[स्वल्पकाल में ही ज्ञान प्राप्ति]
महाराज शुक्राचार्य के सुपुत्र षण्ड और अमर्क यद्यपि बड़े योग्य विद्वान् थे, शास्त्र में तथा लोक व्यवहार में भी बड़े निपुण थे और दैत्यराज की राजसभा के वे राजपण्डित भी थे, तथापि उनकी बुद्धि क्रूर और उनका हृदय कठोर था। असुरों के संसर्ग, उनके अन्न-जल के प्रभाव और असुर बालकों को आसुरी शिक्षा देते-देते वे इतने निर्दय हो गये थे कि जो एक विद्वान् के लिये, शुक्राचार्य के पुत्रों के लिये तथा अध्यापक जैसे पवित्र पद के लिये सर्वथा कलंक की बात थी।
एक ओर उग्र और क्रूर प्रकृति के अध्यापक थे, जो बात-बात में बालकों पर क्रोध कर बैठते थे दूसरी ओर सात्त्विक बुद्धिसम्पन्न, कोमल और करुणहृदय प्रह्लाद, जो किसी भी प्राणी को पीड़ित देखना ही नहीं चाहते थे। गुरु-शिष्य में परस्पर यह बड़े भारी विरोध की बात थी। फिर भी ब्रह्मचारी प्रह्लाद ने अपने गुरुवरों की बड़ी शुश्रूषा की और उनके पढ़ाये पाठों को स्वल्प समय में हृदयंगम कर लिया और सहपाठी छात्रों के प्रति भी ऐसा प्रेममय व्यवहार रखा कि, जिसके प्रभाव से उग्रचेता षण्ड और अमर्क, जो बालकों को यमराज के समान दिखलायी देते थे, ब्रह्मचारी प्रह्लाद के लिये विष्णुरूप शान्त एवं प्रसन्न दिखलायी देने लगे।
ब्रह्मचारी प्रह्लाद पर गुरुवर और विद्यालय के सभी प्रकृति के सभी छात्र तो प्रसन्न थे ही, पर उनपर सबसे अधिक प्रसन्न थीं “माता सरस्वती।” थोड़े ही समय में प्रह्लाद अपनी अप्रतिम प्रतिभा के कारण पाठशाला में सर्वप्रिय और सर्वश्रेष्ठ छात्र समझे जाने लगे और गुरुवर उनके उदाहरण पर अन्यान्य असुरकुमारों को उत्साहित कर, उन्हें आगे बढ़ने के लिये उत्तेजित करने लगे। राजराजेश्वर दैत्य हिरण्यकश्यपु के पुत्र प्रह्लाद अपनी पाठशाला के छात्रों के हृदयेश्वर के समान बन बैठे और जिसके मुख से सुनिये, उसी के मुख से प्रह्लाद की प्रतिभा का ही गान सुनायी पड़ने लगा।
समय-समय पर प्रह्लाद अपने माता-पिता के चरणदर्शन के लिये गुरुवरों के साथ राजधानी में जाते थे और उन्हीं के साथ-साथ लौट भी आते थे। मानों यह भी उनके हृदय की दयालुता थी। क्योंकि वे यह नहीं चाहते थे कि उनके अधिक दिनों के वियोग से जननी माता कयाधू और पिता दैत्यराज को किसी प्रकार की वेदना हो। प्रह्लाद का हृदय-मन्दिर भगवान् की दयामयी मूर्ति से शोभायमान था। वे कैसे किसी के हृदय को दुखाते और कैसे किसी की हार्दिक वेदना के कारण बनते? कभी-कभी जब कुछ समय तक ब्रह्मचारी प्रह्लाद अपने पाठानुरोध के कारण माता-पिता के दर्शन को न आने पाते, तब उनकी प्रेममयी माता कयाधू स्वयं अपने प्राणपति दैत्यराज से अनुरोध करके दैत्यराज के साथ-साथ गुरुकुल में जातीं और अपने प्राणोपम पुत्र ब्रह्मचारी प्रह्लाद को देख, और गुरुकुलवासियों से उनकी प्रशंसा सुन, मन-ही-मन आनन्द के अपार सागर में मग्न होती हुई लौट आती थीं।
