Namo Arihanta - 18 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 18

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नमो अरिहंता - भाग 18

(18)

***

पत्र आनंद ने फिर तह करके रख दिया। सो गये निश्चिंत भाव से। जैसे, कोई असर नहीं पड़ा। शब्द का जादू चल नहीं पाया। विचार को झटक दिया उन्होंने। विचार कभी क्रांति नहीं करता। उसका असर तो तात्कालिक है, दीर्घकालिक नहीं। कि वह क्षण में तो कहीं का कहीं पहुँचा देता है और ख्वाब में सब कुछ बदल-सा जाता है। कभी-कभी उस प्रेरित यथार्थ में भी आमूल-चूल परिवर्तन दीख पड़ता है। किंतु एक विशिष्ट चर्या न अपनाने से, विचार को हृदयंगम करके भी खुद को न बदल पाने से वह हवा का बुलबुला जरा भी टिक नहीं पाता। व्यवस्थाओं के आमूल-चूल परिवर्तन और फिर कुछ काल के बाद उसी अधोगति को प्राप्त हो जाने के मूल में सिर्फ उनका यह अस्थिर वैचारिक परिवर्तन ही है! क्योंकि विचार अमूर्त आदर्श है। उसे हम मूर्तिमान और यथार्थ नहीं बना सकते बगैर विशिष्ट चर्या के।...

उन्होंने लंबी साँस ली, गोया दृढ़ हुए.कि-

तभी तो महावीर ने चर्या पर जोर दिया। वे विचारक नहीं थे, श्रमण थे। श्रम से पक्की बुनियाद बनाना चाहते थे। हवाई फायर नहीं किये उन्होंने। उन्होंने जाना कि क्रांति संसार को छोड़ने में नहीं, मन को परिवर्तित करने में है। उनके तईं प्रश्न जीवन से उठे थे। वे प्रश्न कभी मरेंगे नहीं कि- मैं दुःख को क्यों नहीं चाहता? मेरी चाह आनंद के लिए क्यों है?

और मूल बात यह कि इस धरती पर जब भी, जिसने भी आनंद पाया है- उसने कहीं बाहर से नहीं अपने भीतर से ही पाया है। सो, किसी और का अनुगमन नहीं करना, अपनी आत्मा का अनुसरण करना होगा। किसी और की शरण में नहीं जाना, आत्मशरण बनना पड़ेगा। इस भौतिक क्रांतिकारी बिंदु को समझ लेना जरूरी है।

इसलिये विचार को झटक दिया आनंद ने। गोया, विचारक सत्य के संबंध में सोचता भर है, जबकि साधक जीता है सत्य को।

विचार का क्या मूल्य? वह तो पानी पर खींची गई लकीर भर है। चर्या फिर भी स्थायी है- पत्थर पर उकेरी गई लकीर की तरह दीर्घकालिक। अर्थात् सब कुछ करने से होगा, सोचने भर से नहीं। बदलाहट की ध्वनि भीतर से उठे तो होगी बदलाहट या बाहर-बाहर झाडू-पोंछा लगाकर एक विधि और तंत्र विकसित कर बदल लोगे सब कुछ?...

और फिर कुछ दिनों बाद आनंद को खयाल आया कि प्रीति की और मामाजी की बातें आरोपित-सी हैं, उनमें प्रेम कहाँ? वह तो अपने खेमे में मिला लेने का युद्ध-शास्त्र है! एक रणनीति है। वहाँ माँ सरीखी निरपेक्ष ममता नहीं है कि जो बच्चे के भ्रूण के स्वाभाविक विकास को चुपचाप निरखे। उसे स्वतः होने दे, जैसा होता है अपनी प्रकृति से। प्रयोग करके, कलम करके पुनर्रोपण न करे। अपनी ओर से कोई जोड़-घटाव न करे।

और आज तक यही कर करके तो समाज का स्वरूप इतना दोहरा, वीभत्स और आत्महंता कर दिया है। हर बात के गणित, पग-पग पर खाइयाँ- उधर नहीं जाओ, यहाँ नहीं बैठो, यह मत करो आदि-इत्यादि।

