[देवताओं में घबड़ाहट, विष्णुभगवान् द्वारा आश्वासन-प्रदान]प्रह्लाद पुनः गुरुकुल में अध्ययन करने लगे और इधर दैत्यराज कठोर शासन करने लगा। यों तो दैत्यराज हिरण्यकशिपु के हृदय से भगवान विष्णु का वैरभाव एक क्षण के लिये भी दूर नहीं होता था, किन्तु जब से प्रह्लादजी के मुख से उसने भगवान विष्णु की स्तुति सुनी तब से तो मानों उसके वैराग्नि में घी की आहुति पड़ गयी। उसने अपने असुर अधिकारियों द्वारा सर्वत्र बड़े जोरों से उत्पात मचा दिया। देवताओं की तो जो दुरवस्था की सो की ही, उन मनुष्यों की भी नाक में दम कर दी, जिन पर नाममात्र को भी विष्णुपक्षी अथवा देवानुयायी होने का सन्देह हुआ। इस बात की खोज में असुरों को गुप्तरूप से नियुक्त किया गया कि, वे देखें, कहाँ कौन विष्णु भक्त अथवा देवताओं का पक्षपाती है? दैत्यराज को प्रह्लाद के वचनों से यह पूरा-पूरा विश्वास हो गया था कि, उसके विरुद्ध विष्णु-भक्ति के प्रचारकों का कोई दल है जो गुप्तरूप से लोगों में, यहाँ तक कि राजकुमार तक के मन में विष्णु-भक्ति उत्पन्न करने में लगा हुआ है। इसी कारण उसने ऐसे षड्यन्त्रकारी दल की खोज के लिये असुरों को गुप्त दूत के रूप में नियुक्त कर उनको कड़ी आज्ञा दी कि 'यदि वे असावधानी करेंगे और संसार में एक भी विष्णुभक्त व्यक्ति रह जायगा तो उन लोगों का कुशल नहीं है।'
असुर तो यों ही देवताओं और मनुष्यों के शत्रु होते हैं, फिर उनको दैत्यराज की खुली आज्ञा मिल गयी। उनको मानों अपने शत्रुओं पर अत्याचार करने और कराने का पूरा साधन मिल गया। वे निष्कारण ही देवताओं और मनुष्यों को ढूंढ-ढूँढ़कर सताने लगे एवं व्यर्थ ही झूठी-झूठी बातें बना लोगों को विष्णुभक्त अथवा दैत्यशत्रु कह-कह कर दैत्यराज के कोप-वह्नि का ईंधन बनाने लगे। नित्य ही न जाने कितने ब्राह्मण मारे जाते, फाँसी पाते और उनकी सारी सम्पत्तियाँ अपहृत (जब्त) कर ली जातीं। विचाराधीन अपराधियों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ते देख, मदमत्त दैत्यराज भी बिना कुछ सुने सुनाये ही लोगों को राजविद्रोही ठहरा प्राणदण्ड देने लगा। इस प्रकार चारों ओर हाहाकार मच गया। लोग खुल के रोने भी न पाते थे। सब लोग ओठों के भीतर ही भीतर त्राहि भगवन्! त्राहि भगवन्! का जप रात-दिन जपने लगे!
