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प्रीति
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सकल विघ्न विनाशिनी, वरदायिनी पद्माम्बिका माता की नित्य पूजा-पाठ और जाप से सेठानी को सिद्धि हासिल हो गई थी और उन पर देवी पद्मावती की सवारी खेल उठी थी।
उस वक्त, जब सवारी खेलती उन पर देवी की उन के हाव-भाव और आवाज ही बदल जाती और चमत्कार तब घटित हो जाता, कि जब वे किसी के सिर पर हाथ फेर देतीं! तो उसके सिर की फुड़ियाँ मिट जातीं। एक बार तो एक औरत के पेट में छाल पड़ गया था। गर्भ न गिरता था और न बच्चा जन्म लेता। डॉक्टर ने ऑपरेशन बोल दिया था। चिकित्सा विज्ञान में उस गोले को निकालने का यह अंतिम उपाय था। इसके पहले भी उस औरत के सात बच्चे या तो अठमासी, सतमासी होकर रहे नहीं थे या फिर दूसरे-चौथे महीने ही बिगाड़ हो चुका था। किंतु सब ओर से हारकर जब वह सेठानीजी की शरण आ लगी तो उन्होंने पद्माक्षिणी की कृपा से उसके पेट पर हाथ फेरकर और समस्त शुभ अंगों में गंध्योदक लगाकर उसके गर्भ के छाल को भ्रूण में परिवर्तित कर दिया था। सो नियत समय पर उसके एक सुंदर-सा बच्चा हो गया। जिसके ऐवज में उसने इतना धन दान में दे दिया कि पद्मावती मंदिर का गुंबद बन गया और उस पर चांदी का कलश भी चढ़ गया।
गोया, मंदिर अब नीली कोठी का भाग नहीं रहा था। उसके लिये पृथक् से जीना चढ़ा दिया गया था। यह बात अलग कि एक भीतरी द्वार अब भी नीली कोठी के हॉल में खुलता है और सिद्धत्व को प्राप्त सेठानी उसकी स्थायी पुजारिन हैं।
इस बीच उन्होंने तमाम रहस्यों के बीच यह रहस्य भी उजागर कर दिया था कि अंजलि को जो ब्याहा है- वह लड़का माणिक चंद्र काला, एक कोटी यानी कोढ़ी है!
और अंजलि यह बात सुनकर चुपचाप रोने लगी थी, जैसे उसे तो पहली रात को ही पता चल गया था कि उसका हस्बैंड अपने गुप्तांग में सफेद दाग लिये उन्हें कीमती वस्त्रों के भीतर छुपाये हुए है।
किंतु सेठ को ये जानकर गहरा धक्का लगा था। और अब उसका आश्चर्य मिट गया था कि इतने बड़े धन्नासेठ ने उसका रिश्ता कबूल कैसे कर लिया! जबकि अंजलि के ससुर सेठ मदनलालजी काला का कारोबार दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। उनकी निवेश की अनूठी योजनाएँ संपत्ति सहारा-एक और संपत्ति सहारा-दो ने विदेशों में भी अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए थे। कालाग्रुप ऑफ कम्पनीज का कटरा में 5 स्टार होटल खुल गया था। दिल्ली से दसियों लक्जरी बसें भारत भर के पर्यटन स्थलों के लिए चल उठी थीं। और अब वे एअरलाइंस के क्षेत्र में भी कदम धरने वाले थे। फिर कौन कहाँ तक कहे-उनका कारोबार तो अब अरबों की परिधि तोड़कर असंख्यात मुद्रा में फैल जाने को था।
ऐसे में लड़के उर्फ़ नीली कोठी वाले सेठ के दामाद का कोढ़ी होना कोई खास माइने तो नहीं रखता। अंजलि के एक संतान हो ही चुकी थी। अब सुरक्षा उपायों को अपनाकर अपना काम चलाती रहे। .और अगर फिर भी कोई चाहना है तो परखनली शिशु की व्यवस्था भी हो गई है अब तो। बंबई सूटेबिल न हुआ तो लंदन का टिकट कटा देंगे। कौन-सा भारी फर्क पड़ेगा उन्हें। जिसके यहाँ माया फाँवड़ों टरे, तसलों ढुवे, तलघरों भरी फिरे उसे क्या गम! उसके लिए लंदन, न्यूयार्क तो भिंड, ग्वालियर की तरह रहा...।
इतिः। संतुष्ट थे सभी।
