Param Bhagwat Prahlad ji - 17 in Hindi Spiritual Stories by Praveen kumrawat books and stories PDF | परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग17 - प्रह्लाद का पुनः गुरुकुलवास

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग17 - प्रह्लाद का पुनः गुरुकुलवास

[आचार्य का कठोर शासन]
प्रह्लाद जी गुरुकुल में इस बार बड़ी निगरानी के साथ रक्खे गये। उनके आचार्य साम, दाम और भेद की नीति से उनको अपने वश में करने की चेष्टा करने लगे। बीच-बीच में दण्ड का भी भय दिखलाने लगे। जो प्रह्लाद संसार में किसी भी प्राणी के चित्त को किसी प्रकार से भी दुखाना नहीं चाहते थे, वे भला अपने गुरुवरों के तथा अपने जन्मदाता पिता के चित्त को दुखाना कैसे उचित समझते? अतएव वे बारम्बार इस बात की चेष्टा करने लगे कि, मेरी हरिभक्ति का दुःख गुरुओं को तथा पिताजी को न होने पाए। इसी अभिप्राय से वे गुरु के सम्मुख न करके उनके परोक्ष में हरिभजन तथा उनका ध्यान करने लगे, किन्तु कभी-कभी उनके हृदय की भक्ति इतनी बढ़ जाती थी कि, वे उसे सँभाल नही पातेे, इससे वे सहसा गुरुवरों के सामने भी भगवान् के प्रेम में मग्न हो जाते और ज़ोर-ज़ोर से हरिकीर्तन करने लगते थे। प्रह्लाद के साथ ही न जाने कितने और भी बालक उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाकर गाने लगते कि
माता पिता गुरुरशेषकुलानुयायी
स्वेष्टामरः सुहृदर्भाीष्टपदार्थदायी।
नान्योऽस्ति नाथ भवतः क्वचिदेव कश्चित्
तच्छ्रीनिवास कृपया क्षमतां ममैनः॥
-( श्रीकामदः )
अर्थात् हे मेरे नाथ भगवान् श्रीनिवास ! कृपा करके मेरे अपराध को क्षमा कीजिए। क्योंकि आपके अतिरिक्त संसार में माता, पिता, गुरु, कुल के असंख्य लोग, हमारे इष्टदेव एवं मित्रगण कोई भी हमारे मनोरथरूपी मुक्तिपद के देनेवाले नहीं हैं।

इतना ही नहीं, वे बालकों को सर्वदा भगवद्भक्ति की शिक्षा देने लगे और न जाने उनके कितने सहपाठी असुर बालक उनके अनुयायी होने लगे। धीरे-धीरे विद्यालय में उनके अनुयायी छात्रों की संख्या बहुत बढ़ गयी। विरोधियों की संख्या का ह्रास हो गया। जो छात्र उनके विरोधी थे, उन लोगों ने एक दिन गुरुजी को प्रह्लादजी के इस गुप्त चरित्र का हाल बताया। षण्ड और अमर्क प्रह्लाद के साथ ही अधिकांश विद्यार्थियों की हरिभक्ति की बातें सुन, आगबबूला हो गये। उनकी आँखें लाल हो गयीं तथा ओठ फड़कने लगे। आवेश में भर उन लोगों ने प्रह्लाद को अपने सामने बुलाया। प्रह्लादजी सामने आकर हाथ जोड़ खड़े हो गये। उन्होंने कहा— 'आचार्यचरण! क्या आज्ञा है?
आचार्य– ‘प्रह्लाद! हमने तुम्हारी शिकायत सुनी है। क्या यह सत्य है कि तुम स्वयं हरिभक्ति और हरिकीर्तन किया करते हो। तथा अपने अन्यान्य सहपाठियों को भी हरिभक्ति का उपदेश दे उनसे हरिकीर्तन कराते हो? क्या तुम अपने पिता दैत्यराज का आदेश भूल गये? क्या तुम जानबूझ कर मृत्यु के मुख में पैर रखते हो ?"