परिणामतः सारे जगत् में हिंसा और विनाश फैल गया। अंतर्विरोध की इन खाइयों को पाटने के निमित्त हमने युद्ध का अस्त्र खोज लिया। बड़े-बड़े महायुद्ध और विश्वयुद्ध होने लगे। जो हमारी तरफ नहीं है, उसे सुला दो। बस, यही उपाय रह गया। एक कृत्रिम आरोपण से, बिना भीतरी बदलाव से सबको समान बना दो! ऊपर से काट-छाँटकर, बस यही उपाय रह गया।

फिर वे मन ही मन प्रीति से कहते-

प्रीति यह सच है कि कुछ भी स्थिर नहीं है! जो आगे नहीं बढ़ रहा है, वह पीछे सरकता चला जायेगा। सारे शब्दकोश के अध्ययन के बाद मनुष्य ने यह अनुभव किया है कि रेस्ट, टिकाव, ठहराव, स्थिरता इस शब्द की वास्तविकता जगत् में कहीं भी नहीं है। पर उसका अर्थ तुम्हारी भी बाह्य प्रकृति से नहीं मिलता। बल्कि असलियत यह है कि जिस दिन यह मोक्ष की आकांक्षा विलीन हो गई, धूमिल पड़ गई, उसी दिन हम नाश को उपलब्ध हो जाएंगे। पशु की तरफ पीछे लौट आएँगे। मनुष्य देवत्व और पशुत्व के बीच खड़ा है! या तो इधर जायेगा या उधर।...

इसलिए- तुम जिसे प्रगति कहती हो, मान बैठी हो, क्या वही उत्कर्ष है? नहीं, वह उत्कर्ष नहीं है। पदार्थ के विश्लेषण से जो उपलब्ध हुआ वह विनाशक साबित हुआ! पदार्थ की समूची शक्ति अंधी है, प्रीति!

सब कुछ घट रहा है-

इक लड़ाई के सिवा!

तुम

धरती

यहाँ तक कि...

सूरज तक की उम्र!

सब कुछ बढ़ रहा है-

इक सौहार्द्र के सिवा!

भोग

प्रदूषण

यहाँ तक कि...

आदमी तक का जहर!

इसलिये,

तुम कुछ करो!

ताकि तुम्हारी

और इस धरती की,

अधबीच मौत न हो!

 

फिर उन्हें नींद नहीं आती।

मुनि सद्धाम सागर रात-रात भर बीमार कुत्ते की भाँति हीक फाड़कर रोते हैं। रोग ने उनकी देह को क्षत-विक्षत कर दिया है। रोग ने उनके मस्तिष्क को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अब न उनका अपनी टट्टी-पेशाब पर कंट्रोल है, न भूख-प्यास पर। अब न वे मौन पाल सकते हैं और न मुनियों के 28 मूल गुण।

सो, आज देह का सत्य आनंद के रू-ब-रू एकदम नंगा आ खड़ा हुआ है और वे फिर से एक नये सिरे से सोचने को मजबूर हो गये हैं कि जीव से देह है या देह से जीव का अस्तित्व है! मस्तिष्क निस्संदेह भूत तत्व से निर्मित है। मस्तिष्क देह रूपी यंत्र का परमाणु विद्युत संयत्र है।... लेकिन फिर क्या हो जाता है कि यह संयंत्र एकाएक एक दिन काम कर देना बंद कर देता है। सब कुछ तो यथावत् है। यंत्र भी, संयंत्र भी। फिर निकल क्या गया उसके भीतर से। वह ऐसा विकलांग कैसे हो गया?

इन जिज्ञासाओं का अंत नहीं है। इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। जो यह कहते हैं कि प्रकाश कहीं से आता-जाता नहीं, वह उपस्थित है सदैव और पदार्थ के अवस्था परिवर्तन से उत्पन्न और लुप्त होता है। वे यह नहीं कह सकते कि अंधकार की अवस्था में उसकी सत्ता है!

असंभव है, कोई भय को निकाल नहीं सकता। भय मृत्यु का है। अंतिम महान् भय के पीछे साक्षात् बैठी है मृत्यु! कि जीवन हमारे आसपास है ही नहीं। हम तो प्रतिक्षण मर रहे हैं। मृत्यु अनायास नहीं घटित हो जाती।...