पर सेठानी अपना इल्म दिखाने का सुनहरा मौका जो पा गई थीं। फलतः उन्होंने दामाद को बुलाकर समझाया कि जब भगवान् पार्श्वनाथ किशोरावस्था में वाराणसी में गंगा तट पर घूम रहे थे तब उन्होंने उसी तट के निकट कुछ तापसों को लकड़ी जलाकर तप करते देखा। और अपने विदिप्त ज्ञान से जान लिया कि एक लकड़ी में सर्प-युगल है। उनकी बात की सत्यता जानने हेतु उन तपस्वियों ने उस लकड़ी को चीरा तो उसमें से वह सर्प-युगल निकल पड़ा। भगवान् ने उस मरणासन्न सर्प- युगल के कान में ‘णमोकार मंत्र’ पढ़ दिया। यह सर्प-युगल धरणेंद्र-पद्मावती थे।
कथा-प्रसंग के दौरान सेठानी की आँखें कौड़ी-सी चमक रही थीं। और वे अपनी थुलथुल गर्दन चटक-मटक करती हुईं गंगापुरसिटी निवासी करोड़पतिया बाप के बुद्धू बेटे माणिक चंद्र काला पर अपना ज्ञान बघारते हुए बता रही थीं कि यह तो संसार जानता है कि जब पार्श्व भगवान् के ऊपर कमठ ने उपसर्ग किया, वह उनका दशभव का बैरी था, उसने तपोनिष्ठ भगवान् के ऊपर आग के शोले बरसाये भयंकर आँधी और ओले बरसाये तब देवों का आसन डिग गया! और अपने परोपकारी पर उपसर्ग जानकर धरणेंद्र-पद्मावती भगवान् की भक्ति के लिए स्वर्ग से आ गये। और इसी बीच भगवान् को केवलज्ञान हो गया। सो माता पद्मावती का उद्गम स्थान भी अहिच्छत्र ही है।
वहाँ पर एक कुएँ के जल को पीने से अनेक रोग शांत हो जाते हैं। उत्तर मिधाना बावड़ी के जल में नहाने से कुष्ठ रोग दूर हो जाता है।...
फिर अचानक उन पर देवी पद्मावती की सवारी खेल उठी। वे पहले जोर-जोर से हिलीं, फिर डायन से हावभाव बनाकर चीख उठीं, ‘जो तू कुछ दान-धर्म करेगा वहाँ जाकर मंदिर आदि में धन लगावेगा, ज्यौनारें करायेगा-तो कोटी नहीं रहेगा
फिर कोटी नहीं रहेगाऽ’ सेठानी चीख रही थीं। उनकी वाणी हॉल भर में दहशत जगा रही थी। डर गये थे सभी। बेचारा माणिक तो सास के चरणों में ही गिरकर त्राहि-त्राहि कर उठा था। अंजलि की लड़की स्वीटी सहमकर रो पड़ी थी। मगर प्रीति इस नाटक को मुँह चिढ़ाती हुई अपने कमरे में जाकर बंद हो गई थी।...
दरअसल, प्रीति के लिए यह इतना ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं था। पर, जो मुख्य था-वही दुःखदायी था। मामाजी वहीं से असफल होकर लौट आए थे। और पूरी संभावना बन गई थी आनंद के दिगंबर मुनि बन जाने की। प्रीति को उनकी बुद्धि पर तरस आ रहा था। वह उनसे मिलकर उन्हें बहुत खरी-खोटी सुना डालना चाहती थी। किंतु ऐसा कोई अवसर हाथ नहीं आना था अभी। बहरहाल, उसने अपना गुस्सा आनंद को एक लंबा पत्र लिखकर इस तरह निकाल लिया-
आनंद!
आप इतने कूड़मगज निकलेंगे, यह बात मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी।...
बहुत से अंधें हैं जमीन पर जो अपने गुरुओं-भगवानों की मशालें लिये फिरते हैं, जिनमें न ज्योति है न ज्ञान! बस एक रूढ़ि है, क्योंकि उनमें का प्रकाश और ज्ञान तो सदियों का चुक गया, वे जब गिर पड़े, तभी। अब तो वे सिर्फ डंडे हैं-जिन्हें तुम सरीखे लिए फिरते हो और अंधेरा तो है ही, मशाल है नहीं, डंडे हैं, सो वे डंडे खटकते हैं आपस में। लड़ते-मरते हैं। वह ज्योति जो वे पैगंबर अपनी प्राण शक्ति से जलाये हुए थे, कब की बुझ गई? तुम्हें होश कब आयेगा? कब तुम इस वर्णाश्रम समाज को, धार्मिक समाज को-समता मूलक और ज्ञान केंद्रित, विज्ञान सम्मत बनाने की सोचोगे।... क्यों मर रहे हो अतीत की प्रेत छाया में, जियो आनंद! अपने युगबोध के साथ।...
