गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों बहनें सदियों से धरा पर अपना सौंदर्य बिखेर रही हैं। इंसानों, पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं, सभी को जीवन दान दे रही हैं। हर रोज़ तीनों बहनें एक स्थान पर ज़रूर मिलती हैं। आपस में एक-दूसरे के सुख-दुख बांटती हैं। हँसती, खिलखिलाती, स्वच्छंद घूमती, अपने साथ निर्मल जल लेकर यहाँ से वहाँ बहती यह तीनों बहनें अपने जीवन से बहुत ख़ुश थीं। इसे भगवान का आशीर्वाद समझती थीं कि भगवान ने उन्हें सरिता का रूप देकर पृथ्वी पर सभी के कल्याण के लिए भेजा है। धरती पर बसी मानव जाति से भी वे बहुत ख़ुश थीं कि वे उन्हें इतना पूजते हैं। दशकों तक यही सिलसिला चलता रहा। देवी के समान गंगा, यमुना, सरस्वती को मान सम्मान मिलता रहा। उनके तट पर पूजा-अर्चना होती रही। अंतिम साँस लेते हुए मनुष्य के मुँह में गंगा जल डाल कर उसे विदा करने की प्रथा तो आज भी मौजूद है। लेकिन आज उन तीनों सरिताओं का जीवन बदल गया है।
वक़्त हमेशा एक-सा कहाँ रहता है, समय ने करवट बदली। समय केवल इंसानों के लिए ही अच्छा या बुरा नहीं होता। वह तो पशु-पक्षी, जीव-जंतु, सरिता, पर्वत, पेड़-पौधे, यहाँ तक कि प्राणवायु के लिए भी अच्छा या बुरा दोनों तरह का होता है। प्राण वायु भी अब पहले की तरह शुद्ध कहाँ रही? अब गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों बहनों का समय भी परिवर्तित हो रहा था। सुख दिन के उगते सूरज की तरह उनके जीवन में आया था और यह सुबह बहुत लंबी भी थी लेकिन अब डूबते सूरज के बाद आने वाले अंधकार की तरह दुःखों का बड़ा पहाड़ सामने खड़ा उन्हें दिखाई दे रहा था।
एक दिन वह तीनों बहनें आपस में बात कर रही थीं। गंगा को उदास देखकर यमुना ने पूछा, "दीदी आपकी आँखों में आँसू दिखाई दे रहे हैं। आप इतनी अधिक दुःखी क्यों हो?"
"दुःखी कैसे ना होऊँ यमुना? यह आँसू केवल मेरे लिए ही नहीं, यह आँसू हम सभी की फ़िक्र में बह रहे हैं। शंकर की जटाओं से निकलकर धरती पर सब को जीवन दान देने ही तो मैं आई हूँ। लेकिन आज इंसान हमें मैला कर रहे हैं। अपनी सारी गंदगी को हमारे शरीर में डाल रहे हैं।"
यमुना ने कहा, "हाँ दीदी समय बदल गया है। इंसानों की संख्या बढ़ती ही चली जा रही है। उनकी आवश्यकतायें भी बढ़ रही हैं। वे हर सुख-सुविधा हासिल करना चाहते हैं। अलग-अलग, भांति-भांति के नए-नए कारखाने खोले जा रहे हैं। हमारी बदकिस्मती यह है कि ये इंसान उन कारखानों का गंदा प्रदूषित पानी हमारे अंदर फेंक रहे हैं।"
गंगा ने कहा, "हाँ हम सब इस प्रदूषण से बीमार हो रहे हैं। मृत शरीर भी हमारे अंदर बहाये जाते हैं। अब हम ख़ुद अपने जल को पहले की तरह स्वच्छ, निर्मल नहीं कर सकते।"
