Cactus ke Jungle -4 in Hindi Fiction Stories by Sureshbabu Mishra books and stories PDF | कैक्टस के जंगल - भाग 4

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कैक्टस के जंगल - भाग 4

4

कैक्टस के जंगल

पहाड़ों की सुरमई वादियों की गोद में दूर-दूर तक फैले हरे-हरे चाय के बागानों को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी ने जमीन पर दूर-दूर तक हरी चादर बिछा दी हो।

बागानों के बीचो-बीच बना था मेजर रमनदीप का खूबसूरत और भव्य मकान। मेजर रमनदीप अब अपने पैरों पर नहीं चलते थे। एक एक्सीडेंट में उनका पैर खराब हो चुका था इसलिए वह व्हील चेयर का सहारा लेते थे और घर की बाॅलकोनी से ही अपने चाय के बागानों की देखा करते थे। उनके बागानों में दजर्नों स्त्री-पुरुष काम किया करते थे।

उस दिन मेजर रमनदीप घर की बालकोनी में बैठे अपने बागानों को निहार रहे थे। उसी समय उनका मैनेजर, उनके कैशियर और दो सुरक्षाकर्मियों के साथ उनके पास आया। मैनेजर ने मेजर रमनदीप को बताया कि उनका कैशियर उनके लाखों रुपये लेकर भागने की कोशिश में था उसने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया।

मैनेजर की बात सुनकर मेजर रमनदीप के दिमाग में बिजली सी कौंध गई, उन्हें झटका-सा लगा और वह अपने अतीत की यादों में विलीन होते चले गये और अपने बारे में सोचने लगे। उन्हें खामोश देखकर उनका मैनेजर बोला, ‘‘क्या हुआ सर, आप क्या सोचने लगे?’’ मैनेजर ने मेजर रमनदीप को खामोश देखकर पूछा तो मेजर रमनदीप अपने अतीत की गहरी खाई से निकल कर बाहर आये और मैनेजर से बोले, ‘‘मैनेजर साहब आप जाइए और आप लोग भी। सामने खड़े दोनों सुरक्षा कर्मियों से कहा। उनके जाने के बाद मेजर रमन दीप ने कैशियर से कहा, ‘‘मिस्टर मेहता, क्या मैं आपकी उस मजबूरी को जान सकता हूँ, जिसकी वजह से आपने कम्पनी के कैश को चोरी करने की कोशिश की ?’’

‘‘जी मजबूरी तो कोई नहीं थी, बस ऐसे ही इतना सारा कैश देखकर मन में लालच आ गया था। सोचा था इतने रुपयों को लेकर अपना बिजनेस करुंगा और आपकी तरह बड़ा आदमी बन जाऊँगा।’’ कैशियर ने कहा।

‘‘मिस्टर मेहता, लालच बहुत बुरी बला है। जानते यह लालच आदमी को कहीं का नहीं छोड़ता। उसे तबाह और बर्बाद कर देता है। इस लालच ने एक नहीं अनेकों जिन्दगियाँ तबाह की हैं। जानते हो आज से बीस साल पहले मेरा एक दोस्त हुआ करता था, जिसे लोग विक्रम सिंह के नाम से जानते थे। वह एक बैंक में तुम्हारी ही तरह कैशियर था। उसके दो छोटे-छोटे बच्चे और एक सुन्दर सुशील पत्नी देवकी थी। सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था, अचानक विक्रम सिंह को बड़ा आदमी बनने की सनक सवार हो गई।

वह चाहता था कि उसके पास बड़ा-सा बंगला हो, कारें हों, नौकर-चाकर हों। जिसके लिए अधिक-से-अधिक पैसा कमाने सनक उसके दिमाग में सवार रहती।

पाँच जून की सुबह को विक्रम बैंक जाने के लिए तैयार हो रहा था। दोनों बच्चे स्कूल जा चुके थे। उसकी पत्नी देवकी नाश्ते पर उसका इन्तजार कर रही थी। तैयार होकर विक्रम नाश्ते की मेज पर आकर बैठ गया। दोनों नाश्ता करने लगे। नाश्ता करते हुए देवकी बोली, “आज शाम को जल्दी घर आ जाना। आज हमारी शादी की सालगिरह है। हम सब मन्दिर चलेंगे। बच्चे भी कई दिन से बाहर चलने की जिद कर रहे हैं इस बहाने हम उन्हें बाहर ले चलेंगे।“