और वे सद्धाम सागर की ओर देखकर उसांस छोड़ते कि इस मृत्यु में और अंधेरे में डूबता व्यक्ति अभय को कैसे उपलब्ध हो सकता है। क्या खूब आत्मसाधना न की होगी सद्धाम सागर ने, मेरुचंद जैन ने? कितने अड़ियल थे अपने दिगंबर पंथ को लेकर। एक सोनगढ़िया पंडित से इसी बात पर कसकर बहस हो गई।

तब वे दूध-डेयरी चलाते थे। सद-गृहस्थ थे। साधुओं के आहार के लिए श्रावकों को खालिस दूध-घी, मावा वाजिब दामों पर बेचते। एक बार सोनगढ़ियायी पंडित से भिड़ गये साधुओं की आलोचना पर। नूरा कुश्ती हो उठी। फल यह निकला कि हट्टे-कट्टे मेरुचंद से हारकर और खिसियाकर पंडित ने उन पर गोली चला दी!

पंडित कट्टा अपनी धोती की फेंट में छुपा कर रखता था। जब नौबत इज्जत-आबरू पर बन आई तो उसने फायर कर दिया। सीधा छाती पर वार। वह तो कहो कि मेरुचंद जैन को देवी पद्मावती का इष्ट था, सो उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने दायाँ हाथ आड़ा कर लिया छाती पर। गोली कलाई में फँसकर रह गई।

और फिर कुछ दिनों बाद वे गृहस्थी, धन-धाम, वस्त्र तजकर दिगंबर मुनि ही बन गये। तब उनके मात-पिता बनने की बोली पचपन हजार एक सौ एक पर जाकर टूटी थी। खूब धूम-धाम से उनकी बिनौली निकाली गई। पूरा दूल्हे का शृंगार किया गया। पीछी, कमंडल, शास्त्र देने वालों की बोली हजारों पर टूटी थी और आचार्य श्री 108 संवत सागर महाराजजी ने उन्हें निरग्रंथ कर असंख्यात भीड़ के मध्य मुनि दीक्षा दी थी।

फिर वे आचार्य श्री के संघ में 10-12 साल रहे। विहार पर विहार और चातुर्मास पर चातुर्मास किये। स्वाध्याय से, ज्ञान और सामायिक से आत्मज्ञान को उपलब्ध होते रहे। किंतु गुरु की समाधि उपरांत एक अन्य आचार्य सुमति सागर से संल्लेखना ले ली। उस वक्त शरीर चलता था, सो उन्होंने उत्कृष्ट समाधि- 12 साल की समय सीमा वाली हेतु संल्लेखना ली थी।

तब उन्हें खूब सिखा-पढ़ा दिया था गुरु ने कि पहले दो साल में एक, एक रस- दूध, घी, तेल, शक्कर, दही, नमक और अनाजों के त्याग का अभ्यास कीजो। जैसे, दो दिन छोड़ो, फिर गैप से 4 दिन, फिर 6 दिन... ऐसे ही अभ्यास बढ़ा लीजो! फिर दो साल के अभ्यास में एकाध रस का त्याग करके बीच-बीच में उपवास आदि करते रहना। फिर दो बरस तक नीरस भोजन- दूध, दही, घी, शक्कर, नमक, तेल आदि का त्याग करने का अभ्यास कीजो। उसके अगले दो साल तक एक-एक, दो-दो दिन के अंतर से उपवासों का अभ्यास बढ़ाना और इसके अगले दो सालों में पौष्टिक भोजन का बिल्कुल त्याग कर दीजो, जैसे- काजू, किशमिश, पिस्ता, बादाम आदि मेवाएँ छोड़ डालें।

बाद में एक साल तक एक-एक दिन छोड़ कर उपवास में बितावें और इसके अगले छह महीने तक अनाज भी छोड़ दें। केवल फलों के जूस और सब्जी वगैरह से काम चलाएँ। फिर अगले छह महीनों में जूस इत्यादि का भी क्रमवार त्याग कर लें और 36 दिन की समाधि में चले जायें। .इन दिनों में गाँव-नगर से बाहर न जावें। 10 दिन तक जूस, पानी, छाछ से काम चलाना, फिर दस दिन केवल पानी लेना। फिर आगामी दस दिनों के लिए पानी का भी त्याग कर देना और जो 5-7 दिन बचें उन्हें निराहार-निर्जल रहकर बिताना।

