जिस समय सारे जगत् में तीनों लोक और चौदहों भुवन में देवताओं की तूती बोल रही थी, देवराज इन्द्र का आधिपत्य व्याप्त था और असुरों का आश्रयदाता कोई नहीं था उसी समय भगवान् की माया की प्रेरणा से देवराज इन्द्र को अभिमान हुआ और उनका विवेक और उनकी बुद्धि अभिमान के वशीभूत होकर अविवेकिनी बन बैठी। जिस हृदय में अभिमान का आवेश हो जाता है, उस हृदय में शील टिक नहीं सकता और जिस हृदय में शील नहीं होता, उसको सत्य, धर्म, लक्ष्मी आदि सद्गुण-पूर्ण समस्त ऐश्वर्य परित्याग कर देते हैं। इसी कारण से अभिमानी देवराज इन्द्र को राज-लक्ष्मी उनके हित के लिये, उनके अभिमान को मिटाने के लिये परित्याग करना चाहती थी। उसी समय जब छठें मन्वन्तर का सत्ययुग था, महर्षि कश्यप के घर में पतित्रता दिति के गर्भ से असुरों के आश्रयदाता एवं परमप्रतापी हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु नामक दो यमज पुत्र आदिदैत्य के रूप में प्रकट हुए थे।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के जन्म ग्रहण करते ही देवताओं में भय छा गया और ज्यों-ज्यों उनका तेज प्रताप बढ़ता गया त्यों-त्यों देवताओं में भय और भी अधिक बढ़ता गया। यहाँ तक कि दोनों भाइयों ने अपने बाहुबल से तथा असुरों की सहायता से सारे जगत् पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। हिरण्यकशिपु अपना राजकाज देखने लगा और यथासम्भव साधारणतया न्यायानुकूल शासन करने लगा किन्तु हिरण्याक्ष पर राजकाज का भार न था, अतः वह उद्दण्ड होकर चारों ओर घूमता फिरता था। कभी वह दिग्पालों पर चढ़ाई करता था, कभी इन्द्रासन पर आक्रमण करता था और कभी अन्यान्य देवताओं को सताता था। उसके पराक्रम से सभी भयभीत थे, उसके आतंक से सभी त्रस्त थे और उसके उत्पात से मनुष्यों एवं देवताओं को समानरूप से असह्य दुःख था। देवतागण अपने-अपने पदों से च्युत होकर चारों ओर मारे-मारे फिरते थे और मनुष्यों की दुर्दशा का तो कोई पार ही न था। सारी प्रकृति उसकी अनुगामिनी थी, अतएव सारे संसार में हिरण्याक्ष की विजय-दुन्दुभी बज रही थी। अवश्य ही यह सब कुछ होता था परन्तु फिर भी दीनबन्धु, दीनानाथ एवं विश्वम्भर भगवान् लक्ष्मीनारायण का आसन नहीं हिलता था। मानों वे चुपचाप तमाशा देखते थे और इन्द्रादि देवताओं को उनके अभिमान के लिये जान-बूझ कर इन असुरों द्वारा दण्ड दे रहे थे।
जब हिरण्याक्ष का अत्याचार बढ़ते-बढ़ते चरम सीमा को पहुँच गया और देवराज इन्द्र का दुरभिमान मिट गया, जब हिरण्याक्ष ने सारी पृथ्वी को मटियामेट कर रसातल को पहुँचा दिया, तब भगवान् लक्ष्मीनारायण का आसन हिला। देवताओं ने पुकार मचायी, ब्रह्मादि ने प्रार्थनाएँ कीं और जब भगवत्पार्षद के अवतार हिरण्याक्ष के उद्धार का समय उपस्थित हुआ तब प्रकृतिदेवी के अधीश्वर, संसार के नियन्ता भगवान् लक्ष्मीनारायण ने