“ठीक है, शाम को मैं घर जल्दी आ जाऊँगा।“ विक्रम मुस्कराते हुए बोला।

नाश्ता करने के बाद विक्रम बैंक चला गया। देवकी अपने घर-गृहस्थी के कामों में व्यस्त हो गई। उधर बैंक पहुँचकर विक्रम अपने काम में व्यस्त हो गया। अगले दिन पहली तारीख थी। कर्मचारियों को उनका वेतन और पेंशनर्स को पेंशन बंटनी थी। इसलिए तीन बजे के करीब मेन ब्रान्च से गाड़ी कैश लेकर आई थी। विक्रम कैश संभालने में व्यस्त हो गया था।

और दिनों की अपेक्षा आज देवकी कुछ ज्यादा ही खुश थी। उसकी शादी की आज दसवीं सालगिरह थी। इन दस सालों में देवकी को वह सारी खुशियाँ मिली थीं, जिनकी कल्पना शादी सेे पहले उसने की थी।

शादी होकर देवकी जब अपनी ससुराल आई थी, तो उसकी ससुराल में विक्रम और देवकी के अलावा और कोई नहीं था। कभी-कभी तो देवकी को यह अकेलापन बहुत खलता था। परन्तु विक्रम ने उसे इतना प्यार दिया कि वह सब कुछ भूलकर उसके प्यार में खो गई। शादी के दो साल बाद शलभ और उसके तीन साल बाद शरद के जन्म के बाद उनका घर बच्चों की किलकारियों से गूंजने लगा।

दोपहर के दो बज गए थे। बच्चों और विक्रम के लौटने में अब केवल दो घण्टे शेष रहे गए थे। इसलिए देवकी खाना बनाने में जुट गई थी। आज उसने पूरा खाना विक्रम की पसन्द का बनाया था।

बच्चों के स्कूल से आते ही देवकी ने उनकी डेªस चेन्ज की और फिर उन्हें खाना खिलाया।

चार बज गए थे। बैंक मैनेजर और अन्य कर्मचारी एक-एक करके चले गए थे। बैंक में विक्रम अकेला रह गया था। विक्रम ने एक नजर कैशचेस्ट में रखे नोटों पर डाली। दो-दो हजार की सैकड़ों गड्डियों को देखकर विक्रम की आँखें चौंधिया गईं। उसके मन में बिजली की तरह एक विचार कौंधा और वह सोचने लगा इन गड्डियों में से कम से कम डेढ़ करोड़ रुपये लेकर कहीं भाग जाये।

“यह तो घोर अपराध होगा। बैंक की धनराशि लेकर भागने के बाद तू बच नहीं पाएगा। पुलिस हर जगह नाकेबन्दी करेगी। हर जगह तेरी तलाश होगी। एक दिन तू पकड़ा जायेगा।“ उसकी आत्मा ने कहा।

“जो खतरों से खेलते हैं और हिम्मत से आगे बढ़ते हैं, भाग्य उन्हीं का साथ देता है।“ उसके मन ने तर्क किया।

विक्रम के मन में विचारों का झंझावात चल रहा था, जो थमने का नाम नहीं ले रहा था। अन्त में उसके मन-मस्तिष्क पर सुख और ऐश्वर्य की लालसा बलवती हो गयी थी।

कहते हैं कि बुराई का मार्ग बड़ा आकर्षक और लुभावना होता है। धन और ऐश्वर्य पाने की मृगतृष्णा मनुष्य के विवेक को समाप्त कर देती है। और वह स्वतः ही गुनाह के रास्ते पर चल पड़ता है। वह भूल जाता है कि यह ऐसा रास्ता है जिस पर एक बार चलने के बाद वापस मुड़ना सम्भव नहीं होता।

विक्रम ने सोचा कि वर्षों से वह जिस सुखी और वैभवपूर्ण जीवन जीने की कल्पना करता रहा है आज उसे साकार रूप देने का समय आ गया है। उसने सोचा कि भाग्य खुद उसका दरवाजा खटखटा रहा है इसलिए उसे इस अवसर को गवांना नहीं चाहिए। विक्रम ने मन-ही- मन बैंक की उस रकम से अपना भावी जीवन संवारने की योजना बना डाली।

