Namo Arihanta - 16 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 16

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नमो अरिहंता - भाग 16

(16)

मामाजी

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मामाजी को अपने स्वर्णिम अतीत का इल्म भली-भाँति है। तभी तो उन्हें रिस (गुस्सा) आती है आज के उन सरजूपारी और कनबजियों पर जो अपने ही ‘विश्वों’ में उलझ कर रह गये हैं। उस सनाड्य पर जो साढ़े सात सौ खाँचों में बँटा फिरता है। और उस समूचे ब्राह्मण समाज पर जो श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ के खेमों में बँटकर बिरादरी जुद्ध (युद्ध) में फँस गया है! भूल गया है अपने कर्मकांड को, अपनी देववाणी को।

अब हम कहें कि मामाजी की यह रिस (क्रोध) अकारण नहीं है। सो, यों कि अगर हेरिडिटी में मूल गुण आ जाते हैं तो मामाजी उस ब्राह्मण के वंशधर तो हैं ही, जिसने मनुष्य की विपत्तियों के ‘शमन’ के लिए अनेक प्रकार के यज्ञों की अभिसृष्टि की थी, जैसे- नरमेध, गोमेध, अश्वमेध आदि। और तब जिसके लिए कोई पदार्थ, कोई जीव अखाद्य न था, घोड़ा हो या गाय! सुरा और आमिष के होते आक् और वनस्पति किसे फीके नहीं लगेंगे! किंतु धर्म-प्राण होने के कारण वह जीव हत्या का समर्थन भी तो नहीं कर सकता था। .इसलिए उसने उन्हें यज्ञादि विधान में बाँधकर देवऋण से उऋण होने हेतु देवार्पित कर खाने का मार्ग खोज लिया था। तभी तो उसके वे सारे देवता हिंस्र और आमिषभोजी थे! विषपायी देव और रक्तपायी देवियाँ थीं! इंद्र सोम पीता था और गौमांस खाता था। वज्र धारण करता था। यम और वरुण भी अपने अपने पाश धारण करते थे।...

जबकि मामाजी कई बार मामीजी को बता चुके हैं कि उनके पुरखे अपने चरित्र के अत्यंत धनी थे! तब पिता की आज्ञा सर्वोपरि हुआ करती थी। एक बार परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि ने अपनी पत्नी रेणुका को जल भरने नदी पर भेजा। रेणुका ने वहाँ एक गन्धर्व-गंधर्वी को विहार करते देखने में देर लगा दी। इसी पर जमदग्नि क्रोधित हो गये कि उनकी पत्नी ने पर-पुरुष को विहार करते देखा! उन्होंने अपने सब पुत्रों से माता का वध करने को कहा। पुत्रों ने अस्वीकार कर दिया। किंतु परशुरामजी ने पिता की आज्ञा पर माता सहित सभी अवज्ञाकारी भाइयों को अपने प्रसिद्ध फरसे से काट डाला।...

और मामाजी इतना कहने के बाद ठोड़ी पकड़ कर सोचते कि जब सहस्रार्जुन के पुत्रों ने उनके पिता को मार डाला था तो कैसे परशुरामजी ने क्रोधित होकर इक्कीस बार पृथ्वी की परिक्रमा कर उसे क्षत्रियों से रहित कर दिया था। कुरुक्षेत्र में रक्त के नौ कुंड भर दिए थे। और ब्राह्मणों को पृथ्वी का राज्य देकर आप ‘महेंद्राचल’ पर तपस्या के लिए चले गये थे।...