अवतार धारण कर हिरण्याक्ष का संहार किया। जिस समय हिरण्याक्ष को मारकर भगवान् ने वाराहरूप से लोगों को दर्शन दिया, उस समय सारे देवताओं ने जाकर स्तुति की और पुष्पवृष्टि करके विजय-दुन्दुभी बजायी। यद्यपि हिरण्याक्ष का वध हो गया और देवताओं ने विजय की दुन्दुभी बजा दी, तथापि संसारव्यापी आसुरी साम्राज्य का आतंक नहीं मिटा और न देवताओं को अपने अधिकार ही मिले प्रत्युत उनको और भी अधिक कष्ट होने लगा। जिस समय हिरण्याक्ष मारा गया उस समय पुत्रवत्सला माता दिति विलप-विलप कर रोने लगी और हिरण्याक्ष के स्त्री-पुत्रादि के करुणक्रन्दन से आकाश प्रतिध्वनित होने लगा। उस समय समस्त कुटुम्बियों की शोकपूर्ण दशा को देख कर वीरवर हिरण्यकशिपु ने माता को सम्बोधित करके कहा “हे वीरप्रसविनि माता! शोक करना आपको उचित नहीं, आपको उचित है कि स्वयं धैर्य धारण कर अपनी पुत्रवधू और पौत्रादि को धैर्य प्रदान करें। हम आपके पुत्र तथा हमारे भाई के ये पुत्र मौजूद हैं। फिर आप क्यों शोक करती हैं? क्या आपको यह विश्वास है कि इस भ्रातृ-वध का बदला लेने में हम लोग समर्थ नहीं हैं। भाई हिरण्याक्ष का वध शोक करने योग्य नहीं है। उनको वीरगति प्राप्त हुई है। कायरों के समान उनकी मृत्यु नहीं हुई। ऐसे सुपूत की माता को आनन्दित होना चाहिए न कि रोना। हम आपके नाम को, दैत्यवंश को चलाने और अपने शत्रु देवताओं को उनके किये अपराधों का मजा चखाने के लिये तैयार हैं। आप शोकाकुल न हों। शान्त चित्तसे देखें। हम इस भ्रातृ-वध का बदला शीघ्र ही लेंगे। हम जानते हैं कि जिस विष्णु की आज ये देवता परमेश्वर करके स्तुति कर रहे हैं, जिसने हमारे वीर भ्राता को धोखे से मारा है, वह कभी ईश्वर कहाने योग्य नहीं है। जो पक्षपाती हो और सदैव देवताओं का साथ देकर असुरों का नाश करना चाहे, हम उसको ईश्वर कैसे मानें? ईश्वर में न पक्षपात है, न क्रोध है, न लोभ है, न मोह है और न उसमें कोई विकार ही है। वह निर्विकार ईश्वर इन विकारयुक्त देवताओं का साथी बनकर हमारे वीरशिरोमणि भाई को क्यों मारता? उससे क्या प्रयोजन? हम दोनों भाई हैं। देवताओं और असुरों का सौतेले भाई का सम्बन्ध है। अपने-अपने अधिकारों के लिये हम लड़ते हैं, झगड़ते हैं और कभी हम जीतते हैं तो कभी देवता लोग जीतते हैं। हमारे दोनों के बीच में इस तीसरे का क्या काम था और वह बीच में कूदनेवाला निर्विकार ईश्वर कैसे हो सकता है? ईश्वर की दृष्टि में तो हम दोनों समान हैं। वह दोनों का परम पिता है फिर वह मोहवश कैसे पक्षपात करेगा? यह हमारे समझ में नहीं आता। अतएव हम कहते हैं कि, हमारे वीरवर भाई को मारनेवाला ईश्वर नहीं, कोई धोखेबाज़ व्यक्ति है और उसकी देवतालोग इसलिये ईश्वर के नाम स्तुति कर रहे हैं कि, जिससे हम लोग भयभीत हों और यह मान लें कि इन देवताओं के साथी ईश्वर हैं। सारांश यह कि, आप शोक न करें। हम देवताओं से अपने भाई का बदला शीघ्र लेंगे और इस विष्णु को भी हम देखेंगे कि, हमारे भाई को मारकर ईश्वर के नाम से त्रिलोकी में कैसे अपने को पुजवाता है।