देवताओं ने घबराकर अपनी विपदा सुनाने के लिये अपने आचार्य गुरुजी को बुलाया। उनको सारी कहानी सुनाने के पश्चात् देवताओं ने उनसे यह भी प्रार्थना की कि 'यदि शीघ्र ही इस दैत्यराज हिरण्यकशिपु के वध का उपाय आप नहीं ढूँढ़ निकालेंगे तो हम लोगों का अन्त ही समझिये। हम लोग ढूँढ़-ढूँढ़कर सताये और मारे जा रहे हैं। हमारी जीविकाएँ अर्थात् यज्ञादि बन्द कर दिये गये हैं और हम लोगों के सारे-के-सारे पद और अधिकार दैत्यराज ने बलात्कार से छीन लिये हैं। हम लोगों की अर्चा-पूजा करने वाला प्रथम तो कोई रहा ही नहीं, फिर यदि कोई दुबा-छिपा हुआ है भी, तो उसको रात-दिन यही चिन्ता लगी रहती है कि 'अब गये, अब गये।' ऐसी दशा में विरले ही दृढ़ मनुष्य होंगे जो ‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः' पर दृढ़ रहकर काम करते हों। सारांश यह कि, अब हम लोग सब प्रकार से अपमानित और पीड़ित हो चुके हैं। यदि हम लोगों के उद्धार का कोई उपाय नहीं हो सकता हो तो, फिर जीवन की अपेक्षा दैत्यराज के क्रोधरूपी अग्नि में हम लोगों को अपनी आहुति ही दे देनी चाहिए।'
देवताओं की करुण-कथा सुन कर बुद्धिमान् बृहस्पति जी ने बड़े ही शान्तभाव से सान्त्वना देते हुए कहा कि “हे देवताओ! अपने पद को पुनः पाने तथा अपने साम्प्रतिक कष्टों के निवारण के सम्बन्ध में अधीर मत होओ। काल बड़ा बलवान् है, तुम लोगों को धैर्य धारण करना चाहिए और इस बात का विश्वास रखना चाहिए कि, जब तुम्हारा वह सर्वाधिपत्य सुख नहीं रहा, तब यह दैत्यों की दासता का दुःख भी न रहेगा। सुख-दुःख तो रथ के चक्र के आरे के समान आते जाते रहते हैं। इनका घूमना कभी बन्द नहीं हो सकता। जो इस कालचक्र की गति को जानते हैं और धीरज धारण कर अपने दुःखों को सह लेते हैं वे पुनः सुख प्राप्त करते हैं, इसमें सन्देह नहीं। संसार का यह साधारण नियम है कि जब दुःख होता है तब लोग करुणावरुणालय केशव का स्मरण करते और दीनानाथ के शरण जाते हैं, उनके हृदय दुःखी होने से शान्त, दयालु और सहिष्णु हो जाते हैं। अतएव दीनबन्धु भगवान् उनकी प्रार्थना सुनते और उनके दुःखों को दूर करते हैं। इसी प्रकार जब अधिकार प्राप्त होता है और संसार के सारे सुख अपने चेरे बने हुए से दिखलायी पड़ने लगते हैं, तब लोग अभिमानी हो जाते हैं, वे अभिमान के वशीभूत हो दीन-दुखियों को अपना विपक्षी मान सताने लगते हैं तथा मदोन्मत्त हो भगवान् के स्वरूप इस जगत् को अपनी इच्छानुसार प्रकृति विरुद्ध चलाने की व्यर्थ चेष्टा करते हैं तथा अपने नियन्ता परमात्मा को भूल जाते हैं। ऐसी दशा में भगवान् उनके उद्धार के लिये तथा अपने सांसारिक नियमों की रक्षा के लिये भी उनको दण्ड देते हैं, क्योंकि अभिमान भगवान् का आहार है इसीलिये वे उनके ऐश्वर्य का नाश करते, उनके परिजनों का संहार करते और अन्ततोगत्वा न सुधरते देख, उनका भी वध करके उद्धार करते हैं। अतएव घबराने की कोई बात नहीं। अब दैत्यराज के अभिमान की सीमा नहीं रही। उसके अत्याचार की इति हो गयी है, वह शीघ्र ही अपने अत्याचारों और अभिमान का शिकार होगा। आप लोग कुछ दिनों तक और धैर्य धारण करें।”