मैंने महावीर की आध्यात्मिक हिस्ट्री पढ़ी है, और पाया है कि वे किसी गुरु की शरण में नहीं गये। किसी भगवान् की ओर नहीं देखा उन्होंने। किसी की कृपा और आशीर्वाद से सत्य और ज्ञान नहीं मिलता। भिक्षा में, दान में या चोरी से भी हम सत्य और ज्ञान को नहीं पा सकते। नहीं तो टाटा-बिड़ला और नटवरलाल कबके केवलज्ञान पा गये होते!
और फिर तुम किस ज्ञान के पीछे पड़े हो? होश में आओ जरा कि-जिस महावीर के पास लंगोटी भी न थी उसी के अनुयायी आज भारत में सर्वाधिक परिग्रही हैं! जिसका परीक्षण हो चुका है कि यह रास्ता औपचारिक रूप से संन्यास का और व्यवहारिक रूप से संसार का है, उसी अंतर्विरोध में त्रण खोज रहे हो क्या दुनिया के सभी धर्मों का यही हस्र नहीं हुआ है? हिटलर, नेपोलियन ईसाई न थे क्या! फिर क्यों यीशु के इन वंशजों ने सारी मानवता को क्षत-विक्षत कर डाला? कहाँ है तुम्हारे इस देश में रामराज्य, सहिष्णुता, जबकि हर कोई रामनामी ओढ़े है आज मर गये नबी के गुलाम अब तो भेड़िये बचे हैं सब तरफ।...
अब तुम्हीं कौन-से अनोखे साधु बनोगे? ऐसे-ऐसे लोग साधु बन चुके हैं जिन्होंने शरीर पर काँटों के पट्टे बाँधे। जूतों में उलटी कीलें ठुकवायीं। अपनी जननेंद्रियाँ काटीं। आँखें फोड़ीं। उन दिमागी दिवालियों से पूछो, मिला उन्हें कुछ? किस बड़े लालच की खातिर वे आजीवन इतनी कड़ी साधना की शूली पर टँगे रहे क्या इसीलिए समाज की इतनी संस्थाओं ने उनका निर्माण किया था? क्या इसी पलायन और नकारात्मक और एक हद तक ध्वंसात्मक उपयोग के लिये उन्हें मनुष्य जन्म मिला। यह बहुत गंभीर सवाल है, आनंद! इसे टालना अपने अस्तित्व से दुश्मनी जैसा है।
जिस रास्ते तुम गये हो, वहाँ तो बड़ा जबर्दस्त भटकाव हैकि तुम एक तरफ अहिंसा को पीछी से पालते हो, जीव दया को चींटियाँ चुगाकर, और लंगोटी छोड़कर परिग्रह दूसरी तरफ लंगोटियाँ छुड़वाने की भी बोलियाँ लगवाते हो क्यों?
एक वक्त आहार जल लोगे-दूध, मेवा, घी, जूस ताकि क्षरण न हो जाये देह का उसकी शक्ति जागती रहे। छोड़ दोगे पद-प्रतिष्ठा, घर-परिवार किंतु लोकैषणा को पालते रहोगे, है ना!
सच कहती हूँ आनंद, इतना गुस्सा आता है कि-मेरे हाथ की बात हो तो सारे मंदिरों की जगह संडास और पेशाबघर बनवा दूँ! ताकि सफाई बनी रह सके।
और सारे सोने को जिसमें जंग नहीं लगती और प्रतिष्ठा का मापक है- उन संडासों और पेशाबघरों में लगवा दूँ, सो स्वर्ण संचय से यथार्थ में मोह भंग हो जाये मनुष्य का। जूतों और चप्पलों के नये-नये मॉडल निकलवा दूँ और उनके नाम रख दूँ सारे विश्व के देवी-देवताओं पर। तब नशा उतरेगा तुम्हारा। सारे ढोंगियों का। कि जब जनता में तुम्हारा भगवान् दो कौड़ी का न रहेगा। जिसकी बदौलत तुम सब सिरमौर बने फिरते हो और अमरबेल होकर, परजीवी बनकर समाज का हरा-भरा वृक्ष सुखाये देते हो! चूसे डाल रहे हो उसे।...’’