लेकिन संल्लेखना के पहले ही दो वर्ष में सद्धाम सागर डगमगा गये। .उन दिनों वे एक ब्रह्मचारी के साथ विहार पर थे। और विहार करते हुए ही जैन बद्री जाना चाहते थे। यह परम् अभिलाषा थी उनकी कि समाधि के पूर्व ही इस जीवन में एक बार जैन बद्री हो आयें! जो दिगंबर जैन साधुओं का ‘श्रमण’ है। कन्नड़ में बैल का अर्थ श्वेत और गोल का अर्थ तालाब होता है, सो इसे श्रवणबेलगोला भी कहते हैं। यहाँ का श्वेत सरोवर जैन साधुओं की तपोभूमि रही है।

श्रवणबेलगोला के चंद्रागिरि पर्वत पर भद्रबाहु गुफा में भगवान् भद्रबाहु के चरण विराजमान हैं। यहीं उनका समाधि मरण हुआ और सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य भी दिगंबर मुनि होकर यहीं रहे। उन्होंने भगवान् की वैयावृत्ति की थी। और न जाने कितने राजा-महाराजा, रानी-राजकुमार, बड़े-बड़े सेनापति, राजमंत्री यहाँ आकर धर्म-साधना करते रहे कि यहाँ लगभग 500 शिलालेख जैनों की गौरवगाथा का उल्लेख करते हैं! यहाँ चंद्रगुप्त की स्मृति में जिन मंदिर व चित्रवली बनी हुई है।

सो यह स्थान जैनों का अति प्राचीन व परम-पावन तीर्थ है। उत्तरवासियों के लिए तो यह जैन बद्री है। यहीं तो बाहुबली स्वामी की 57 फीट ऊँची अद्वितीय व अतिशय सम्पन्न विशाल प्रतिमा है। जो 15-16 किलोमीटर दूर से ही दर्शन दे उठती है!

बाहुबली थे- प्रथम कामदेव! उस मूर्ति की तो छाया भी नहीं पड़ती. उस पर पक्षी नहीं बैठ सकता। और प्रत्येक बारहवें वर्ष में भगवान् का विशेष अभिषेक महोत्सव सम्पन्न होता है। महामस्तकाभिषेक यानी- मूर्ति का पानी, दूध, दही, चंदन, नवरत्न आदि के 1008 कलशों से अभिषेक किया जाता है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री तक को यहाँ आना पड़ता है! महीनों पूर्व तैयारियाँ चल पड़ती हैं। मंदिरों में विशेष पूजा-पाठ और बाहुबली के चरणों की विधिवत् नित्य पूजा प्रथक से।

सो उस महामस्तकाभिषेक के पावन अवसर पर जाते हुए सद्धाम सागर ने वह चातुर्मास बीजापुर में काट लिया था। धुर दक्षिण में। मच्छी-चावल के भोजन वाले देश में। कैसे भी बचते-बचाते, शहर से 5 कि.मी. दूर मंदिर दरगा में, जहाँ पार्श्वनाथ की 5 फीट ऊँची प्रतिमा है, उसी में पड़े-पड़े। भूले-भटके जो श्रावक आते, उन्हीं में से कोई चौका लगा देता, एक-दो रोज। फिर एकाध दिन की छुट्टी। फिर भगवान् महावीर का निर्वाण दिवस होते ही वे नाक की सीध फिर चल पड़े थे। याद नहीं कितने-कितने गाँव-जंगल पार करते हुए कि अंततोगत्वा उनकी जर्जर काया शीत की चपेट में आ ही गई। कुछ ठंड का प्रकोप और कुछ निर्वस्त्र, नंगे सिर-पैर, पदयात्रा। दूर-देश अजैन बस्तियों में कभी मिल गया अन्न-जल तो कभी नहीं भी मिला। ब्रह्मचारी तो झेल गया जैसे- तैसे! पर सद्धाम सागर के शरीर का ज्वर 10-15 दिन की रस्साकसी के बाद मस्तिष्क पर चढ़ गया और वे ‘हासन’ पहुँचकर ‘घी-दूध, बाहुबली, कह दो, तुम कह दो भगवान् भैंच्चोऽ बाहुबली, घी-दूध-भैंस!’ आदि अंटशंट बक उठे।

ब्रह्मचारी बड़ा हैरान कि ये क्या हुआ? ये तो अच्छा है कि कन्नड़ भाषियों को हमारी बोली नहीं समझ पड़ती! नहीं तो अभी यहीं परदेस में जूते पड़ते! ढोंगी बाबा अर्र-जर्र बकता है... भगवान् को भैंच्चो-भैंच्चो कहता है!