देवतागण– “आचार्य जी! हम लोगों को तो दिनों-दिन उसकी शक्ति बढ़ती ही दिखायी देती है। हमारे दुःख का भी कभी अन्त होगा, इस पर हमें विश्वास ही नहीं होता। फिर उसके वरदान का बल सुनकर तथा अन्य कोई बुरे लक्षण दिखलायी न देने से, हम लोग अधीर हो रहे हैं।”
देवगुरु बृहस्पति– “हे देवगण! यही समय तो धैर्य धारण करने का है। जो मनुष्य विपत्ति में धैर्य धारण करते हैं वे अपने अपार दुःख-सागर से अनायास ही तर जाते हैं। इस समय आप दुःखी हैं, अतएव आप लोगों को दैत्यराज के बुरे लक्षण दिखलायी नहीं देते। हमारी समझ से इस समय उसके बड़े बुरे लक्षण हैं। उसका अन्त-समय समीप आ गया है और आप लोगों के अच्छे दिन अब दूर नहीं हैं। देवगण! दैत्यराज हिरण्यकशिपु अब प्रायः क्षीणभाग्य हो गया है, क्योंकि उसके हृदय में शोकरूपी शत्रु ने अधिकार जमा लिया है। शोकरूपी शत्रु ऐसा प्रबल होता है कि, उस पर विजय पाना तो दूर रहा उससे पिण्ड छुड़ाना भी यदि असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य है शोक बुद्धि का नाश कर देता है और पढ़े-लिखे लोगों के वेद-शास्त्र आदि के ज्ञान को भी भुला देता है। शोक सभी प्रकार से मतिमानों की मति का नाश करता है। शोक बड़ा ही प्रबल है। इसके आक्रमण को सहन करने की शक्ति प्रायः किसी में नहीं है। दारुण शस्त्रास्त्रों के आघात को मनुष्य सहन कर सकता है, अग्नि की उष्णता को सह सकता है किन्तु शोकरूपी दावानल को मनुष्य सहन नहीं कर सकता। शोक को काल का सन्देशा समझना चाहिए, जिसको शोकरूपी शत्रु ने आ घेरा, समझना चाहिए कि उसकी मृत्यु समीप आ गयी है। इसी कारण हम लोग यह अनुमान करते हैं कि, हिरण्यकशिपु के मृत्यु के दिन समीप आ गये हैं। क्योंकि उसको शोकरूपी प्रबल शत्रु ने आ घेरा है। इतना ही नहीं, आज कल जो दिव्य, आन्तरिक्ष और भौतिक शकुन हो रहे हैं वे भी यही सूचित करते हैं कि दैत्यों के आधिपत्य का विनाश होने वाला है और धर्मप्राण देवताओं का पुनः आधिपत्य स्थापित होने वाला है। यही बात पण्डितलोग भी कहते हैं कि अब दैत्यराज के अत्याचारी शासन के दिन समाप्त हो चले हैं। शीघ्र ही देवता अपने अधिकारों को प्राप्त करेंगे।"
देवगण– “आचार्य चरण ! आपके अमृततुल्य वचनों से हम लोगों को बड़ी शान्ति मिली है और आशा भी हो रही है कि हमारे दुःख मिटेंगे, किन्तु आपने दैत्यराज के शोक की जो बात कही, वह हम लोगों के समझ में नहीं आयी। उसको शोक किस बात का हो सकता है? उसके विरोधी बड़े-से-बड़े देवता और दिक्पाल या तो कारागार की दारुण यातनाएँ भोग रहे हैं या उसी की दासता में अपना नारकीय जीवन बिता रहे हैं। जो उग्र विचार के लोग उसके विरोधी थे, वे या तो फाँसी पर लटका दिये गये हैं या कन्दराओं में छिपे हुए अपने मृत्यु के दिन गिन रहे हैं। सारे संसार में उसी का एकाधिपत्य है। सब ओर उसके विजय का डंका बज रहा है। उसका न तो कोई ऐसा शत्रु है जिससे उसको भय हो और न आजकल उसका शत्रु बनना ही सरल काम है। ऐसी दशा में उसको किस बात का शोक होगा यह हमारी समझ में नहीं आया। इस समय उसको दूध-पूत दोनों ही प्रकार के सुख प्राप्त हैं। उसको कष्ट है ही किस बात का? कृपया इसका रहस्य हम लोगों को समझाइये।'