फिर उसका आवेश आँसुओं में बहने लगा। कागज-कलम एक ओर छूट गई और वह निढाल होकर पड़ गई। आनंद अगर साधु न हुए होते तो प्रीति अपने प्रेम का अंकुर उखाड़ भी फेंकती, शायद! कि अब तो उस पर दोहरी मार पड़ रही है कि उसे तो धर्म के वर्तमान स्वरूप से सख्त घृणा है और मुसीबत यह कि उसका प्रेमी ही जैन साधु हो गया है! यानी करेला और नीम चढ़ा!
और रोती इसलिये है प्रीति-कि जब वह किसी को कुछ कह दे और वह ले नहीं, तो वह चीज रह गई न उसी के पास? यानी उसका आक्रोश, प्रेम और इनसे उपजी छटपटाहट ही उसे रुला देती है। हमेशा रुलाए रखती है।
लेकिन हर चीज के विपरीत विलोम भी बनते चलते हैं। जो जितना रोता है, उतना ही सख्त भी बनता जाता है धीरे-धीरे। एकदम मजबूत हो लेता है, कमजोर हृदय! प्रीति तो अब किसी हद तक निर्दय भी बन बैठी है! उसने पापा-मम्मी और सभी नजदीकी संबंधियों के अनुनय-विनय को सिरे से ठुकरा रखा है कि वह कुँवारापन उतारने के लिए न तो ब्याह करेगी, न आर्यिका दीक्षा लेगी। वह इस समाज में ऐसे ही रहेगी। घर में न रखो तो बाहर रह लेगी।
सेठ-सेठानी और सुधा से डरना कबका छोड़ दिया है उसने। समाज के दबाव ने बेचारे सेठ को दयनीय बनाया है कई बार। किंतु उसे पिता पर अब दया नहीं आती, क्योंकि वे पिता नहीं अब-उनका प्रेम, ममत्व, अपनत्व सब रिश्ते के मुताबिक परिभाषित हो गया है। वे समाज के एक गढ़े-गढ़ाये प्रतिनिधि हैं, जो घेर-घारकर प्रीति को समाज के खिड़क यानी काँजी हाउस में बेंड़ देना चाहते हैं। ताकि उस पर बंधन पड़ जाय। ताकि उसके पर कट जायें! ताकि वह नथ जाय और उसकी समूची शक्ति कोल्हू के बैल की तरह तेल और खल निकालने भर में लग जाये।
प्रीति सब जानती है।...
मनुष्य मात्र को सामाजिक इच्छा के तहत बेड़ियों में जकड़ने वाले, एक खालिस सामाजिक प्रतिनिधि पर क्या दया की जाये? क्यों अपनी स्वतंत्रता को अपहरित करने वाले स्वजनों को बख्शा जाये! क्या जरूरी है कि अधिनायकवादी रिश्तेदारों के हाथों कत्ल हुआ जाय?
और इस ज्ञान को उपलब्ध होकर जैसे उसके जीवन में क्रांति घटित हो गई है। अब लगता ही नहीं कि वो जन्मना जैन है! छन्नाधारी है। अहिंसा परमोधर्म का नाटक फैलाने वाले समाज का अभिन्न अंग है।
और यह क्रांति वैसे घटित नहीं होती, शायद! वैसे तो पिता की ललकार पर उसका पेशाब छूट जाया करता था। वैसे तो जाति-विरोधी कुछ भी करना ही अकल्पनीय था उसके तईं। वैसे तो वह दीन-हीन स्त्रीमात्र थी, गाय सदृश। जिसे चुपचाप पिता जिसके साथ डोर देता, चले जाना था। अपने धर्म की, जाति की पहचान को, कुल की श्रेष्ठता को बरकरार रखना था जिसे; अपनी कोख से तेजस्वी संतान जनकर। उसे जातिगत संस्कार देकर इस दुर्ग की रक्षा करनी थी। उसकी खाई और भी गहरी करनी थी। उसके बुर्ज और भी ऊँचे उठाने थे। उसका परकोटा और भी बढ़ाना था। किंतु इस प्रेम ने उसके भीतर सचमुच यह क्रांति घटित कर दी कि सारे के सारे नियम कानूनों की अनदेखी कर उन्हें तोड़ने पर उतारू हो आई थी वह। और जब आनंद को जैन साधु बनते जाना तो वह इस दुर्ग को गिराने पर ही आमादा हो आई है।
निरंतर चिंतन से, विचार से पच-पचकर उसे यह थ्यौरी हाथ लग गई है कि धर्म का लक्ष्य भी व्यक्ति को समस्त शुभाशुभ कर्मों के बंध से मुक्त कर मोक्ष देना है। वे बंध जो नवजात शिशु के साथ नहीं आते बल्कि उसके जीव को काया के पर्याय में भी समाज स्वीकृत दंपत्ति ही बाँधता है। फिर उस कर्म-बंध मुक्त मनुष्य को विविध संस्कारों के माध्यम से समाज ही तो शुभाशुभ कर्मों के मकड़़जाल में फँसाता है।
तब क्या, अपनी मुक्ति के लिये व्यक्ति को सारी सामाजिक बेड़ियाँ तोड़ नहीं देनी चाहिये? क्या कोई जन्मजात हिंसक, चोर, दुश्चरित्र और परिग्रही होता है, हो सकता है।...