प्रह्लाद– 'गुरुजी ! आपने जो कुछ सुना है, चाहे उसे आप मेरी शिकायत समझें और चाहे प्रशंसा, किन्तु है सर्वथा सत्य। जिन मेरे भाइयों ने मेरे छिपे हुए आन्तरिक भावों को आप तक पहुँचाने की चेष्टा की है उनका मैं बड़ा ही अनुगृहीत हूँ। क्योंकि 'गुरु से कपट' करना घोर पाप है। आपका चित्त दुखी न हो, इसलिये हम लोग आपकी अनुपस्थिति में ही सदैव हरिकीर्तन और हरि का ध्यान किया करते हैं।'
आचार्य– ‘रे दुष्ट राजकुमार ! तू क्या करने पर उतारू है ? अपने पिता के वचनों की अवहेलना करके संसार में तू क्या जीवित रह सकता है? गुरु की अवज्ञा का पाप क्या तुझे नहीं मालूम? बड़ा ज्ञानी और धर्मात्मा बनता है, किन्तु यह किस धर्मशास्त्र में लिखा है कि पिता और गुरुजनों की आज्ञा की अवहेलना करना धर्म है? अपने पिता के स्वभाव को तू भली भाँति जानता है। जिस समय उनको यह विदित होगा कि केवल तू ही नहीं, न जाने कितने तेरे सहपाठी इसी पाठशाला के छात्र भी हरिभक्ति और हरिकीर्तन कर घोरतर राजद्रोही बन रहे हैं उस समय हम लोगों की क्या गति होगी? क्या हम लोग उसी समय शूली पर न चढ़ा दिये जायँगे अथवा फाँसी पर न लटका दिये जायँगे ? क्या इतने दिनों तक हम लोगों से विद्याध्ययन करके तू हम लोगों को अपने पिताजी से प्राणदण्डरूपी गुरुदक्षिणा दिला कर ही प्रसन्न होगा ? और इसी से संसार में तेरी सुकीर्ति होगी और परलोक में तेरे 'हरि ' तुझे मोक्ष देंगे ? क्या तूने गुरुशिष्य सम्बन्ध को ध्यानपूर्वक कभी पढ़ा है?'
प्रह्लाद- 'आचार्यचरण! आप लोग मेरे अपराधों को क्षमा करें। आपको घबराना नहीं चाहिए। शान्ति के साथ मेरी बातों को सुनकर, ईश्वर पर भी कुछ विश्वास रखना चाहिए। मैं आपको सिखलाने वाला नहीं, नम्रतापूर्वक आपसे प्रार्थना करनेवाला हूँ।
भगवन्! आप न तो अपने प्राणों का भय करें और न मेरे एवं मेरे सहपाठियों के प्राणों का ही भय रखें। आप भी उन परमपिता भगवान् विष्णु की भक्ति करें। उनको हृदयमन्दिर में स्थान दें। फिर देखें आपका कौन बाल बाँका कर सकता है? विष्णु संसार के आश्रयस्थल हैं, जगतबंधु हैं। वे सभी के प्राणों के रक्षक हैं, किसी के प्राण का नाश नहीं करते। वे सर्वथा प्रेममय हैं और इसी कारण सबमें अभेदभाव रखते तथा सबकी रक्षा करते हैं। उनका स्नेह सब पर समान रहता है। इस बात को सभी ज्ञानी लोग जानते हैं और इसी से उनसे प्रेम रखते हैं। हाँ, मूढ़ लोग इस रहस्य को नहीं जानते। अतएव उनसे द्वेष करते हैं। आप लोग इस बात को निश्चय जानें और उनकी भक्ति करके निर्भय रहें। जो उनके भक्त हैं उनका एक नहीं, दस दैत्यराज भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। गुरुवर! क्या आप लोग उनकी महिमा से अनभिज्ञ हैं? फिर आप लोग मुझको अनजान बनाकर क्यों बहकाते हैं? क्या गुरुओं का धर्म यही है कि, यथार्थ ज्ञान को छिपावें और मिथ्या ज्ञान सिखावें?
