब के सब एक स्वर से हरिकीर्तन करने लगे। हरिकीर्तन के अनन्तर सभी छात्र अपने-अपने विश्राम-स्थल को चले गये।