बृहस्पति–“देवतागण! आप लोग उसके आन्तरिक दुःख को नहीं जानते। उसके शोक को आप नहीं पहचानते यह आश्चर्य की बात है। जब से उसके भाई हिरण्याक्ष को वाराह भगवान् ने मारा है तभी से वह शोकानल में जल रहा है और उसी शोक के आवेश में उसने विष्णुभगवान् से और उनके भक्तों से शत्रुता ठानी है। अभी हाल में एक नयी घटना और हुई है, उसके छोटे पुत्र प्रह्लाद ने 'विष्णु-भक्ति' की दुन्दुभी बजायी और उसकी राजसभा में उसी के सामने जाकर भगवान् विष्णु की स्तुति की, उनकी ईश्वरता सिद्ध की और दैत्यराज की ईश्वरता को तृण के समान भी न समझा। इस कारण अब उसके अपने ही अङ्ग में रोग लग गया है जिसके शोक से वह व्याकुल हो रहा है और रात दिन उसको यह चिन्ता घेरे रहती है कि, प्रह्लाद की बुद्धि कैसे पलटे? प्रह्लाद की बुद्धि पलटने वाली नहीं, अतएव उसका शोक भी घटनेवाला नहीं। जब घर ही में वैरी है तब दैत्यवंश के नष्ट होने में और उनके आधिपत्य के अन्त होने में क्या सन्देह है ? इस बात को दैत्यराज हिरण्यकशिपु भली भाँति जानता है। इसीलिये उसको शोक है और बहुत बड़ा शोक है। हे देवगण! अवसर सदा नहीं मिलता और अवसर पर काम न करना आयी हुई सफलता का अपने आप तिरस्कार करना है।
इस समय दैत्यराज शोकाकुल है। शोक के आवेश में वह ऐसे घोर अत्याचार कर रहा है जिनको देख कर दयानिधान भगवान् लक्ष्मीनारायण का भी आसन डोल गया होगा। अतएव इसी समय यदि तुम लोग भगवान् के शरण जाकर उन्हें अपनी विपदा सुनाओगे, तो वे तुरन्त दैत्यराज के विनाश का उपाय करेंगे। तुम लोग जैसे ही जाओगे वैसे ही वे प्रसन्न होकर तुम्हारा कार्य साधेंगे, इसमें सन्देह नहीं।'
देवताओं ने गुरुवर बृहस्पतिजी के आदेशानुसार शीघ्र ही जाकर विष्णुभगवान् से अपनी विपदा सुनाने का आयोजन किया। यात्रा की सुन्दर तिथि में सविधि पुण्याहवाचन और स्वस्तिवाचन करा कर देवताओं ने यात्रा की और शिफारिस के लिये देवदेव भगवान् शंकर को भी साथ लेकर आगे कर लिया। सब क्षीरसागर के उत्तर किनारे पर जा पहुँचे तथा स्तुति करने लगे।
[ स्तुति ]विष्णु जिष्णु विभु देव मखेशा।
यज्ञपाल प्रभु विष्णु सुरेशा ॥
लोकात्मा ग्रसिष्णु जन-पालक।
कीजै कृपा शत्रु-कुल-घालक॥
केशव कल्प केशिहा स्वामी।
सब कारण कारण खग-गामी॥
कर्मकारि वामता अधीशा।
वासुदेव पुरु-संस्तुत ईशा॥
माधव मधुसूदन वाराहा।
आदिकर्तृ नारायण काहा॥
नर अरु हंस हुताशन नामा।
विष्णुसेन सब पूरण कामा॥
ज्योतिष्मन् द्युतिमन् श्रीमाना।
आयुष्मन् पुरुषोत्तम भाना॥
कमलनयन वैकुण्ठ सुरार्चित।
कृष्ण सूर्य भव भव-भय-भर्जित॥
नरहरि महार्भाम नख आयुध।
वज्रदंष्ट् जगकर्ता वरबुध॥
आदिदेव यज्ञेश मुरारी।
गरुड़ध्वज पावन असुरारी॥
गोपति गोप्ता भूपति गोविंद।
भुवनेश्वर कजनाभ नमित इंद॥
हृषीकेश दामोदर विभु हरि।
पालहु सदा कृपा अपनी करि॥
वामन दुष्टदमन ब्रह्मेशा।
गोपीश्वर गोविन्द रमेशा।।
प्रीतिवर्द्ध त्रैविक्रम देवा।
करैं त्रिलोकप तुम्हरी सेवा॥
भक्तिप्रिय अच्युत शुचि व्यासा।
सत्य सत्यकीरति भव-वासा॥
ध्रुव कारुण्य पापहर कारुण।
शान्ति विवर्धन पूजित सारुण॥
संन्यासी वदरी बनवासी।