किंतु देखो दुर्भाग्य. बाद में कैसा पराभव हुआ ब्राह्मणों का! त्रेता में लक्ष्मण और राम ने जनक की भरी सभा में कैसे-कैसे व्यंग्य और गूढ़-मरम वचनों से उनका घोर अपमान कर उन्हें पराजित कर वन जाने को मजबूर कर दिया।

मामाजी उलटी साँसें भरते हुए बुदबुदाते, यह सब ‘विश्वामित्र की करामात थी। क्षत्रियों ने सेंध लगानी शुरू कर दी थी! वे अब महर्षि और तपस्वी और शास्त्रकार बन उठे थे। फिर भी दयालु ब्राह्मणों ने नियोग की विधि चलाकर क्षत्रिय राज्यों को बार-बार डूबने से बचा लिया। रामायण और महाभारत के अधिकतर महापुरुष इसी से उत्पन्न हुए! ये तुम्हारे धृतराष्ट्र, पांडु, विदुर सब किसकी संताने हैं?’

तब मामाजी अक्सर बैठके में, रसोई में, आँगन में और कभी-कभी भीतर के कोठे में क्रिकेट अम्पायर की तरह उकडूँ बैठकर दत्तचित्त भाव से सोचते कि- फिर तो ब्राह्मणों के खिलाफ क्षत्रियों का विरोध बहुत ज्यादा बढ़ने लगा। उन्होंने कृष्ण को देवोत्तर स्थान दे दिया। उनके चरित्रों की गाथाएँ गायी जाने लगीं। इतिहास-पुराण बनने लगे। सुदामा और व्यास जैसे नये-नये शास्त्रकार खोज लिए गये। विष्णु के अवतारी अब क्षत्रिय होने लगे, जैसे-राम और कृष्ण! और क्षत्रिय का साहस इतना बढ़ा कि उसने संसार को जीवात्मा और खुद को परमात्मा निरूपित कर डाला। अन्य देवताओं की पूजा वर्जित कर दी।...

पर तब मामाजी के पुरखे भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने ‘धिग्बलं क्षत्रियबलं, ब्रह्मतेजोबलं बलम्’ का सबल नाद किया। अपने क्षत्रिय यजमान को सब प्रकार से निरस्त करने का प्रण लिया। किंतु कालांतर में वह मुसलमानों से हार गया! उन्होंने उसकी राजनीति, वर्णाश्रम-धर्म और मूर्तियों पर सर्वत्र प्रहार कर उसे क्षत-विक्षत कर डाला। फिर नया जन्म जिसका भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में हुआ भी तो शूद्रों को, अल्पसंख्यकों को तुष्ट करने के सिवा वह बेचारा कुछ और कर ही नहीं पाया। अपने विखंडन में ही कुत्ते की तरह एक कौर पाकर तुष्ट होने लगा है! उसके ये नये रूप पुरखों की परंपरा में दाग हैं-दाग! कि आज वह मंत्रियों, अफसरों, सेठों, संगठनों आदि के आमंत्रण पर यज्ञादि, अर्थात्-शिलान्यास, उद्घाटन वगैरा करता फिरता है और शास्त्री कहलाता है! पीठासीन होकर थैलियों के बदले प्रवचन आदि करता है और शंकराचार्य कहलाता है! नीच जाति तक के यहाँ ब्याह, जन्म और मृत्य संस्कार कराकर, भीख-सी माँगकर पुरोहित है! तो मृत्युपर्यंत मुर्दे को अपने ऊपर ढोने के बदले खटिया, बिस्तर और खाद्यान्न तक जबरन दान करा लेने वाला महाब्राह्मण! उसे सूर्य और चंद्र ग्रहण पड़ने पर उनके कष्ट निवारण हेतु उसारे गये खाद्यान्न, वस्त्र, द्रव्य आदि को भड्डरी होकर लेने में और विवाहादि उत्सवों पर वर-वधु पक्ष का यशोगान करके, उन पर चँवर आदि डुलाकर भाट बनकर न्यौछावर लेने में कोई गुरेज नहीं है।...