आचार्य– 'बेटा प्रह्लाद! तुम जो कुछ कह रहे हो वह सत्य होने पर भी तुम उसके अधिकारी नहीं हो। विष्णुभक्ति और शिवभक्ति में जो भेदबुद्धि रखते हैं, उनकी मुक्ति नहीं होती। फिर तुम अपने पिता के आदेशानुसार भगवान् शिव को परब्रह्म के रूप में क्यों नहीं मानते और उनकी भक्ति करके पिता और परमपिता दोनों के अनन्यभक्त क्यों नहीं बन जाते? तुम्हारा जन्म असुर-कुल में हुआ है। इस कुल में भगवान् शिव की ही अनन्य उपासना होती है। तुम उनकी उपासना को छोड़ विष्णु की उपासना करके अपने कुल के विरुद्ध चलते हो। शास्त्र के आज्ञानुसार कुलाचार और देशाचार का पालन करना धर्म है, फिर तुम क्यों उसको छोड़ते हो? तुमको यह भी जान लेना चाहिए कि
हरे रुष्टे विधिस्त्राता विधौ रुष्टे हरिस्तथा।
हरौ रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे कश्चन॥
अर्थात् 'यदि भगवान् शंकर रूठ जायँ तो ब्रह्माजी रक्षा कर सकते हैं। यदि ब्रह्माजी रूठ जायँ तो भगवान् विष्णु रक्षा कर सकते हैं और यदि विष्णु रूठ जायँ तो गुरुजन रक्षा कर सकते हैं और यदि गुरुजन रूठ जायँ तो संसार में कोई रक्षा नहीं कर
सकता। क्या फिर भी तुम हम लोगों की आज्ञा भङ्ग करके हमारे क्रोध के पात्र बनने में अपना कल्याण समझते हो?
प्रह्लाद - 'भगवन् ! आप लोगों के उपदेश और आदेश हम सब बालक शिरोधार्य करने के लिये तैयार हैं किन्तु जो विष्णु हम लोगों को सारे चराचर में दिखलायी देते हैं। वृक्षों के एक-एक पत्ते में और प्राणियों के रोम-रोम में विराजमान हैं । जो हम लोगों के प्रतिश्वास के साथ-साथ आते और जाते हैं, जिनके नाम और रूप का ही सारा संसार बना हुआ है, उन परमपिता परमात्मा को हम लोग भुलावें तो, किस उपाय से और किसलिये ? हृदयपटल पर जिस मनमोहन की मूर्ति एक बार खिंच चुकी है वह मिटे तो कैसे मिटे ? जब तक वह नहीं मिटती तब तक उसी की सही, किसी दूसरी मूर्ति को बैठावें तो कहाँ बैठावें? वहाँ तो स्थान ही नहीं है। (भगवान् विष्णु और भगवान् शिव में कोई भेद नहीं है, परन्तु अनन्योपासना ऐसी ही होती है। रामचरितमानस में कथा है कि भगवान् शिव को प्राप्त करने के लिये कठोर तप करने वाली माता पार्वती के परीक्षार्थ सप्तर्षियों ने भगवान् विष्णु के रूप-गुण की महिमा सुनाकर प्रलोभित करना चाहा था, परन्तु माता पार्वती ने बड़ी ही दृढ़ता से उत्तर दिया–
'महादेव अवगुन भवन, बिष्णु सकल गुनधाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन, तेहि तेहि सन काम॥’
‘जनम-जनम लगि रगर हमारी।
बरौं शंभु तौ रहौं कुमारी॥' यह इष्ट में अनन्यता के भाव हैं। यही भाव यहाँ प्रह्लादजी में समझने चाहिए।)