थोड़े ही समय में अपने पाठ को पूरा करके प्रह्लाद भगवान् की लीलाओं के स्मरण और दर्शन के आनन्द में मग्न हो जाते थे। कभी एकान्त में और कभी सबके बीच में बैठकर वे भगवान् का ध्यान करते थे किन्तु पाठशाला के छात्रों पर उनकी प्रतिभा का इतना अधिक प्रभाव था कि उनसे कोई कभी यह नहीं पूछता था कि, प्रह्लाद, तुम आँखें बन्द किये हुए बैठे बैठे क्या करते हो? जैसे जैसे प्रह्लाद की शास्त्रीय शिक्षा बढ़ती गयी, वैसे-ही-वैसे उनकी विष्णु-भक्ति भी बड़ी तेजी से बढ़ती चली गयी, विद्यालाभ करने के कारण ही मानों उनकी भगवद्भक्ति का रहस्य विद्यालय के छात्रों एवं अध्यापकों को यथातथ्य नहीं मालूम हो पाया। इसी प्रकार प्रह्लाद का समय गुरुकुल में भगवच्चिन्तन के आनन्द में बीतता गया और वर्षों का समय बीत जाते किसी को मालूम न पड़ा। सब लोग यही समझते थे कि प्रह्लाद तो अभी आये हैं, अभी ये बहुत दिन रहेंगे और हम लोगों को इनके संग का यह आनन्द अधिक दिनों तक प्राप्त होता रहेगा।
समय की गति बड़ी तीव्र है, अन्त में वह समय भी आ गया जब प्रह्लाद ने वेद-वेदांग तथा अन्यान्य शास्त्रों की शिक्षा समाप्त कर ली। अब उनके समावर्तन का समय उपस्थित हुआ। पद्मपुराण में लिखा है कि
‘अधीत्य सर्ववेदांश्च शास्त्राणि विविधानि च।
कस्मिंश्चित्त्वथ काले च गुरुणा सह दैत्यजः॥
पितुः समीपमागत्य ववन्दे विनयान्वितः॥'
अर्थात्— दैत्यराज के पुत्र प्रह्लादजी समस्त वेदों तथा विविध शास्त्रों को पढ़कर एक दिन गुरुकुल से अपने गुरुवर के साथ पिता हिरण्यकशिपु के समीप गये और वहाँ पहुँच कर उन्होंने पिता को सविनय प्रणाम किया।
दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने गुरुपुत्रों के साथ आये हुए ब्रह्मचारी पुत्र प्रह्लाद को प्रणाम करते देख सहर्ष अनेकानेक आशीर्वाद दिये और स्वयं आचार्य पुत्रों को प्रणाम किया। आचार्य पुत्रों को सुन्दर उच्च आसन देकर दैत्यराज ने प्रह्लाद को अपनी गोद में उठा लिया और कुशल प्रश्न पूछने के पश्चात् आचार्य पुत्रों से प्रह्लाद की शिक्षा समाप्ति की प्रशंसायुक्त बातें सुन, समावर्तन के लिये विचार करते हुए प्रश्न किया कि “बेटा प्रह्लाद! तुम विद्या प्राप्त करने के लिये बहुत दिनों तक गुरुजी के स्थान पर रहे हो। गुरुजी के द्वारा तुमने जो उत्तम ज्ञान प्राप्त किया है वह हमें सुनाओ।”
अनेक विद्वानों के मत से अक्षरारम्भकाल से ही दैत्यराज को प्रह्लाद की विष्णुभक्ति का पता लग गया था और पाँच वर्ष की अवस्था में ही उन्हें सारी ताड़नाएँ दी गयी थीं। कुछ पुराणों में भी अस्पष्टरूप से किन्तु विद्यारम्भ ही से उनकी विष्णुभक्ति की चर्चा फैलने, उनके पीड़ित किये जाने एवं उनकी रक्षा में भगवान् श्रीनृसिंह के अवतार ग्रहणकर हिरण्यकशिपु के वध करने का उल्लेख है। परन्तु पूर्वापर के विचार से पद्मपुराण की बातें हमारी बुद्धि में समाती हैं और संगति लगाने से किसी पुराण का मतभेद भी इससे नहीं होता। अतएव हमारे विचार में जिस समय प्रह्लाद से पहले-पहल दैत्यराज ने यह पूछा कि “हे ब्रह्मचारी प्रह्लाद, हे सुव्रत ! तुमने जानने योग्य जो बातें गुरुवर से सीखी हैं वे बतलाओ।” उस समय उनकी अवस्था कुमार नहीं, किशोर थी और वे निरे बालक नहीं, विद्वान् ब्रह्मचारी थे।
ब्रह्मचारी प्रह्लाद ने बड़ी ही नम्रतापूर्वक गुरुचरणों तथा पिता के चरणों में सादर प्रणाम कर अपना कथन प्रारम्भ किया
'यो वै सर्वोपनिषदामर्थः पुरुष ईश्वरः।
तं वै सर्वगतं विष्णुं नमस्कृत्वा ब्रवीमि ते॥’
—(श्रीमद्भागवत)
