द्वापर युग में कुबेर जैसा धनवान कोई नहीं था। उसके दो पुत्र थे। एक का नाम नलकूबेर था और दूसरे का मणिग्रीव। कुबेर के ये दोनों बेटे अपनी पिता की धन-संपत्ति के प्रमाद में घमंडी और उद्दंड हो गए थे। राह चलते लोगों का छेड़ना, उन पर व्यंग्य कसना, गरीब लोगों की मखौल उड़ाना उन दोनों की प्रवृत्ति बन गई थी।
एक दिन दोनों भाई नदी में स्नान कर रहे थे। तभी आकाश
मार्ग से आते हुए उन्हें देवर्षि नारद दिखाई दिए। उनके मुख से 'नारायण-नारायण' का स्वर सुन कर नदी पर स्नान के लिए पहुँचे लोग उन्हें प्रणाम करने लगे, लेकिन नलकूबेर और मणिग्रीव तो अपने पिता के धन के कारण दंभ से भरे हुए थे, उन्होंने देवर्षि नारद को नमन करने के स्थान पर उनकी ओर मुंह बिचकाया और उनका उपहास उड़ाया।
उन दोनों का व्यवहार नारद को अखरा। क्रोध में भरकर
उन्होंने दोनों को शाप दे दिया, "जाओ, मृत्युलोक में जाकर
वृक्ष बन जाओ।" शापवश उसी समय दोनों मृत्युलोक के गोकुल में नंद बाबा के द्वार पर पेड़ बन कर खड़े हो गए।
कुबेर को अपने पुत्रों की दुर्दशा की खबर मिली तो वह बहुत दुखा हुआ और देवर्षि नारद से बार-बार क्षमा याचना करने लगा। नारद को उस पर दया आ गई, उन्होंने अपने शाप का परिमार्जन करते हुए कहा "अभी तो कुछ नहीं हो सकता, किन्तु द्वापर में भगवान् विष्णु कृष्ण के रूप में वहाँ अवतरित होंगे और दोनों वृक्षों का स्पर्श करेंगे तब उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।"
नारद के वचनों को सिद्ध करने के लिए ही वासुदेव श्रीकृष्ण को गोकुल में राजा नंद के घर पलने के लिए छोड़ गए। वैसे तो सभी जानते हैं कि कृष्ण को छोड़ आने का उद्देश्य था, प्रजा को कंस के अत्याचारों से बचाना। नंद की पत्नी यशोदा कृष्ण को बड़े लाड़ प्यार से पालती थी, परन्तु कृष्ण को अपनी लीला तो रचानी ही थी। इसलिए ग्वालिनों के घरों से मक्खन चुराना, उनके मटके फोड़ देना, घर के मक्खन को ग्वाल सखाओं में बांटना, आदि खेल कृष्ण करते थे।
एक दिन सुबह-सुबह माता यशोदा दही मथ रही थीं और नंद बाबा गौशाला में बैठकर गायों का दूध दुहवा रहे थे, तभी कृष्ण जाग गए और माता यशोदा से दुग्ध पान की जिद करने लगे। किन्तु काम में व्यस्त होने के कारण यशोदा को थोड़ा-सा विलम्ब हो गया। बस फिर क्या था, कृष्ण रूठ गए और गुस्से में मथनी ही तोड़ डाली। यशोदा को भी क्रोध आ गया। उन्होंने एक रस्सी से कृष्ण को बांध दिया और रस्सी एक ओखल में बांध दी।
कृष्ण ठहरे अंतर्यामी, इन्हें अपने दरवाजे पर खड़े दो शापित वृक्षों की याद आ गई। नारद द्वारा शापित कुबेर के पुत्र काफी समय तक अपनी अशिष्टता की सजा पा चुक थे। अब उन्हें मुक्त करना था। ऐसा सोचकर ओखल खिसकाते हुए कृष्ण आगे बढ़े और दोनों वृक्षों के समीप जाकर उनका स्पर्श किया और ओखल से दोनों वृक्षों को धक्का मारा। धक्का लगते ही दोनों वृक्ष तत्काल हरहराते हुए नीचे आ गिरे।
वृक्षों के गिरने से जो भारी शोर हुआ, उसे सुनकर नंद बाबा, माता यशोदा सहित सभी पड़ोसी वहाँ दौड़ते हुए पहुँचे। तब सभी ने एक चमत्कार देखा। उन वृक्षों से दो सुन्दर युवक, जो कोई देवता जैसे लग रहे थे, कृष्ण के सामने हाथ जोड़कर खड़े थे। फिर अंतर्धान होकर अपने लोक को चले गए।
इस प्रकार नलकूबेर और मणिग्रीव को महर्षि नारद जी के
शाप से मुक्ति मिली।