आचार्यचरण! आप मुझको हठी मानते हैं, मूर्ख मानते हैं और उच्छृंखल मानते हैं, किन्तु बात कुछ और ही है। मैं हठी, मूर्ख और उच्छृंखल नहीं। हाँ, परवश अवश्य हूँ और जैसे तीर जब धनुष से छूटकर निकल जाता है, तब उसे वापस बुलाना कठिन ही नहीं असम्भव है वैसे ही मन भी जब अपने हाथ से निकल गया और भगवान् विष्णु के चरणारविन्द का मधुकर बन गया तब उसको लौटाना तथा उसे दूसरी ओर लगाना असम्भव है, कम-से-कम मेरी शक्ति के तो बाहर की बात है। अतएव अब आप लोग मेरे अपराधों को क्षमा करें और मुझे परतन्त्र जान मेरा पिण्ड छोड़ दें।'

आचार्य 'राजकुमार ! तुमको यह भी तो समझना चाहिए कि तुमको दैत्यराज के सिंहासन का उत्तराधिकारी बनना है। विष्णुभक्त बन कर वैरागी नहीं बनना है। अभी तुम बालक हो, बालकपने में त्याग की मात्रा अधिक होती है। ज्यों-ज्यों संसार के शासन का भार तुम्हारे ऊपर पड़ेगा, त्यों-ही-त्यों तुम अपनी आज की भूल पर पछताओगे। अध्यापन कार्य भी बड़ा ही भयकारी होता है, जिसमें अपनी नहीं, छात्रों की त्रुटियों का उत्तरदायित्व अपने ही सिर लादा जाता है। यदि अब भी तुम और तुम्हारे सहपाठी बालक हरिकीर्तन और हरिभक्ति न छोड़ेंगे, तो हमारा किसी प्रकार से कल्याण नहीं। हम लोग दैत्यों के गुरु हैं देवताओं के नहीं। देवताओं के यहाँ गुरुओं का जितना सम्मान होता है, उतना दैत्यों के यहाँ नहीं। अतएव हम लोग दैत्यराज के कोपानल से किसी प्रकार बच नहीं सकते। यदि पिताजी के प्रभाव के कारण वे अधिक न करेंगे तो हमारी सारी सम्पत्ति अपहृत (जब्त) कर अपमान के साथ देश निकाले का दण्ड तो हमें अवश्य ही देंगे।इसीलिये हम तुमसे अपने प्राणों की गुरुदक्षिणा माँगते हैं।
प्रह्लाद–‘गुरुवर ! पूज्यपाद पिताजी का मुझपर प्रेम अवश्य अधिक है किन्तु मैं उनके राजसिंहासन का उत्तराधिकारी नहीं हूँ। मेरे ज्येष्ठ भ्राता उसके उत्तराधिकारी हैं। फिर मुझे शासन की यन्त्रणा देखकर बड़ा त्रास होता है, उससे दूर रहना ही मेरे लिये अधिक कल्याणकारी है। मुझे 'तप से राज्य और राज्य से नरक की बात का बारम्बार स्मरण होता है।' यह बात वास्तव में ठीक ही है। किन्तु फिर भी आप निश्चय मानें कि मैं आज से आपकी आज्ञा का इतना तो पालन अवश्य करूँगा कि, अपने आप जान बूझकर आपको तथा पिताजी को अपने मन की बात 'हरिभक्ति' को प्रकट करके क्रुद्ध एवं दुखी करने की चेष्टा नहीं करूँगा अवश्य ही उसका छोड़ना तो मेरी शक्ति से बाहर की बात है।"
आचार्य– 'बेटा प्रह्लाद! वैष्णवधर्म में सबसे अधिक महत्त्व गुरु का ही माना गया है।' ऋषियों ने कहा है कि-
बालमूकजडान्धाश्च पङ्गवो वघिरास्तथा।
सदाचार्येण संदृष्टाः प्राप्नुवन्ति परां गतिम्॥
गुरुणा योऽभिमन्येत गुरुं वा योऽभिमन्यते।
तावुभौ परमां सिद्धिं नियमादुपगच्छतः॥
—( नारदपाञ्चरात्र )