आज उसे अपनी जाति के गौरवशाली इतिहास का सर्वथा विस्मरण हो गया है तभी तो मामाजी ने आज के इस अवसरवादी दीन-हीन ब्राह्मण में अतीत के उस परमतेजोमय ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व जगाने की ठान रखी है! वे ‘धर्म’ से विमुख होती जा रही इस नयी पीढ़ी को सदमार्ग पर ले जाने के लिए ही इस बुढ़ापे में संस्कृत सीखकर पुराने ग्रंथ पढ़ने का कड़ा अभ्यास कर रहे हैं, सारे ब्राह्मण समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए ब्राह्मण-सभा का झंडा उठाए फिर रहे हैं।...

और इस आंदोलन को आधुनिकता से जोड़ने के लिए उन्होंने तमाम आधुनिक महापुरुषों के वाक्य युवा पीढ़ी के समक्ष उदाहरण स्वरूप रखने के वास्ते खूब अच्छी तरह रट लिये हैं-

‘थके हम हैं, हिंदू नहीं!’-गाँधी।

‘हिंदुत्व सनातन धर्म है, शाश्वत धर्म है जिसे मानवता के उद्धार के लिये असंख्य ऋषियों और अवतारों ने परिष्कृत किया है। धर्म के लिये और धर्म के द्वारा भारत अस्तित्ववान है।’-अरविंद।

‘मैं आपको साफ बता दूँ कि न्याय की चाहे किसी तुला पर तुलना की जाए, हिंदुओं को एक नैतिक समुदाय के रूप में विश्व में सभी धर्मों से ऊपर रखा जावेगा।’ -स्वामी विवेकानंद

‘अनेक धर्म और अनेक जातियाँ भारत में फल-फूल रही हैं, लेकिन यदि हिंदुत्व जो कि भारत के पालने की तरह रहा है, खत्म हो जाता है तो भारत भी खत्म हो जाएगा।’ -एनी बेसेंट

ये महज शब्द नहीं, धनुष की टंकार थे। इनकी झंकार से कौन झंकृत न होता! ये किसी भी हिंदू के मन में अपने धर्म की श्रेष्ठता की भावना जगाने के लिए बहुत मुफीद थे आखिर क्यों न होते! इन्हें हमारे राष्ट्रनायकों द्वारा मंत्रबद्ध किया गया था! तभी तो मामाजी ने श्लोकों की भाँति इन्हें अक्षरशः कंठस्थ कर लिया है। और धर्म की बिना पर जाति-एकीकरण का उनका कारोबार दिन-ब-दिन फलता-फूलता जा रहा है।

किंतु आजकल यही एक गड़बड़ हो गई है कि उनका अपना सगा भांजा ही ससुरा, जैनी हुआ जा रहा है।...

अरे! उसे साधू ही होना था तो आज तो कित्ता बढ़िया मौका था! अयोध्या जाता। जन्मभूमि को मुक्त कराने की जिम्मेदारी क्या उसकी नहीं थी? जग में नाम हो जाता! आज हिंदू जाग रहा है- और वो मूर्ख लौट-लौट के पीछे की ओर भाग रहा है।

अब जैन को बढ़ाओ, सिख, शूद्र को बढ़ाओ अरे-पहले ही क्या हिंदू कुछ कम बँटा हुआ है! ये दुनियाभर के मुसलमान और ईसाई हिंदू नहीं तो और क्या थे? बाबर कितने सिपाही लेकर आया था। और अंग्रेज कितने ईसाई छोड़ गये थे यहाँ?

हिंदू की शक्ति को विखंडित करने का षड्यंत्र आज कोई नया थोड़े है! जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था-संस्कृत भाषा और वर्ण व्यवस्था पर खड़ी थी, उसे तो पहले ही पार्श्व ने, महावीर ने, बुद्ध ने अपने सबल आघात् द्वारा तहस-नहस कर दिया था। ये सब क्षत्रिय थे और इन्होंने ब्राह्मण को ध्वस्त करने का यह नया तरीका निकाल लिया था। इनके इन नवीन पैगंबरों ने तीनों वर्णों पर आक्रमण कर मनुष्य की प्राकृतिक समानता घोषित कर दी। उन्होंने साजिशन जनभाषा में ही अपने उपदेश दिए-तभी तो संस्कृत की क्षति हुई।...