वह कैशरूम से दो-दो हजार की सत्तर-अस्सी गड्डियाँ फाइलों और लिफाफों के बीच छिपाकर ले आया और अपनी सीट पर आकर उन गड्डियों को अपने ब्रीफकेस में रख लिया और शाम को छुट्टी में सभी कर्मचारियों के साथ घर चला गया।

जैसे ही विक्रम घर में घुसा दोनों बच्चे “पापा आ गए“, “पापा आ गए“ कह कर उससे लिपट गए।

विक्रम को देखते ही देवकी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई उसे देखकर विक्रम भी मुस्कुराने लगा और बोला, “देवकी, मैंने टैक्सी बुला ली है। तुम सब तैयार हो जाओ। हम लोग घूमने चल रहे हैं। पहले पिक्चर देखेंगे, फिर किसी होटल में खाना खाएंगे। उसके बाद  शाॅपिंग भी करेंगे।“

घूमने चलने की बात सुनकर देवकी का चेहरा खुशी से चमक उठा था। बच्चे भी चहक उठे थे। देवकी तैयार होने कमरे में चली गई। विक्रम ने फटाफट बच्चों के कपड़े बदल दिए और सब लोग टैक्सी में बैठकर घूमने चले गए।

विक्रम अच्छी तरह से जानता था कि कल सुबह बैंक खुलते ही उसकी चोरी पकड़ी जाएगी। और फिर पुलिस उसके पीछे होगी। इसलिए रात भर में वह शहर से जितनी दूर निकल जाये, उतना अच्छा होगा।

टैक्सी जब शहर से काफी दूर निकल आई तो देवकी ने विक्रम से पूछा, “हम लोग कहां जा रहे हैं?“ तो विक्रम ने यह कहकर देवकी को चुप करा दिया कि हम इस शहर को छोड़कर कहीं दूर जा रहे हैं।

विक्रम की बात सुनकर देवकी हैरानी से उसे देखने लगी और सोचने लगी कि विक्रम ऐसा क्यों कर रहा है ? पर उसने विक्रम से आगे कुछ नहीं कहा और चुपचाप बैठ गई।

भूखे-प्यासे बच्चे सुबक-सुबक कर सो गए। रात ज्यादा हो जाने के कारण देवकी भी ऊंघने लगी, मगर विक्रम की आँखों से नींद कोसों दूर थी। उसकी कल्पना में तो रंगीन सपने तैर रहे थे। पूरी रात उसकी आँखों में गुजर गई।

सुबह के चार बज गए थे। वह कस्बे से लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर निकल आया था मगर विक्रम ने अभी कार की स्पीड कम नहीं होने दी। वह अस्सी की स्पीड से टैक्सी चलवा रहा था।

अचानक विक्रम को सामने से पुलिस की गाड़ी आती दिखाई दी विक्रम समझा कि शायद पुलिस उसे ढूंढ़ रही है। उसने ड्राइवर से टैक्सी दूसरे रास्ते पर मुडव़ा दी। स्पीड तेज होने के कारण बैलेन्स बिगड़ गया और वह गाड़ी पर नियंत्रण खो बैठा। गाड़ी उछल कर कई फीट गहरी खाई मंे जा गिरी। गिरते ही गाड़ी में आग लग गई। विक्रम जाग रहा था इसलिए वह ब्रीफकेश लेकर गाड़ी से नीचे कूदने में सफल हो गया। गाड़ी धूँ-धूँ करके जल रही थी। शायद पेट्रोल टैंक फट गया था।

आग इतनी तेज थी कि ड्राइवर, देवकी और बच्चों को टैक्सी से निकालना सम्भव नहीं नहीं हो पाया। सबकी मार्मिक चीखें पिघले हुए शीशे की तरह विक्रम के कानों से टकरा़ रही थीं। कुछ देर तक विक्रम किंकर्तव्यविमूढ़-सा वहां खड़ा रहा। फिर वह ब्रीफकेश लेकर दूसरी टैक्सी से सिलीगुड़ी आ गया। अपनी पत्नी और बच्चों के दुःखद अन्त के बाद भी उसके मन से धनाकर्षण के प्रति मोह कम नहीं हुआ। सिलीगुड़ी आकर विक्रम होटल में कमरा लेकर रहने लगा।