अर्थात् शिष्य चाहे बालक हो, मूक हो, जड़ हो, अन्ध हो, पशु हो और चाहे बधिर हो किन्तु मदीयत्व के अभिमान के साथ यदि उसको अच्छे आचार्य कृपादृष्टि से देखते हैं तो वे शिष्य अवश्य ही परमपद मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जिस शिष्य को गुरू अपना रक्ष्य मानते हैं अर्थात् जिस शिष्य की रक्षा का भार सद्गुरू अपने ऊपर समझते हैं और जो शिष्य सद्गुरु को अपना रक्षक मोक्षप्रदाता समझते हैं, वे दोनों ही शिष्य-प्रपत्ति के नियमानुसार परमसिद्धि मोक्ष को प्राप्त होते हैं। अतएव हे राजकुमार! तुम हम गुरुओं को अपना रक्षक मानो, हम लोग यदि तुमको अपना और अपना रक्ष्य न समझते तो, तुम्हारे साथ इतनी मत्थापच्ची न करते और अब से बहुत पहले ही तुमको तथा तुम्हारे दूसरे साथियों को दैत्यराज के कठोर हाथों में सौंप कर यह कह देते कि ये पागल हो गये हैं, और इनको सँभालना हमारी शक्ति के बाहर है। परन्तु हम तुम्हारा वध नहीं, कल्याण चाहते हैं, तुमको अपना समझते हैं, तुम हमपर विश्वास करो। वैष्णव-धर्म के अनुसार ही तुम विश्वास करो, तुम्हारे हरि तुमको परमपद अर्थात् मोक्ष देंगे।'
प्रह्लाद–‘आचार्यचरण! इसमें सन्देह नहीं कि आपने हमको शास्त्रज्ञान दिया है, आप लोग हम लोगों के गुरु हैं और पिता के पद से भी अधिक पूज्य हैं, किन्तु वैष्णवता के गुरु नहीं। वैष्णवधर्म में उसके उपदेश के लिये, सद्गुरु की आपने जो महिमा कही है, उसके लिये भी आप सद्गुरु-पद के योग्य हो जायँ, तो मेरे हर्ष का पारावार न रहे। इसी अभिप्राय से तो मैं आप लोगों से बारम्बार कहता हूँ कि आप लोग भी हरिभक्त होकर एक बार कहें तो 'हरेनामैव नामैव नामैव मम जीवनम्' फिर देखें हम लोग आपको अपना विद्यागुरु ही नहीं, धर्मगुरु भी मानने लगें और फिर आपकी यह पाठशाला वैष्णवशाला बन, संसार के न जाने कितने पतित-पामर प्राणियों की उद्धारशाला बन जाय। गुरुजी! वैष्णव-शास्त्रों में जहाँ सद्गुरु की इतनी महिमा कही गयी है, वहाँ उनके लक्षण और आचार भी तो कहे हैं।
ऋषियों ने लिखा है कि
स्वयं वा भक्तिसम्पन्नो ज्ञानवैराग्यभूषितः।
स्वकर्मनिरतो नित्यमर्हत्याचार्यतां द्विजः॥
नाचार्य: कुलजातोऽपि ज्ञानभक्त्यादिवर्जितः।
न च हीनवयोजातिः प्रकृष्टानामनापदि॥
— ( भारद्वाजसंहिता)
अर्थात् 'वे ब्राह्मण, आचार्य पद के योग्य होते हैं जो स्वयं भक्त हों, ज्ञान एवं वैराग्य के गुणों से भूषित अपने कर्म के करने वाले हों, ब्राह्मण एवं गुरुकुल में उत्पन्न होने पर भी ज्ञान, भक्ति आदि से रहित व्यक्ति आचार्य पद के योग्य नहीं होते और उत्कृष्ट जाति एवं उत्कृष्ट वय के शिष्य के लिये हीन वय एवं हीन जाति का व्यक्ति आचार्यपद के योग्य नहीं होता।' इसी कारण हम लोग चाहते हैं कि आप भगवद्भक्त होकर हम लोगों के सर्वथा आचार्य बन हम लोगों का उद्धार करें।
प्रह्लाद के शास्त्र एवं नीतियुक्त वचनों को सुन, और यह जानकर कि यह समझाने-बुझाने से मानने वाला नहीं, आचार्य लोगों ने अधिक बात बढ़ाना उचित नहीं समझा और यह कहकर बात को टाल दिया कि ‘अब अधिक पण्डिताई न दिखलाओ, जाओ पढ़ो, किन्तु इतना स्मरण रक्खो कि यदि हम लोगों के सामने अथवा अपने पिताजी के सामने तुम भविष्य में हरिकीर्तन अथवा हरिभक्ति की चर्चा करोगे तो तुम्हारा कुशल नहीं है, फिर तुम्हारी अच्छी तरह खबर ली जायगी।'