अर्थात्— जो समस्त उपनिषदों के द्वारा प्रतिपादित सब का स्वामी पुरुष नाम ईश्वर है उस सर्वव्यापी विष्णु को मैं नमस्कार करके कहता हूँ। ज्यों ही प्रह्लाद के मुख से अपने परम शत्रु उस विष्णुभगवान् की, जिसको मारने की चिन्ता में दैत्यराज रात-दिन व्यग्र रहता था, स्तुति सुनी, त्यों ही सहसा उसका क्रोध भड़क उठा। चित्त बड़े विस्मय में पड़ गया और उसको प्रह्लाद पर नहीं, प्रत्युत अपने आचार्य पुत्रों पर बड़ा क्रोध उपजा। उसने कहा कि– “हे गुरुपुत्रो ! तुमने अबोध जानकर प्रह्लाद को यह क्या शिक्षा दी है? मेरे लड़के को इस प्रकार जड़तापूर्ण शिक्षा तुम लोगों ने क्यों दी? मेरी समझ में यह बात नहीं आती। तुम लोगों ने इतनी ढिठाई की है कि जो मेरे लिये असह्य है। तुमने मेरे परम शत्रु की स्तुति मेरे ही सामने और मेरे ही पुत्र के मुख से करवायी है, यह क्या अक्षम्य अपराध नहीं है ? इसमें सन्देह नहीं कि, इस ब्रह्मचारी प्रह्लाद ने तुम्हारी ही कृपा से यह सब कुछ सीखा है और तुम लोगों ने मेरे उपकारों को तथा भय को भुला कर ये जो ब्राह्मणों-जैसे निरंकुशतापूर्ण कार्य किये हैं, इसके लिये तुम लोगों को मैं अवश्य ही समुचित दण्ड दूँगा। हे द्विजाधम ! तुम लोगों को मैंने पहले ही भली भाँति समझा दिया था। उस समय तुम लोगों ने कैसी-कैसी चाटुकारी की बातें कही थीं? क्या अब तुम लोगों को उनका स्मरण नहीं है? मेरी समझ से तुम लोगों ने यह अक्षम्य अपराध भ्रमवश नहीं किन्तु प्रमादवश किया है। अतएव तुम लोग प्राणदण्ड के योग्य हो, किन्तु गुरुपुत्र होने के कारण मैं तुम लोगों को अभी क्षमा करता हूँ। परन्तु जबतक आचार्यवर शुक्रजी महाराज नहीं आवेंगे तब तक के लिये मैं तुम लोगों को कारागार में बन्द रखूँगा। कारण, मुझे यह भय है कि, तुम लोग स्वतन्त्र रहोगे तो बालकों में मेरे शत्रु की प्रशंसा के भाव फैलाओगे और सारे देश में मेरे प्रति द्रोह पैदा करने की चेष्टा करोगे।”
आचार्यपुत्र– “हे दैत्येश्वर! हम लोगों ने आपके पुत्र को यह शिक्षा कभी नहीं दी। आप हम लोगों पर अकारण ही क्रोध कर रहे हैं। हमारी शिक्षा तो सदैव विष्णु स्तुति के विपरीत ही होती है हमारे छात्र की दशा में ब्रह्मचारी प्रह्लाद ने आपके सामने ही आपकी अवहेलना करके जो विष्णु की स्तुति की है इसके लिये हमको आन्तरिक खेद है और इस निमित्त से हम अपराधी भी हैं कि हमारी शिक्षा का इसके मन पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़कर उससे ठीक विपरीत प्रभाव पड़ा। अतएव हम लोग अपने लिये क्षमा नहीं चाहते। आप जैसा उचित समझें, हम लोगों को दण्ड दें। हम लोग उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे।”
अपने गुरुओं को पिता के कोपानल का अकारण शिकार होते देख और दोनों ओर की बातें सुन, ब्रह्मचारी प्रह्लाद कुछ बोलना ही चाहते थे कि उनका हृदय सहसा द्रवीभूत हो गया। इतने में दैत्यराज ने ही कहा “हे पुत्र ! तुम ही सत्य-सत्य कहो कि तुमको इस प्रकार की बुरी शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरु कहते हैं कि हम लोगों ने ऐसी शिक्षा कभी नहीं दी। क्या यह सत्य है? यदि सत्य है तो तुम निर्भय होकर बतलाओ कि तुमको किस आततायी ने इस प्रकार मेरे परम शत्रु की मेरे सामने ही स्तुति करने की शिक्षा दी है। बेटा! तुम जानते ही हो कि मैंने न जाने कितने ब्राह्मणों और विद्वानों को केवल इसी अपराध के लिये कि, वे विष्णुभक्त थे, विष्णु का नाम लेते थे और विष्णु की पूजा किया करते थे, प्राणदण्ड दिया है। अतएव शीघ्र ही तुम मुझसे उसका नाम बतलाओ। मैं उसको अभी समुचित दण्ड देकर बतला दूँगा कि इस प्रकार का राजद्रोहपूर्ण अपराध कितना भयंकर होता है?”