और मुनि पड़े-पड़े टट्टी-पेशाब छोड़ देते। उसी में हाथ लथेड़ लेते। हत्तेरे की! ब्रह्मचारी का जी घिना उठता। सफाई की हिम्मत बटोरता, खोंखियाता-बड़बड़़ाता, तब तक वे अपने हाथ चेहरे पर पोत लेते। उँगलियाँ नाक में घुसेड़ उठते।

हो गई रामलीला! ब्रह्मचारी खिसिया जाता और भक-भकाकर उनके हाथ-पैर मरोड़कर रख देता।

वे गोंऽगोंऽ कर उठते।

कभी चीखते, ‘भगवान्ऽ तू जो असली बाप का होय तो मुझे अभी ले जाऽ!’

और कभी पड़े-पड़े उँगलियाँ गिनकर कह उठते, ‘एक, दो, तीन, साढ़े चार, दस... बस्स। बस्स। का?’ ब्रह्मचारी से पूछते।

‘दस साल और बचे तुम्हारे।’ वह कहता।

‘कितने?’ वे आँखें निकालकर पूछते।

‘दसऽ और कितनेऽ?’ वह चिल्ला पड़ता।

‘दस का? फिर का?’

'फिर जानो-तुम।’

‘ऐ-तुम कह देउ,’ वे बुरी तरह घिघियाते, ‘भगवान् बैरीऽ मैं कह जातो तो फिर क्या बात थी। पहले खूब कह जातो, तुमने नाश कराइ दओ मेरो...अब तो भैया बस्स’ और वे उलटे पड़कर सीना दोनों हाथों में चपेटकर बुरी तरह हुड़ककर रो पड़ते। रोते-रोते हिचकी बँध जाती।

बड़ा हैरान था ब्रह्मचारी। मामला परदेस का था। न हाथ में धन बचा था और न आसपास कोई श्रावक-श्राविका! और खाने को रोज चाहिये मुनि महाराज को! अब चौका कौन लगाए। फिर मरता क्या न करता! वह भीख माँग उठा। छोड़कर आते भी न बनता। जब तक समाधि-मरण न हो जाये! क्योंकि-मुनि, आचार्यजी से संल्लेखना लिये थे! वह क्या जवाब देता! ग्यारहवीं प्रतिमा में था। सब खंड-बंड हो जाता। मर जाता बेचारा! कहीं ठौर बचता उसको?

फिर अचानक भाग्य ने पलटा खाया और एक श्रावक की कार खंडहर में पड़े मुनि के पास आकर रुक गई! उसने उनकी हालत जानकर ब्रह्मचारी को डाँटा, ‘तुमने डॉक्टर को नहीं दिखाया इन्हें?’

‘हमारा डॉक्टर सोनागिरि में है। वहीं आचार्यजी ने संल्लेखना दिलाई थी मुनि महाराज को,’ उसने आग्रह किया, ‘आप मदद करियेगा.’ प्राण संकट में थे ब्रह्मचारी के। बात सेठ को समझ में आ गई। फिर थोड़ी-सी हिचक के साथ उसने अपनी गाड़ी की पिछली सीट दे दी उन्हें। और फैमिली आगे ठूँसकर सोनागिरि ले आया। इस तरह ब्रह्मचारी ने भी अपना दायित्व-धर्म निभाकर छुट्टी पायी! यहाँ से किसी दूसरे संघ में पड़कर वह विहार पर निकल गया है। तब से नहीं लौटा। पर मुनि सद्धाम सागर भगवान् चंद्रप्रभु की नगरी में आज दिन वैसे ही पड़े हैं। चली होगी दवा-फबा, आराम तो मिला नहीं उन्हें कुछ। अब तो शरीर कतई बोल गया है। डॉक्टर भी हार गया है। बीमारी ने प्राण नहीं लिए, साधना ले ली! आत्मकल्याण का साधन छीन लिया। यानी स्वास्थ्य पर निर्भर है साधना! शरीर हाथ में है, तो आत्म-चिंतन भी।...