शान्त तपस्वी शास्त्र-प्रकाशी॥
मन्दरगिरि केतन चपलाप्रभ।
करहु कृपा हमपर श्रीवल्लभ॥
भूतनिकेतन रमानिवासा।
गुहावास श्रीपति भयनासा॥
तपोवास दमवास सनातन।
सत्यवास मम हरहु दुरितगन॥
पुरुष पुण्यपुष्कल कमलेक्षण।
पूर्ण महेश्वर पूर्ति विचक्षण॥
पुण्यविज्ञ पुराना।
सब पुण्यज्ञ तुम्हें श्रुति भाना॥
शंखी चक्री गदी हवीशा।
मुशली हारी ध्वजी कवीशा॥
शाङ्ग कवची लाङ्गलघारी।
मुकुटी कुण्डलि मेखलि भारी॥
जेता जिष्णु महावीरेशा।
शान्त शत्रुतापन देवेशा॥
शान्तिकरण शत्रुघ्न सुशास्ता।
शंकर संतनुनुत विख्याता॥
सारथि सात्त्विक स्वामी प्रियतम।
सामवेद सावन समृद्धिसम॥
सम्पूर्णाश साहसी बलकर।
रमानिवास हरहु सुरवर दर॥
स्वर्गद कामद कीर्तिद श्रीप्रद।
मोक्षद कीर्ति विनाशन गतमद॥
पुण्डरीक लोचन भवमोचन।
क्षरि जलधिकृत केतन शोचन॥
सुरासुर स्तुत ईशरु प्रेरक।
पाप विनाशन शुभ गुण हेरक॥
यज्ञ वषट्कृत तुम ओ।
तुम ही अग्निविदित संसारा॥
स्वाहा स्वधा देव पुरुषोत्तम।
तुम हौ सब नहि अपर महत्तम॥
देवदेव शाश्वत भगवन्ता।
विष्णु नमत तव चरण अनन्ता॥
अप्रमेय नहि अन्त तुम्हारा।
यासों प्रणमत देव उदारा॥
इतने नाम उदार बखानी।
विनती कीन्ह महेश भवानी॥
देवताओं की ओर से शंकर जी द्वारा गायी हुई स्तुति को सुनकर, भगवान् विष्णु प्रकट हुए और बड़ी प्रसन्नता के साथ सभी देवताओं का विशेषकर भगवान् शंकर तथा महारानी जगदम्बा पार्वती का स्वागत और यथोचित अभिवादन करते हुए बोले “हे देवगण! तुम लोगों की ओर से भगवान् देवादिदेव महादेवजी ने हमारे इन सौ नामों के द्वारा हमारी जो अपूर्व स्तुति की है, इससे हम अत्यन्त प्रसन्न हैं। तुम लोग क्या चाहते हो, बताओ, हम तुम्हारा काम करने के लिये तैयार हैं।”
देवगण– “नाथ! आप तो अन्तर्यामी हैं, हमारे सभी अर्थों को भली भाँति जानते हैं। हे हृषीकेश! हे पुण्डरीकाक्ष! हे माधव! आप सब जानते हैं। आपसे हम अपना कार्य क्या बतलावें ?
भगवान् विष्णु– “अच्छा, देवगण! यदि आप स्वयं कुछ कहना नहीं चाहते तो आप लोग जाइये। हम आप लोगों के अभिप्राय के अनुसार आपके शत्रु हिरण्यकशिपु का शीघ्र ही वध करेंगे और साथ ही हम यह भी कहते हैं कि, भगवान् शंकरकृत इस सौ नामवाली स्तुति को जो करेगा, उसका मनोरथ सिद्ध होगा। किन्तु हे देवगण! धैर्य धारण करो। अभी आपके कार्य के पूर्ण होने में कुछ विलम्ब है। अभी आप लोग कुछ काल तक इन कष्टों को सहन करें। शीघ्र ही उसका नाश होगा। हिरण्यकशिपु के छोटे पुत्र का नाम प्रह्लाद है, वह हमारा परम भक्त है, उसको हिरण्यकशिपु हमारी भक्ति करने से बरजने लगा है, किन्तु वह मानने वाला नहीं। वह न मानेगा तो दैत्यराज उससे द्रोह करेगा, उसको विविध प्रकार से मारने की चेष्टा करेगा और सतावेगा। जब प्रह्लाद को वह अधिक सतावेगा, तब हम नृसिंहरूप धारण कर, उसको मारेंगे और तभी सारे दैत्यों का अत्याचार मिटेगा। अतएव अब इस समय हे देवादिदेव महादेव! आप अपने देवताओं को साथ ले अपने स्थान को पधारिये।”
भगवान् विष्णु के वचनों से भगवान् शंकर देवताओं सहित बड़े ही प्रसन्न हुए और अपना मनोरथ सफल समझ, सब देवताओं ने अपने-अपने स्थान के लिये प्रस्थान किया।