Namo Arihanta - 14 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 14

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नमो अरिहंता - भाग 14

(14)

पूर्व जन्म

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सोनागिरि से वह क्लान्त लौटी थी और फिर धीरे-धीरे नर्क स हो गई थी। बी.ए. फाईनल का इम्तिहान सिर पर था, किंतु अपनी किताबों की धूल तक नहीं झाड़ी उसने। चौके का मुँह नहीं देखा-जो दे दिया गया, खा लिया। कोई दस बार बोला तो, एक बार हाँ-हूँ कर दी। फिर गुमसुम! एक स्थायी-सी चुप्पी तारी हो गयी थी।

हैरान हो गया सेठ! और सेठानी भी। चिढ़ने लगी सुधा।

‘क्या हुआ है तुम्हें? तुझेऽ तुझेऽ!’

और उसका बक्वुर (बोल) नहीं फूटता।

पहले इतना नहीं था। था तो! पर इतना नहीं था!

यह सच है कि मम्मी का पटजोड़ा कमरा छोड़कर सुधा के पटजोड़ा कमरे में, जो कि पहले अंजलि का हुआ करता था, डेरा डाल लिया था उसने। ताकि न खुद डिस्टर्ब हो और न किसी अन्य को करे। नहीं तो आधीरात में पेशाब लगे और डस्टबिन तलाशती फिरे।...

यूँ भी वह अरसे से एकांत में रहने की आदी हो गई थी ताकि ध्यान में कोई बाधा न पड़े।

यह ध्यान किस पर होता था? यह तो सेठानी भी नहीं जानतीं, जिन्होंने अपने पेट से उपजाया था उसे! पर यह जरूर जाँचा करतीं कि वो किसी योगी की भाँति तल्लीन है। अंतरजगत् में खोई हुई है। कुछ साध रही है, भीतर-ही-भीतर। और उस साधना में कोई खलल पड़ता है तो ऋषि-मुनियों की भाँति विचलित हो उठती है, यकायक क्रोधातुर, अंधी! मानो अब उफनती हुई एकदम शाप दे डालेगी। इसीलिये वह कहीं आती-जाती भी न थी।

किंतु होली पर जब अंजलि की कार आ गई और सब तैयार हो गये तो वह भी न जाने का हट न कर सकी, गोया उसे भी कोई दूर से खींच रहा था। यह अदृश्य कौन था, क्यों खींच रहा है! तब तो यह रहस्य वह न जान पाई थी। पर एक अजाना-सा उत्साह कि कुछ मिलने वाला है, कुछ होने वाला है, ने उसके मन को अत्यंत प्रफुल्लित कर रखा था। एक आशा थी-कल्पनाओं का ताना-बाना था और वह चहकती हुई गई थी सोनागिरि!

कि उसने महाराजपुरा से गुजरते हुए जब एकाधिक हवाई जहाजों को कार पर से मंडराते हुए देखा तो उछल-उछलकर स्वीटी को बताने लगी, ‘स्वीटी कौवा स्वीटी वो! देखो-देखो, बगुला!’ और वह सब देख-देखकर स्वीटी भी कितनी किलक रही थी! और चूँकि कार के शीशे चढ़े हुए थे, इसलिये निःशब्द हवाई जहाज पक्षियों की तरह ही आसमान में कुलांचे भरते प्रतीत हो रहे थे। हलके बादल थे, हलकी धूप। सुहाना था मौसम भी।

सेठ-सेठानी उसके परिवर्तन को लेकर हर्षित थे। कुछ ही घंटों में उन्हें यह बदलाव स्थिर-सा लग उठा, क्योंकि टेकनपुर से गुजरते हुए BSF के प्रशिक्षण केंद्र और सिंधिया के जलमहल (पूर्व शिकारगाह) को देखकर, उस जलाशय में खिले नन्हे-नन्हे कमलदलों को देखकर तो जैसे उसके भीतर कोई मचल उठा था। और मरी जा रही थी वह-सुधा, अंजलि और स्वीटी को वह दृश्य दिखा-दिखाकर! और BSF के म्यूजियम और उसके बगल में रखे वायुयान के मॉडल को देखकर तो वह अत्यंत विभोर हो उठी थी उसके पक्षियों की भाँति फड़फड़ाने को आतुर डैने, व्हेल मछली-सा तैर उठने को आतुर मध्यभाग और उस मॉडल का सिल्वर कलर तो सोनागिरि तक उसकी आँखों में छाया रहा था।