सोचते हैं आनंद और नींद और दूर भाग जाती है।

कि-सब चिल्लाते हैं आत्मा-आत्मा! आत्मा कहाँ गई मेरुचंद जैन की। और गई तो इस देह को कौन जिलाये रक्खे है अभी तलक। कि अब वे अहिंसा को क्यों नहीं साधते। क्यों नहीं प्रासुक जल से शरीर शुद्धि कर लेते! क्यों नहीं रात्रि में मौन पाल लेते। क्यों पी लेते हैं रात में पानी? अंजुलि क्यों नहीं मारते? कहाँ गया सामायिक, स्वाध्याय, प्रवचन। कब उतरेंगे अपने भीतर, करेंगे आत्म-साक्षात्कार और केवलज्ञान को प्राप्त होंगे। ताकि छूट जाय परिग्रह, चौर्य, हिंसा और मिल जाय निर्वाण!

पर कैसे?

साधक देह तो नीरोग नहीं रही। अपने हाथ में नहीं रही। हो गई रोग के वश में। अब कौन करे आत्मसाधना? कैसे करे।

फिर उन्हें लगता-जब तक मृत्यु का प्रश्न खड़ा रहेगा, मनुष्य ईश्वर से, अलौकिक शक्ति से मुक्त हो नहीं सकेगा। कि वह हठपूर्वक अपनी कल्पना के अतिवाद में अनूठे स्वर्ग के सुख और रौरव नर्क के दुःख सृजता ही रहेगा। पूजा-पाखंड, कर्मकांड और मठ-मंदिर निर्माण से हाथ खींच न सकेगा कैसे भी। दौड़ता रहेगा तीर्थों में। काल्पनिक लोक में।...

और इस लोक में? बड़े ताज्जुब की बात है कि उसने पिछले दो महायुद्धों में दस करोड़ लोग पूरे इत्मीनान से मार डाले। और अब इस ग्रह की, जीवमात्र की मुक्ति के वास्ते हजारों बम बना डाले हैं!

सहसा खयाल आता है आनंद को कि-जब पढ़ते थे हायर सेकंडरी में तो भौतिक विज्ञान के किसी पाठ में ताप के बारे में पढ़ा करते थे कि एक सौ डिग्री सेंटीग्रेट पर पानी भाप हो जाता है। लोहे को अगर गर्म किया जाये तो पंद्रह सौ डिग्री पर पिघल जाता है और पच्चीस सौ पर भाप बनकर उड़ जाता है। जबकि एक हाइड्रोजन बम दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा करेगा! और लोगों ने हजारों हाइड्रोजन बम बना लिए हैं। उनमें जहरीली गैसें भर ली हैं! कोई बचेगा धरती पर?

यहाँ एक सद्धाम सागर की मौत से कितने विचलित हैं वे! कि उन्हें रात-रात भर नींद नहीं आती। उनकी हरेक कराह पर उनकी छाती में धक्का-सा लगता है। और उधर मनुष्य मात्र को मारने की आदमी ने पूरी तैयारी कर ली है।

ऐसी सदी को होश में कहेंगे? ऐसे मनुष्य को जाग्रत कहेंगे? अरे-विक्षिप्त है यह युग! अब ऊपरी उपचार-अहिंसा पर दिया गया प्रवचन, लेख इसकी विक्षिप्तता को नहीं तोड़ पाएगा, क्योंकि युग की यह विक्षिप्तता ऊपर से ओढ़ी हुई नहीं, उसके भीतर से उपजी है। मनुष्य यूँ ही हिंसक नहीं हुआ, उसकी जड़ों में, उसकी प्रकृति में पड़ा है यह बीज। उसकी प्यास, उसका सुख दूसरे की पीड़ा में निहित है।

अब ऐसे मनुष्य को छन्ना पकड़ा दीजिये, क्या होगा? ढाई हजार साल में क्या हो गया?

सो आनंद बहुत विचलित हैं। नींद नहीं आती उन्हें। सामायिक में कोऽहम् को मम धर्म का चिंतवन करते हुए और आत्मा को शून्य-निराकार कर उसमें अपने स्वरूप की प्रतिष्ठा करते, मन को उतारते गहरी दहशत होती है उन्हें! यकायक भड़भड़ा जाते हैं वे और सद्धाम सागर की छाती पर हाथ फेर उठते हैं।

(क्रमशः)