भाग 31: जीवन
सूत्र 33:पहले जो है उसे स्वीकारें, फिर आगे बढ़ें
जीवन सूत्र
34: कर्मफल पर दृष्टि जमाए रखना है लोभ
जीवन सूत्र
33:पहले जो है उसे स्वीकारें, फिर आगे बढ़ें
गीता में श्रीकृष्ण
ने कहा है:-
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग
त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।(2/48)
अर्थात हे धनंजय(अर्जुन) ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि
में समभाव रखते हुए योग में स्थिर रहता हुआ कर्मोंको कर।समत्व को ही योग कहा जाता है।
समत्व अर्थात कार्य करते चलें।इनका फल मिले, न मिले ;इन्हें समान भाव से लेना।
मनुष्य अपने जीवन
में इतना अधिक लक्ष्य केंद्रित हो जाता है कि वह अपने उद्देश्य और लक्ष्य की पूर्ति
को लेकर हमेशा दबाव में रहता है।जीवन में लक्ष्य और उद्देश्य का होना तो बहुत आवश्यक
है लेकिन इन लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति और पूर्ति के लिए चौबीसों घंटे तनाव
में रहना भी अच्छी बात नहीं है। कर्म हमेशा वर्तमान में ही किए जाते हैं,इसलिए अगर
मनुष्य भविष्य की योजना बनाते-बनाते और रणनीति की हर समय समीक्षा करते-करते अपने वर्तमान
काल की स्थिति और लब्धि से असंतुष्टि का भाव रखेगा,तो इससे वर्तमान के साथ-साथ भविष्य
में भी उसका प्रदर्शन प्रभावित होगा। इसलिए जो वर्तमान में है,उसे भी स्वीकारें,उसका
भी आनंद लें; इसके साथ-साथ भविष्य की ओर सतत यात्रा का अपना कर्म करते भी रहें।
जीवन सूत्र
34: कर्मफल पर दृष्टि जमाए रखना है लोभ
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।(2/49)।
इसका अर्थ है:- इस समत्वरूप बुद्धि योग की तुलना में सकाम कर्म अत्यंत
ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि अर्थात बुद्धियोग का ही आश्रय
ग्रहण कर।क्योंकि दयनीय लोग ही फल को ध्यान में रखकर कर्म करते हैं।
इसके पूर्व श्लोक में
भगवान श्री कृष्ण ने समत्व को समझाया है अर्थात हम जो भी कर्म करें उसके पूर्ण होने
और न होने की स्थिति में भी हम सम रहें और जो फल प्राप्त हो उसमें भी हम समभाव रखें।
इस बात को विस्तार देते हुए वे इस श्लोक में कहते हैं कि समता अर्थात समान भाव के दर्शन
से युक्त बुद्धियोग कामना में किए जाने वाले कर्मों से श्रेष्ठ है।
हजारों साल पूर्व कुरुक्षेत्र
के मैदान में दिए गए भगवान कृष्ण के उपदेश का किसी न किसी रूप में आज की परिस्थितियों
से अवश्य ही गहरा संबंध होता है।इस श्लोक की सार्थक पंक्तियों को चरितार्थ किया था,उसी
कुरुक्षेत्र से कुछ ही मील दूर रहने वाले पानीपत के निवासी नीरज चोपड़ा ने।नीरज हैं
भी भारत की सेना में।वे 4, राजपूताना राइफल्स के सूबेदार हैं।उन्होंने ट्रेक एंड फील्ड
इवेंट में भारत के ओलंपिक इतिहास का पहला स्वर्ण पदक दिलाया और उनकी इस उपलब्धि के
साथ ही भाला फेंक के इस अनूठे खेल को उन्होंने जग प्रसिद्धि दिलाई। महाभारत के युद्ध
में तीर,तलवार और अन्य आयुधों के साथ भालों की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी। भारत
के जैवलिन थ्रोअर नीरज चोपड़ा ने टोक्यो ओलंपिक के फाइनल मुकाबले में अपने दूसरे प्रयास
में 87.58 मीटर का सर्वश्रेष्ठ थ्रो करके स्वर्ण पदक जीत लिया। इस उपलब्धि के लिए उन्हें
स्वर्ण वीर कहा जाना पूरी तरह सार्थक होगा।
नीरज
को यह उपलब्धि रातोंरात नहीं मिली थी। उन्होंने लंबी साधना की है।वे ऑस्ट्रेलिया के
गोल्डकोस्ट 2018 राष्ट्रमण्डल खेलों में 86.47 मीटर भाला फेंककर स्वर्ण पदक जीत चुके
हैं।दक्षेस और एशियाई एथलेटिक्स चैंपियनशिप में भी वे ऐसा कर चुके हैं।
समाचारों के अनुसार
टोक्यो में स्वर्ण पदक जीतने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में नीरज चोपड़ा ने यही
कहा-"मुझे नहीं पता था कि यह स्वर्ण होगा लेकिन मैं बहुत खुश हूं।मैं आज अपना
सर्वश्रेष्ठ देने आया था और मैंने ऐसा ही किया।" एक अभीष्ट लक्ष्य के पीछे न भागकर
स्वयं से प्रतिस्पर्धा कर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की ललक एक सम बुद्धियोगी
में ही हो सकती है। ऐसा व्यक्ति ही ओलंपिक
जैसे भारी दबाव वाले फाइनल मुकाबले में संतुलित रहकर अपना स्वाभाविक खेल दिखा सकता
है और यही नीरज चोपड़ा ने कर दिखाया।शाबाश! जय हो नीरज,स्वर्ण वीर! जय हो भारत।
योगेंद्र कुमार पांडेय