सरस्वती ने कहा, "दीदी हमारी कोख़ में पल रहे कितने ही जीव-जंतु मानव की ग़लतियों की सज़ा भुगत रहे हैं। वे तो अपनी गंदगी हमारे अंदर फेंक कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। प्रदूषित पानी, गंदगी और ख़ास तौर पर प्लास्टिक के कारण हमारे अंदर पल रहे कितने ही जीव-जंतु साँस तक नहीं ले पाते और उनका जीवन समाप्त हो जाता है।"
यमुना ने कहा, "इंसान हमारे सभी सगे सम्बंधियों को भी कहाँ छोड़ रहे हैं। वे इतने लोभी हो चुके हैं कि पर्वतों को काट रहे हैं। जब मैं पर्वतों को कटता हुआ देखती हूँ, सच कहती हूँ दीदी मेरा दिल दर्द से कराह उठता है।"
गंगा ने कहा, "तुम सही कह रही हो यमुना। हमारे तट पर लगे हँसते, खिलखिलाते, लहलहाते वृक्षों को इतनी बेरहमी से काटा जाता है कि उनकी चीख मेरे हृदय को छलनी कर देती है।"
सरस्वती ने कहा, "ये इंसान तो बड़े ही ज्ञानी होते हैं ना दीदी फिर वे यह क्यों नहीं समझते कि हम तो उन्हें मदद करने के लिए धरा पर आए हैं। हम उनके मित्र हैं फिर वे हमारे साथ ऐसा अत्याचार क्यों कर रहे हैं?"
गंगा ने कहा, "देखो सरस्वती यह कलयुग है और इंसानों के पाप का घड़ा अब भरते जा रहा है इसलिए कितनी बार उन्हें विनाश का सामना करना पड़ रहा है। उनकी ही ग़लती से कोरोना जैसी महामारी ने जन्म लिया और कितना भयानक रूप लेकर वह आई। ना जाने कितने ही इंसानों को मौत के मुँह में डाल दिया। कितने परिवारों को तोड़ दिया, कितने बच्चों को अनाथ कर दिया और कितनों को औलाद के सुख से वंचित कर दिया। कभी प्रकृति अपना तांडव दिखाती है, कभी समंदर अपनी नाराज़गी दिखाता है और सुनामी जैसा प्रलय इंसानों को कचरे की तरह अपने साथ बहा ले जाता है। इंद्र देवता नाराज़ होकर कभी वर्षा का सैलाब लाते हैं, कहीं बादल फट कर तबाही मचाते हैं, कहीं इतना सूखा कर देते हैं कि बेचारे निर्दोष पशु-पक्षी भी प्यासे मर जाते हैं। वह कहते हैं ना कि गेहूँ के साथ-साथ घुन भी पिस जाता है।"
"दीदी क्या पुराना समय कभी फिर से वापस आ पाएगा?"
"नहीं यमुना! इंसानों की ज़रूरतें और लालच अब उस समय को कभी नहीं लौटने देंगे। हमें साफ़ करने की योजनाएँ बन रही हैं, सफ़ाई भी हो रही है लेकिन उसके बाद भी कितने लोग इसे गंभीरता से लेते हैं? कुछ बिरले ही होंगे जो इस अभियान से सच्चे दिल से जुड़े हों।"
"दीदी हम कर भी क्या सकते हैं? ऊपर वाले से केवल यह प्रार्थना कर सकते हैं कि मानव जाति को सद्बुद्धि दे। आने वाले प्रलय और उसके विनाश से उन्हें बचा ले ताकि इस सुंदर धरती और प्रकृति का सौंदर्य बना रहे। इंसानों के साथ भी तालमेल बना रहे और यह सिलसिला अनंत तक यूँ ही चलता रहे। हम अपने निर्मल और स्वच्छ जल से इंसानों की आने वाली हर पीढ़ी को लाभान्वित करते रहें। जीव-जंतुओं को अपने गर्भ में लिए स्वच्छंद बहते रहें। हम भी ख़ुश रह सकें और दूसरों को भी ख़ुशियाँ दे सकें।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक