Namo Arihanta - 15 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 15

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नमो अरिहंता - भाग 15

(15)

हमला

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मूलनायक प्रतिमा के अर्घ्य के लिए अव्वल तो एक स्थायी फंड था जो बनाया था-

राजस्थान के सीकर, नागौर, जयपुर और अजमेर के धन्ना सेठों ने। उत्तरप्रदेश के आगरा, झाँसी, कानपुर और सहारनपुर के धन्ना सेठों ने। मध्यप्रदेश के मंडी बामोरा, दमोह, छतरपुर और इंदौर के धन्ना सेठों ने। और आसाम के डिब्रूगढ़ और पंजाब के रोहतक के धन्नासेठों ने। और फुटकर स्रोत-सिद्ध क्षेत्र संरक्षिणी कमेटी की दिल्ली वाली धर्मशाला, जिसमें ठहरने वाले मोटे सेठ पहाड़ की यात्रा करने से पहले ही हैसियत दर्शाने, बाखुशी मूलनायक प्रतिमा के अर्घ्य के लिए बुक हो जाते।

इस प्रकार बहुत ‘रिच’ थी यह मूलनायक प्रतिमा! इसके जलवों के तो कहने ही क्या! पर इधर तलहटी में भी न तो मंदिरों की कमी थी, न धर्मशालाओं की। यह कि जितने मंदिर थे, उतनी ही धर्मशालाएँ भी। या फिर यूँ कह सकते हैं कि जितनी धर्मशालाएँ थीं, उतने ही मंदिर भी थे! इनकी बाढ़ इसलिए भी आ गई थी सोनागिरि में कि देश भर के स्थानीय जैन समाजों ने अपने-अपने यात्रियों की सुविधा हेतु इन्हें होड़ा-होड़ी खड़ा किया था। और इन धर्मशालाओं के मेंटीनेंस और संचालन हेतु मंदिर अपरिहार्य था। सो, प्रत्येक धर्मशाला में एक अनिवार्य मंदिर निर्माण का रिवाज चल पड़ा था! अब इनमें पधराने के लिए बेचारे श्रद्धालु भिन्न-भिन्न देवों की मूर्तियाँ कहाँ से लाते? 33 करोड़ देवता तो थे नहीं उनके ! कुल जमा चौबीस! सो उसी चौबीसी को दुहराते रहे। पर इसके सहारे धर्मशाला की मरम्मत का, व्यवस्था का, जीर्णोंद्धार का, कलश की धातुएँ बदलने का, चोटियाँ बढ़ाने का, नये-नये गुंबद बनाने आदि का काम बड़ी सहजता से चल रहा था।

पहाड़ से उतरकर तलहटी में अब आनंद मंदिर-मंदिर घूम रहे थे। मूर्तियों पर मूर्तियों के दर्शन किये जा रहे थे। गोया अंततः प्रतिमा से ही प्रतिभा जगानी थी उन्हें! मन को परमात्मा के चिंतन से और मुख को णमोकार स्तुति से शुद्ध करना था। सो अब मंजन करना ही नहीं छोड़ दिया बल्कि रात्रि भुक्ति का भी त्यागकर बैठे थे। चूँकि रात्रि अंधकार पूर्ण है और रात्रि में खाकर जीवन को अंधकार मय नहीं बनाना था उन्हें! और यह भी कि सूर्य के प्रकाश में ही कमल की भाँति भोजन की थैली सक्रिय होती है।

अब वे धीरे-धीरे स्नान भी छोड़ देंगे!

क्योंकि- शुद्धि चिंतन से होती है।...

जैन परंपरा में तो देव दर्शन के संस्कार जन्म के 45 दिन बाद से ही डाल दिए जाते हैं। पर अभागे आनंद का भाग्योदय तो अब हो रहा था। सो अब जाकर उन्हें पता चल रहा था मूर्ति और मूर्तिमान में जड़-चेतन का भेद!

कि इन दिनों एक उपदेश उन्होंने अच्छी तरह रट लिया था-‘दर्शनेन जिनेंद्राणां साधुनां वंदनेन च। न चिरं तिष्ठते पापं छिद्रहस्ते यथोकदम।।’

और उन्हें पक्का यकीन हो गया था कि- ‘ये जिनेंद्र न पश्यन्ति पूज्यन्ति स्तुवन्ति न, निष्फलं जीवनं तेषां तेषाधिकं च गृहाश्रमम्।’ यानी, जब दर्शन, पूजन, स्तुति विमुख गृहस्थ को धिक्कार है तो यती धारणा आनंद का भला कैसे होगा!

और उन्हें लगता कि परमात्मा की वाणी अगर श्रव्यकाव्य है तो उसकी मूर्ति अवश्य दृश्यकाव्य है!

उनका जीव जैनत्व के संस्कार ग्रहण करता जा रहा था। वे तीनों लक्षण-‘धेयं सदा जिनदेव-दर्शनं, पेयं सुपाथः पटगालितं सदा, हेयं निशाया खलु भो जनहृदा, एतानि चिंतानि भवन्ति श्राविके !’ आनंद में पुरजोर दृष्टिगोचर हो उठे थे।...

अब होता यह कि आनंद जिस मंदिर में जाते दर्शनार्थ, उसी में जम जाते। वहीं पर चौका लगाने वाली बाई साधु को भोजन दान के बाद उन्हें भी ब्रह्मचारी समझकर आहार दान कर देती। बस, उनकी दिनचर्या पूरी! एक टाइम खाने के तो जनम से आदी थे वे। तिस पर अब तो न स्नान करते और न उन्हें कपड़े बदलने की जरूरत महसूस होती। कपड़े थे भी नहीं। उनके शरीर पर अब जो था, वह एक बंडी और धोती थी। हाँ! बालों में खुजली-सी जरूर मचने लगी थी। सो खुजलाते-खुजलाते दाढ़ी और सिर के बाल वे नियमित नोंच रहे थे, गोया ‘केशलोंच’ भी अब सीखना था उन्हें। इस तरह वे कहीं-कहीं से गंजे नजर आने लगे थे।

बहरहाल, जहाँ उन्हें भोजन मिल जाता, वहीं विश्राम कर लेते। और उसी पुस्तकालय से एकाध पुस्तक निकलवाकर स्वाध्याय भी।

तब आगम में एक बार उन्होंने यह कथा पढ़ी-कि वनमाला ने मन-ही-मन लक्ष्मण से विवाह करने का संकल्प ले लिया था। लेकिन, जब राम-लक्ष्मण अचानक वनवास पर चले गये तो वह बड़ी दुःखित हुई और उसने भी संन्यास लेना चाहा। मगर पिता के समझाने पर कि हो सकता है- वे यहाँ से, हमारे पुर से गुजरें, तब तुम अपनी मनोकामना उनके समक्ष रखना।

इस प्रकार पिता की बात मान कर वनमाला ने उनके आगमन की प्रतीक्षा की।

पर वे उस डगर से गुजरते ही नहीं!

हताश होकर वनमाला एक दिन जंगल में गई। वहाँ रात्रि में उसने एक पेड़ से रस्सी बाँध दी और उसका फंदा अपने गले में डालकर करुण स्वर में क्रंदन करने लगी-‘हे वृक्षो, हे लताओ, हे सरिताओ, हे पृथ्वी, हे वन्य पशुगण! तुम साक्षी हो, मैं लक्ष्मण के विरह में अपने प्राण होमती हूँ। बस, इतना उपकार करना कि मेरे प्रिय लक्ष्मण इधर से गुजरते तो उन्हें मेरी दारुण मृत्यु का समाचार दे देना। कह देना कि वनमाला ने आपके विरह में अपने प्राण तज दिए हैं।’

और वनमाला यह करुण क्रंदन कर रही थी तो संयोग देखिये, लक्ष्मण उसी वन में ‘शयनस्थ’ राम-सीता का पहरा दे रहे थे। जब उन्होंने यह करुण क्रंदन सुना तो दौड़ पड़े कि यह कौन उनके नाम को लेकर अपघात करने जा रहा है!

देखते क्या हैं-वनमाला फाँसी चढ़ने जा रही है।...

वे उसे समझा-बुझाकर अपने बड़े भाई राम के पास ले आते हैं।...

राम कहते हैं-मेरे साथ तो सीता है, तुम लक्ष्मण से विवाह कर लो।...

पर लक्ष्मण राम की स्वीकृति पर भी तैयार न हुए कि सेवा में खलल पड़ेगा। इसलिए उन्होंने वनमाला को वनवास के उपरांत ब्याह करने को कहा।

पर उसे भरोसा नहीं था। उसे लग रहा था कि वे पलट जायेंगे। 14 वर्ष किसने देखे! और उसने उन्हें वचनबद्ध करना चाहा! तब लक्ष्मण ने कहा, ‘उलूक काक मार्जारः गृद्ध सांभर सूकराः अहि वृश्चिक गोधाया, जायते निशिभोजनात्।’ अर्थात्-रात में भोजन करने वाला तीव्र ताप के कारण मर कर अगले जन्म में उल्लू, कौवा, बिल्ली, गिद्ध, सांभर, सूअर, सर्प, बिच्छू, चील एवं चमगादड़ आदि निंद्य पर्याय को पाता है- दुःख उठाता है, मल खाता है, मार खाता है, तरह-तरह के कष्टों को झेलता है

वचन तोड़ूँ तो यही दशा मेरी भी हो!

बस, तबसे तो आनंद ने अपना कान खींचकर ही पकड़ लिया कि अब तो रात में भोजन को कभी जीते-जी हाथ नहीं लगायेंगे वे! चाहे इधर के ब्रह्मा उधर हो जायें! और दिन में स्यात् न मिले! तो न मिले।

बल्कि रात को मौन व्रत भी पालने लगे थे वे! बहुत जरूरी हो जाता, तभी एकाध लफ्ज बोलते, नहीं तो वशभर मुँह न खोलते अपना। सूक्ष्म जीव साँस में समा सकते थे! हिंसा का खतरा था। नाक में तो बाल हैं छलनी-सी बनी है। छन कर जाता है श्वास।

यों बोलने के लिए मजबूर करने वाला भी कोई न था।

धीरे-धीरे उनकी बड़बड़ बाई से कुछ पहचान जरूर हो गई थी।

यह बड़बड़ बाई झाँसी वाली धर्मशाला-अर्थात् मंदिर नंबर 8 में रहती थी, जिसमें पार्श्वनाथ की मूलनायक प्रतिमा है! यहाँ बड़बड़ बाई निरंतर 38 साल से मुनि पारस सागर का चौका लगाती आ रही है। पारस सागर ने इस धर्मशाला में अपना स्थायी डेरा डाल रखा है। न वे नेम लेकर आहार के लिए निकलते हैं और न विहार पर जाते हैं कहीं! कहीं से चातुर्मास के निमंत्रण भी उन्हें कभी नहीं मिले। न उन्होंने अपना कोई संघ बनाया, न किसी संघ में गये। पूरा भिक्षु आश्रम काट लिया यहीं झाँसी वाली धर्मशाला में। खैर! अब तो उनकी उम्र ही पक गई। अब तो संल्लेखना का वक्त है। अब कोई क्या कहेगा उन्हें विहार-भ्रमण पर जाने के लिए। वन-गमन के लिए! अब तो वर्ष-दो-वर्ष बाद आचार्य श्री संल्लेखना दिलायेंगे, बस! अब तो उन्हें आँखों से भी ज्यादा नहीं टिपता!

पर लड़ने के लिए खूब पैने धरे हैं! मुनि क्या, पूरे दादा हैं! झाँसी वाली धर्मशाला में सब कौंधते हैं उनसे। कि एक तो मुनि-ऊपर से धरे हैं मरी बछिया! इसलिए सब टाल जाते हैं कि पड़े हो, पड़े रहो। बकते-झकते हो, बकते-झकते रहो।

और यही हाल बड़बड़ बाई का है। वह भी नहीं जाती ठौर छोड़कर। कि एक तो वह चली जाये तो चौका कौन लगाये पारस सागर महाराज का! और जाये तो जाये कहाँ? फिर खाये क्या भीख माँगे? जो था, सब जवानी में ही भगवान् को भेंट कर बैठी। तभी से एकादश निलया पाल कर पड़ी है यहाँ।...

कहने वाले कहते हैं-‘वह प्रतिमाएँ पाल नहीं पाई!’ मुँह ऐंठते हैं-‘हुँ! प्रतिमा-पालक चौका लगाते हैं क्या?’ पर ये अत्तोले-पत्तोले (प्रतिक्रियाएँ) उसके ठेंगे पर। उसे नहीं परवाह! इसीलिये तो बड़बड़ करना पड़ती है कि कोई हिमाकत न करे ठौर छुड़ाने की, मुँह का कौर छीनने की! अब इस उम्र में और कहाँ जायेगी वह! कोई कुत्ता भी मरते वक्त ठौर छोड़ता है अपना? चाहे सड़ जाये-खाज पड़ जाये, कीड़े पड़ जायें, कौद पड़ जायें। चाहे डंडा मारो, चाहे ईंट! वूंऽऽवूं करता दुम लटकाए वहीं सड़ता रहेगा। सो, साल-दो-साल में मर लेगी डोकरी। वैसे भी दोनों आँखों का ऑपरेशन हो चुका है। अब धरा ही क्या है उसकी कंचन काया में। बस, इसी चक्कर में उसका नाम ही बड़बड़ बाई हो गया है! कि जब-तब मुनि महाराज पर भी बड़बड़ा उठती है वह। चूँकि उसकी आदत जो ठहरी! खाना है तो आओ और सुनो, नहीं तो छुट्टी पाओे।...

पर आनंद को स्नेह करती है बड़बड़ बाई! उसने कह रखा है, रोज यहीं आ जाया करो आहार के लिए। बरैया समाज पे क्या कमी है? उन्हीं की है जे धरमसाला! तीरथ है! और काहे के लिए बनाये गये हैं पुन्न-धरम! पर एक बात मान लो अब से, तुम जौ (यह) पानी अनछनो न पियो करो दिन हू में। हम से कह दो, हम छान के धर दे हैं। नल से पीने की का जरूरत है?’

सुन कर आनंद उस दालान में बैठे रह गये जिसके कोने वाली कोठरी में वर्षों से रह रही है बड़बड़ बाई। वे देखते हैं कि वो अब कुएँ से नहीं लाती पानी! धर्मशाला के वाटरकूलर से भर लेती है। पर खूब मोटे कपड़े से छान कर। फिर स्टोव पर दाल, सब्जी, भात, रोटी आदि पका लेती है सुबह नौ-दस बजे तक। पटा डाल देती है दालान में। बूढ़े मुनि आकर आदतन पीछी से झाड़ लेते हैं पटा और बैठ जाते हैं, अंजुलि मार कर। खड़े होकर आहार अब नहीं लेते वे! जानते हैं, बैठकर खाने से खाना गले तक भर जायेगा। दिन में एक बार ही तो खाना है! सो, पानी भी आखिरी में पीते हैं। पूरा खाने के बाद।बाई अंजुलि में दाल-रोटी डालती जाती है। भात हुआ तो बाद में खिलाती है दाल के साथ या कभी दूध मिल जाता है तो उससे।...

मुनि खाने के बाद वहीं बैठे रहते हैं आँखें झपकाते हुए। बाई खुद भी खा उठती है उन्हीं के आगे!

अब जब से आनंद आने लगे, उन्हें भी देने लगी है अपने साथ।

सो, एक दिन ऐसे ही जिक्र छिड़ गया था पानी की शुद्धता का.।

मुनि पुराने दिनों की प्रवचन प्रियता का स्मरण कर मुस्कराते से बोले, ‘जल के अंदर हजारों त्रसजीव विद्यमान हैं, सो अनछने जल के सेवन से जीवहत्या होकर अशुभ कर्म का बंध होता है। इसलिये हमेशा मोटा कपड़ा साथ रखें, श्वास और जल-शुद्धि के लिए। देखो, धर्म के पालन में शर्म करने वालों को कभी शिव धर्म की प्राप्ति नहीं होती।

और रोग भी हो जाते हैं!’

उन्हें हलका-सा अपानवायु विसर्जन महसूस हुआ, आनंद ने चेहरे की भंगिमा से जाना। मुनि पहलू बदलकर बोले, ‘खाने में मकड़ी आने से कोढ़, मक्खी से उलटी, जुँए से जलोदर हो जाता है। बिच्छू आ जाय भोजन में तो तालू और बाल आ जाय तो स्वर-तंत्र खराब हो जाता है। चींटी चली जाये तो बुद्धि विकृत हो जाती है।’

फिर विनोदपूर्वक बोले, ‘और नागराज आ जायें भोजन में तो कहना ही क्या, प्राणनाथ ही उड़ जायें!’

इस पर आनंद किंचित् मुस्कराये। किंतु यह सीख भी घुट्टी में ले ली, कि अब बगैर छना पानी भी नहीं पियेंगे! वैसे भी कोई ज्यादा प्यास नहीं लगती उन्हें। जैसी आदत डालो, वैसी पड़ जाती है। जो कम पीते हैं, क्या उनके गुर्दे साफ नहीं होते?

तब होते-होते एक दिन उनकी भेंट अवस्थीजी से हो गई। अवस्थीजी सुनावल के आध्यात्मिक जीव थे। पहले मास्टर रहे, अब रिटायर्ड हैं। और सारे ग्रंथ छान मारे हैं उन्होंने।

आदतन आनंद ज्यादा तर्क न करते थे। जो कहता, जैसा कहता, सुन लेते।

मानना न मानना उनके अख्तियार में था इसलिए! पर उस दिन तो धोखे से ही उनके मुँह से निकल गया था कि- ‘बड़ी माताजी बहुत ओजस्वी हैं।’

इतना सुनना था कि अवस्थीजी की देह में मानो आग लग गई। वे यूँ भी आनंद का परिचय प्राप्त कर उन पर खोंखियाये से बैठे थे कि तुम्हें काशी-बनारस-प्रयाग-

अयोध्या-हरिद्वार नहीं मिला कटने के लिए जो बामन होकर यहाँ बनियों के धाम में ईमान बिगाड़ने चले आये।...

और ऊपर से उनके मुँह से यह निकल जाना कि बड़ी माताजी.।

‘तुमने देखा क्या है बड़ी माताजी का?’ एकदम बौखला गये थे अवस्थी।

सहम गये आनंद। उनके मुँह से तो बोल भी न फूटा। पर अवस्थीजी का रिकार्ड चालू हो गया था-

‘जौ (यह) अपने गुरु कल्याणसागर के साथ बरसों रही है। अब वे मर गये तो अपना अलग संघ बना लिया। फिरती है, यों ही! क्या आता है उसे-हमसे कराओगे शास्त्रार्थ?’

उनके आवेश में फड़कते अंग-प्रत्यंग को स्टडी बतौर देखा आनंद ने। सिर पर के छोटे-छोटे सफेद बाल तक खड़े हो गये थे, गोया। क्लीन शेव्ड चेहरा ऐसा तमतमाया हुआ था मानो एक मोज्जिज बूढ़े की कुँवारी बेटी को किसी शोहदे ने छेड़ दिया हो! कि वे संस्कृत वांग्मय के गंभीर अध्येता, वेदांत पर गहरी पकड़ रखने वाले बड़े घिनौने ढंग से कुछ यूँ बके जा रहे थे-

‘सवाईमाधोपुर के एक बानिया ने अपनी मौड़ी ब्रह्मचारिणी बनवा दई (आँख दबा कर); जो बानिया ज्वान मौड़ियों का ब्याह नहीं कर पात वे जौई (यही) गैल निकार लेत हैं!

चमत्कारजी में उन दिनों कल्पमति सम्मत सागर का बड़ा हल्ला था। सो उसने दीक्षा देकर इसे अपने साथ रख लिया। खूब गोरी-चिट्टी, भरी देह की ज्वानमुंस हतीं तब जे’ वे जोर देकर बोले-

‘कल्पमति सागर का संघ सोनागिरि में आया था, हमने देखी-जब से जौ आईं, कल्पमति के संघ पे भीरें टूटने लगीं!

सो, मुनी ने झंई एक दिन पहाड़िया पे (घृणित इशारा किया अवस्थी ने, आनंद ने आँखें मूँद लीं। मन जुगुप्सा से भर गया। पर उनसे आसानी से पीछा नहीं छुड़ा पाए। कल्पना में काम-क्रीड़ा का रस लेते हुए बोल रहे थे अवस्थी!) आँखन में अँसुआ आ गये बिचारी के । बोली, ‘तुम्हें जौई कन्ने तो-तौ हमाई जिंदगी काहे मट्टी करी.?’

बाखनै कल्पमति सागर पे पैसा की कमी तो हती नईं। अपंए रिस्तेदान्न खों लखपती बना दओ तो वाने। सो, जाको नाम तब सुनीता हतो! मुनी ने एक सेठिया से कह के जमीन लिव्बा दई। ई के नाम करके सुनीता बाग बनावा दओ। सेंबरी की गैल में परत है, देख आओ, न मानो तो!’

‘और कुछ किस्सा बचा पंडिज्जी?’ आनंद ने बेलाग कहा।

‘तुमें हमाई बात सुहाई नईं!’ अवस्थीजी बुझ से गये।

‘नहीं! ये बात नहीं,’ आनंद बोले, ‘मूल बात दृष्टि की है, महाराज! मेरा स्वभाव बाहर की आचार संहिता में जाने का नहीं। मैं तो खुद को भीतर से पकड़ना चाहता हूँ, क्योंकि मैं जान गया हूँ कि मैं हारता हूँ तो अपनी ही तृष्णा से हारता हूँ। भस्म होता हूँ तो अपने ही क्रोध में भस्म होता हूँ। मुझे और कोई नहीं, मेरा अपना ही द्वेष परास्त करता है। अपनी ही बैर-भावना में उलझता हूँ मैं! बाहर से तो कुछ है ही नहीं।’

अवस्थी अपना सिर खुजलाते हुए कुछ सोचते रहे। फिर धिक्कारते हुए से बोले, ‘तुम्हारी श्रद्धा तो राजा श्रेणिक सरीखी है, जो दिगंबर मुनि को तालाब के किनारे मछली मारते हुए पाकर भी और उसके समीप गर्भवती आर्यिका को देखकर भी उसकी प्रदक्षिणा करता है.।

सो, तुम्हारा सारा ज्ञान श्रद्धायुक्त है कि ‘तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यक् दर्शनं’ के हामी हो तुम ऽ!’

अवस्थीजी सर्वथा जोर-जोर से बोल उठे थे। गोया, कुत्ते की तरह अनवरत् भौंक उठे हों, ‘तुम में ज्ञान के साथ श्रद्धा नहीं बल्कि श्रद्धा के साथ ज्ञान है और तुम्हारे लिये ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ बोलना अप्रत्यक्ष वंदना है। श्रद्धाहीन भक्ति जैसे प्रतिमाहीन मंदिर और ज्योतिहीन दीपक है तुम्हारे लिये क्योंकि- अब तुम्हारी जुहार भी ‘जय जिनेंद्र’ है ना!

अरे-तुम तो इस अंधविश्वास में फँस गये हो कि श्रद्धा भीतर हो तो स्वतः भक्ति का रूप दिखलाई पड़ने लगता है। जैसे- बौनी के बाद किसान को बादल, गर्भ के बाद स्त्री को अपना पेट। और अब तुम्हारे लिए देव-शास्त्र-गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा ही सम्यक् दर्शन है! क्योंकि तुम्हारे महावीर ने कह दिया है कि यहाँ तर्क को कोई स्थान नहीं है! तर्क तो कागज की नाव है, जिस पर बैठना तो दूर वह स्वतः गल जायेगी! और श्रद्धा है काठ की नाव। इस पर सवार हो, करो भव-पार।’

लाल पड़ गया था अवस्थीजी का चेहरा। क्रोध का ऐसा ज्वार था उनके ओर-छोर कि उनका होशोहवास ही छिन गया था।

और आनंद को दया लग उठी थी उस वेदांती पर, जो अब लगभग संन्यस्थ होकर भी किसे जीत पाया? कि जो आज पर्यंत आपाद्मस्तक समस्त विकारों से ग्रसित है।

पर वे कुछ बोले नहीं! और बेचारे अवस्थीजी खीज-खीज कर उठ गये वहाँ से।

मौन क्यों? अब आनंद को भली-भाँति समझ में आ गया था। मौन के भीतर ही तो महावीर बोल रहे थे-मित्ति मे सव्व भूदेसु, बैरं मज्झ न केणवि (सारे प्राणियों से मेरी मैत्री है, मेरा किसी से कोई बैर-विरोध नहीं है!)।

(क्रमशः)