पिता की बातें सुन कर ब्रह्मचारी प्रह्लाद ने बड़े ही विनीतभाव से हाथ जोड़ कर कहा
'शास्ता विष्णुरशेषस्य जगतो यो हृदि स्थितः।
तमृते परमात्मानं तात कः केन शास्यते॥'
—(विष्णु० १ । १७ । २०)
अर्थात्— “पिताजी ! शासन एवं उपदेश करने वाले तो एकमात्र परमात्मा विष्णु ही हैं जो सारे जगत् में सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं, उनके सिवा दूसरा कौन किसको उपदेश देकर शासित कर सकता है??
हिरण्यकशिपु–“बेटा! तू बड़ा मूर्ख प्रतीत होता है, जो मेरे ही सामने बारम्बार विष्णु का नाम लेता है। तीनों लोकों का तो मैं अधीश्वर हूँ मेरे सामने कौन दूसरा ईश्वर हो सकता है?”
प्रह्लाद– “पिताजी! जिस परमात्मा का परिचय शब्दों द्वारा नहीं दिया जा सकता, जो केवल योगियों के ध्यान में आता है तथा जिससे यह सारा विश्व उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं विश्वरूप है, वह परमेश्वर ही मेरा विष्णु है।”
हिरण्यकशिपु– “रे मूर्ख प्रह्लाद ! मेरी उपस्थिति में कौन दूसरा परमेश्वर है? तू बारम्बार जिसका नाम लेता है वह कहाँ है? मालूम होता है कि तेरी मृत्यु समीप आ गयी है।”
पिता के कोप को बढ़ते देख, प्रह्लाद ने बड़ी धीरता और शान्ति के साथ कहा कि
‘न केवलं तात मम प्रजानां स ब्रह्मभूतो भवतश्च विष्णुः।
धाता विधाता परमेश्वरश्च प्रसीद कोपं कुरुषे किमर्थम्॥'
—(विष्णु ० १ । १७ । २४)
अर्थात— “हे तात! आप क्रोध क्यों करते हैं? वह विष्णु, केवल मेरे ही ईश्वर नहीं हैं प्रत्युत सारी प्रजा के एवं आपके भी वही ईश्वर हैं। इतना ही नहीं, सबका धारण करने वाले धाता और सबको रचने वाले विधाता भी वही हैं।”
हिरण्यकशिपु– “अरे कौन पापी इस दुर्बुद्धि बालक के हृदय में घुस बैठा है जिससे अवशिष्ट चित्त होकर यह एसे अमंगल वचन बोलता है।”
प्रह्लाद– “पिताजी! वे भगवान विष्णु तो मेरे हींं हृदय में नहीं बल्कि संपूर्ण लोकों में स्थित है वे सर्वगामी तो मुझेको आप सबको और समस्त प्राणियों को अपनी-अपनी चेष्टाओं में प्रवृत्त करते हैं।”
प्रह्लाद को शान्त होते न देखकर पुत्र प्रेमवश, दैत्यराज ने क्रोध को शान्त करके कहा “हे मन्त्रिगण ! इस दुष्ट बालक को यहाँ से जल्दी निकालो, और गुरु के यहां ले जाकर भली प्रकार शासन करो। मालूम होता है किसी विपक्षी दल के व्यक्ति ने इसे हमारे शत्रु की स्तुति करना सीखा दिया है। इसका अधिक दोष नहीं है।”
दैत्यराज की आज्ञा पाकर ब्रह्मचारी प्रह्लाद पुनः गुरुकुल पहुँचाये गये और वहाँ आचार्य लोग उनको भाँति भाँति की नीति-शिक्षा देने लगे।