उधर देवकी और उसके दोनों बच्चे आग में जिन्दा जलकर मर गये थे। उनकी कोई शिनाख्त करने वाला नहीं था इसलिए पुलिस ने उन्हें लावारिस मानकर उनका अन्तिम संस्कार कर दिया था।

विक्रम ने सिलीगुड़ी में एक चाय बागान खरीदा और उसी में एक बड़ा बंगला बनाकर रहने लगा। अब उसके पास बंगला था, कारें थीं, नौकर-चाकर थे और सुख ऐश्वर्य के सारे साधन उसके पास थे मगर इस खुशी में उसका साथ देने वाला कोई नहीं था।

आदमी की यह फितरत है कि जब वह दुःखी होता है तो वह चाहता है कि उसके अपने  उसके दुःख में भागीदार बनें इसी प्रकार जब वह सुखी होता है तब भी वह चाहता है कि उसके अपने अन्तरंग लोग इस खुशी में उसके साथ हों, मगर विक्रम की इस खुशी को बांटने वाला कोई उसके पास नहीं था। वह नितान्त अकेला था।

दिन में तो वह चाय बागानों में व्यस्त रहता, मगर रात को जब वह बंगले में अकेला होता तो उसे अपने बीवी बच्चों की याद सताती। उसके कलेजे में एक हूक सी उठती। गम जब ज्यादा बढ़ जाता तो वह उसे भुलाने के लिए शराब का सहारा लेता मगर नशे में भी बीवी बच्चों की यादें उसका पीछा नहीं छोड़तीं। अब रोने और पश्चाताप करने के सिवाय वह कर भी क्या सकता था।

बड़ी मार्मिक कहानी है। कैशियर गहरी श्वांस लेते हुए बोला मेजर रमनदीप कैशियर के चेहरे की ओर देखते हुए कहा-जानते हो मिस्टर मेहता वह विक्रम कौन है ?

“कौन है विक्रम सर ?“ कैशियर ने गहरी जिज्ञासा से पूछा। “वह विक्रम मैं हूँ।“ मेजर रमनदीप ने सपाट स्वर में कहा।

“आप ?“

‘‘यस, मिस्टर मेहता, आज मेरे पास दुनिया की दौलत है मगर सुकून नहीं है। दुनिया भर के ऐश-ओ-आराम तो हैं पर न बीवी-बच्चे हैं, और न अपना कहने के लिए कोई और।

मिस्टर मेहता मैं अपने मकसद में कामयाब तो हो गया और लोगों की आँखों में धूल भी झोंक दी पर ईश्वर की निगाहों से नहीं बच सका। मेरा हश्र तुम देख रहे हो। अपनी पत्नी और बच्चों को खोने के बाद मैं एक रात भी सुकून से नहीं सो पाया हूँ। हर समय मुझे ऐसा लगता रहता है जैसे मेरे चारों ओर कैक्टस के घने जंगल उग आए हैं और वो मुझे लहूलुहान करते रहते हैं।

मिस्टर मेहता, मैं चाहता तो तुम्हें तुम्हारे गुनाह की सजा दिलवा सकता था पर मैंने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम्हारा हाल भी मेरे जैसा हो। तुम गुनाह की दलदल में फंसो। मिस्टर मेहता, मेहनत, ईमानदारी और सच्चाई से कमाया हुआ पैसा इंसान को सुकून और तसल्ली देता है। अब यह तय तुम्हें करना है कि तुम्हें क्या चाहिए, पैसा या......गुनाह की दलदल ?’’ कहकर मेजर रमनदीप अपनी व्हील चेयर को धकेलते हुए अपने ड्राइंगरूम की ओर चल दिए थे। कैशियर अवाक खड़ा था। उसकी आँखों के सामने अपने बीवी, बच्चों के चेहरे घूम गए। वह आत्मग्लानि से वशीभूत हो, अन्दर जाकर मेजर रमनदीप के पैरों पर माफी की मुद्रा में गिर पड़ा।

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