फलतः ब्राह्मण और क्षत्रिय की इस आपसी फूट से शूद्र उभरे, क्योंकि- ब्राह्मण ने क्षत्रिय के हमले से निबटने के लिये शूद्र के साथ सत्ता में साझा किया था।

और यों देश को कमजोर तो होना ही था, सो हुआ। तभी तो यवन आक्रमणकारियों ने उसकी रीढ़ ही तोड़़कर रख दी।

वैसे मामाजी इतनी ढेर सारी बातें बहुत कम सोचते हैं। वे तो करके दिखाने में विश्वास रखते हैं, फालतू की अफलातूनी में नहीं। किंतु जब से प्रीति ने बताया है कि आनंद सोनागिरि में हैं! मामाजी का चैन छिन गया है और वे अक्सर उघारे बदन चूतड़ों के बल बैठे रहते हैं, दोनों घुटने पेट में दिए और बाँहों की कुंडली में उन्हें लपेटे हुए कि कहाँ तो वे सारी दुनिया को सुधारने चले थे। गर्व से कहो, मैं ब्राह्मण हूँ! का नारा बुलंद करने।... सोयी हुई जाति को उसका स्वर्णिम अतीत याद दिलाने। सारे ब्राह्मण समाज को एक मंच पर ले आने एक एलाइंस बनाने। किसी के खिलाफ नहीं, जागरण के लिए! और कहाँ उनके अपने ही घर में कुल-कुठार निकल पड़े। ये तो वही हुआ कि- दिया तले अंधेरा। कि नाइन जग के पाँव धोए! और अपनों पे धरे फिरे दलिद्दर दुनियाभर का।

‘मान्स हाल कहेगो, पहले अपनो तो न्याय निबेर लेओ! सोई तो कही, खास भनेजा जैनिया भओ फिरत है!’ वे निरीहता से मामीजी की ओर देखते, जो कोई-न-कोई गृहस्थी का काम हाथ में लिये, बिना ब्लाउज की धोती पहने, आँखों पर चश्मा चढ़ाए कुछ इसी पसोपेश में देखतीं उनकी तरफ।...

औैर दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़कर फिर मुँह घुमा लेते अपना-अपना। अपने बिना काम के काम में उलझ जाते।...

जैसे तीन साल पहले जो गुड़ खरीदा था, वह अब हलुआ-सा हो गया है। धूप दिखाने पर भी पसीज जाता है. और ढीला हो जाता है! अब उस को इस घड़े से उसमें और इस ठौर से उस ठौर यहाँ नमी कम है, यहाँ ठीक रहेगा. धरने में उलझे रहते हैं बेचारे!

फिर हुआ यह कि कुछ दिनों बाद प्रीति फिर आई और इस बार उसने आनंद को लिवा लाने हेतु मामाजी का आह्नान ही कर डाला। यही नहीं, उसने एक पत्र भी मामाजी को दे दिया और बेझिझक कह दिया कि- ‘इसे उन तक पहुँचाना अब आपकी जिम्मेदारी!’

पत्र में क्या लिखा है- मामाजी की हिम्मत न हुई खोलकर देखने की। पर सोनागिरि जाने की हिम्मत जरूर हो गई। मगर वे पहले लश्कर गये और सारा वृत्तांत बहन को कह सुनाया। वे बहुत घबड़ायीं और रोने लगीं कि- ‘हम भी साथ चलेंगी।’ विधवा तो हो ही गई थीं, सो बात-बात पर आँसू भर लेतीं। पर मामाजी ने समझाया कि तुम इस तरह एकाएकी न चलो। मान लो, वहाँ न हुए! या नंगा बाबा ही बन गये हों या कुछ और बात!

‘पहले हमें जाकर खबर-बात ले आन दो, फिर देखी जायेगी।...’

(क्रमशः)