पुत्र के वीरतापूर्ण वचनों को सुन कर पुत्रशोक से व्याकुल माता को कुछ धैर्य हुआ और उसने अपनी पुत्रवधू तथा पौत्रादि को सान्त्वना प्रदान की। हिरण्याक्ष की पतिव्रता स्त्री 'भानुमती' अपने पति के शरीर के वस्त्र को लेकर सती होने को तैयार हुई। माता दिति ने बहुतेरा समझाया। उन्होंने कहा “बेटी! सती न हो, अभी तो मैं हतभाग्या जीती हूँ। मेरे सामने तू अभी दुधमुँही बालिका है, तेरा सती होना उचित नहीं। देख तो तेरा यह सुपुत्र तेरी ओर करुण-दृष्टि से देख रहा है। इसको छोड़ कर सती होना तुझको उचित नहीं। सती होना और ब्रह्मचर्य से अपना जीवन व्यतीत करना ये दोनों ही साध्वी स्त्रियों के लिये पति-वियोग के समय के समान कर्तव्य हैं।” किन्तु हिरण्याक्ष की स्त्री 'भानु' अथवा 'भानुमती' ने कहा “माता! आप क्या कहती हैं? मिथ्या मोह में पड़कर आप जैसी वीरप्रसविनी माता के लिये नारी-धर्म को भूल जाना या जान-बूझ कर भुला देना उचित नहीं। क्या साध्वी स्त्रियों के लिये प्राणपति के अवसान में अग्निप्रवेश से बढ़कर भी कोई धर्म है? क्या शास्त्रों में 'नाग्निप्रवेशादपरो हि धर्मः' नहीं लिखा है? आप मुझे अपने प्राणपति की पदानुगामिनी बनने से क्यों रोकती हैं? आप आज्ञा दें कि मैं अपने प्राणपति की पदानुगामिनी बन भविष्य की साध्वी स्त्रियों के लिये स्त्री-धर्म के उज्ज्वल उदाहरण की अनुगामिनी बनूँ। अन्यथा सती न होने पर मेरा हृदय सदैव अपने प्राणपति के विष्णु तथा उनके अनुयायियों के प्रति शत्रुता करने में लगा रहेगा और उससे मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।”
भ्रातृवधू के विशेष हठ का समाचार पाकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु स्वयं समझाने के लिये उसके पास गया और उसके समझाने-बुझाने पर भानुमती ने इस शर्त पर सती होने का हठ छोड़ दिया कि, प्रतिदिन एक न एक विष्णुभक्त का सिर काट कर उसके सामने लाया जावे और तब तक ऐसा होता रहे जब तक या तो विष्णु मारा न जाय या संसार से वैष्णवों का पूर्णतया अभाव न हो जाय! हिरण्यकशिपु ने अपने भ्रातृवधू की ये शर्तें मान लीं और तदनुसार ही अपने असुर अधिकारियों को आज्ञा दे दी। हिरण्याक्ष की पत्नी भानुमती ने अपना हठ छोड़ दिया और हिरण्यकशिपु ने बिलखते हुए अपने परिजनों को सान्त्वना दे अपने भाई का साम्परायिक कर्म विधिपूर्वक सुसम्पन्न किया । साम्परायिक कर्म से निवृत्त होकर दैत्यराज शासन तो करने लगा किन्तु उसको रात-दिन इस बात की चिन्ता सताया करती थी कि भाई का बदला कैसे लिया जाय? उसकी यह चिन्ता तब और भी अधिक बढ़ जाती थी जब वह अपनी भ्रातृवधू भानुमती को वैधव्य-दशा में दुःखित देखता था।