यह सारा सामाजिक सिस्टम सड़ तो इसीलिए गया है, क्योंकि हमने उसके स्वस्फूर्त प्रवाह को बाधित कर दिया है। जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये, जैसे आत्महंता संस्कार की जड़ता दे दी है।
फिर वह सो जाती, तब भी सोते में भी ऐसे ही विचारों का अंधड़ चलता रहता उसके जहन में। हालाँकि वह कभी-कभी नॉर्मल भी होती और निरपेक्ष गति से सोचती कि धर्म की सचमुच दोहरी भूमिका है। वह समाज को बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है। बुरा धर्म नहीं है, उसकी रूढ़ियाँ बुरी हैं।...
यह देश हमेशा ही एक संधिकाल में जीता आया है। बेलगाड़ी-कोल्हू से लेकर रॉकेट-कंप्यूटर टेक्नोलॉजी तक के युग में एक साथ! सभ्यता की इतनी परतें एक समाज में होना असमानता का ज्वलंत उदाहरण नहीं है- क्या?
पानी को गर्म कीजिये-नॉर्मल टेम्परेचर और भाप बनने तक के टेम्परेचर में वह इतने खाँचों में बँटा न मिलेगा। उसका प्रत्येक अणु ताप की बदलाहट महसूस करेगा। उसी गति से सर्वांग रूप परिवर्तित होगा। पर इस धर्म ने क्या दिया मनुष्य को, इतनी घोर असमानता। यदि इस धार्मिक ताप के प्रभाव से मनुष्य समाज जड़ जल की तरह भी एक साथ भाप नहीं हो सकता, एक साथ ऊपर नहीं उठ सकता तो इसकी उपयोगिता संदिग्ध है कि नहीं? और तब यह धर्म यथास्थितवादियों के लिये एक घिनौना हथियार भर है कि नहीं!
उसका दिमाग गर्म हो जाता।
क्या वह दार्शनिक होने जा रही है।
नहीं, वह कुछ नहीं होने जा रही। बस इतना ही कि समाज का भय उसके जहन से दूर हो गया है। वे सारे यश-अपयश उसके लिये गौण हो गये हैं। प्रतिष्ठा के मानदंड छूँछे पड़ गये हैं-मानो। अक्सर सोचती है वह कि-क्या खुश हो लीजियेगा वो सामाजिक प्रतिष्ठा लेकर जो धन पर, दान पर, ज्यौनार पर टिकी है और क्यों रोइयेगा उस जाति द्वारा किये गये अपने अपमान पर जो अपनी ही जाति के उत्थान और अपनी ही जाति के घेरे में वैवाहिक संबंधों पर टिकी है। कि जो मनुष्य और मनुष्य के बीच दिन प्रतिदिन एक अंधी खाई के निर्माण में प्राणपण से जुटी है। मनुष्य को खंडित करने का जिसने अब कोई उपाय छोड़ा नहीं है। अपने सारे अपवित्र और मानव विरोधी कार्यों को जिसने सर्वथा धर्म के खोल में अंगुल-अंगुल ढक लिया है।...
उस समाज से, उस जाति से तो मुक्त होना ही पड़ेगा। उसके प्रतिनिधि भले वे माँ-बाप होते हों-और अज्ञानवश क्रोधातुर होते हों, षड्यंत्र रचते हों या गिड़गिड़ाते हों! उनकी अब एक नहीं सुनना है। उनकी कोई लोकलाज नहीं रखना है उसे। वह मुक्ति और बेड़ियों के इस अंतर को समझ गई है। वह दया की पात्र नहीं है। वह भयमुक्त और निस्संग है, आज!
और प्रीति रोती तो इसलिए है कि जिससे और ज्यादा मजबूत होती है वह।...
सुबह आनंद को वह पत्र पोस्ट कर दिया था उसने। मामाजी द्वारा एक पुर्जे पर लिखकर दिए गये पते पर: श्री 105 क्षुल्लक आनंदभूषण, द्वारा-श्री 108 मुनि सद्धाम सागर आश्रमजी, सोनागिरि (म.प्र.)।
(क्रमशः)