और वहाँ तीन दिन की अजानी, अपरिभाषित खोज परख के बाद जब वह सहसा ही आनंद को पा गई थी, तब तो जैसे सर्वांग कुमुदिनी-सी खिल गई थी।

पर यह परिवर्तन! उसका पूर्ण विकसित रूप! उसकी पूर्णता किसी ने देख नहीं पाई थी। बस, देखा था-लौटते वक्त उसका मुरझाया, मरा-मरा-सा चेहरा। ढली हुई गर्दन। मुड़े-तुड़े-से हाथ-पैर। शून्य को हेरती-सी आँखें। जैसे एक गहरा विषाद छा गया था ओर-छोर! जैसे, अचानक उसके समक्ष लहरों से उफनकर आई मणि हाथ आकर फिसल गई थी एक महासागर की अतल गहराई में। और वह न कूदने की हिम्मत जुटा सकी थी, न उस तट पर बैठकर स्यापा करने की। बस, बंदिनी-सी घर लौट आयी। घर की जेल में।...

अब उसे किसी भी करवट चैन नहीं है।

चैन तो पहले भी न था। पर तब उसने आनंद को खोया हुआ मान लिया था।

कि जैसे कोई गुम जाय, कोई मर जाय, तो सब्र हो जाता है। पर अब तो, जैसे- इसी जन्म में पुनर्जन्म हो गया है, अब कैसे धीरज धरे वह! कि कोई जीता-जागता हो, आपकी कल्पना में अमुक-अमुक जगह हो-तो चैन नहीं पड़ता उसे बगै़र पाये।

उसकी दशा देखकर सेठ दंपत्ति चिंता से भयातुर थे। वे कन्फर्म थे कि पूर्व भव के रत्न त्रयोदक (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रणि) आदि पुण्यों के प्रताप से अंजलि तो सुयोग्य घर-वर पा गई, पर इसका क्या होगा! जरूर इसने पूर्व भव में किसी साधु का उपसर्ग किया होगा और हमारा भी कुछ पाप होगा! तभी तो 23 वर्ष की हो जाने पर भी कोई सुआडोरा नहीं लगा घर-वर का।...

तभी उन्हें नसियाजी के माली द्वारा ज्ञात हुआ कि वहाँ श्रवणोत्तम नामक यतीश्वर देश-देशांतरों में विहार करते हुए आये हैं। सो सेठ उत्साह सहित सेठानी और दोनों पुत्रियों को लेकर श्री गुरु की वंदना के लिये नसियाजी पर गया और हॉल के तख़्त पर बैठे गुरु की तीन प्रदक्षिणा देकर प्रभु (महावीर स्वामी की मूर्ति) को नमस्कार करके फर्श पर उनके सम्मुख बैठ गया।

श्री गुरु ने धर्मवृद्धि कहकर आशीर्वाद दिया। और मुनि-श्रावक के धर्म का उपदेश देकर निश्चय व्यवहार व रत्नत्रय धर्म का स्वरूप समझाया।

पश्चात् सेठ ने नतमस्तक होकर पूछा, ‘हे प्रभो, यह मेरी पुत्री किस पाप के उदय से खिन्नमना हुई है? इसके निमित्त इस संसार में कोई घर-वर है कि नहीं?’

सेठानी भी श्रद्धावनत हाथ जोड़े बैठी थीं। सुधा चपल नेत्रों से इधर-उधर ताक रही थी। जबकि प्रीति को कोफ्त हो रही थी और जब योगी उपाध्यायजी ने कहा कि हाथ बढ़ाओ, मस्तक की रेखा तो कहती है कि पूर्व भव में देव शर्मा पुरोहित की रूपवती कन्या थीं तुम.’ तो प्रीति भकुर गई। उसने अपने दोनों हाथ अपनी गोदी में छुपा लिये।

यह देख सेठानी ने आँखें दिखाईं उसे। सेठ ने भी अपना चेहरा सख्त किया। पर वह प्रीति थी। सुधा या अंजलि होती तो मान जाती।... वह सुट्ट साध गई। न बोली-बक्वुरी न उसने हथेलियाँ निकालीं, और गहरे छुपालीं गोद में!

गुरुजी की खिल्ली-सी उड़ गई। पीछे बैठे शैतान बच्चे खुसर-पुसर कर उठे। वे पीछी से अदृश्य सूक्ष्म जीवों को फटकारते हुए बोले, ‘इस हुंडा अवसर्पणी के चौथे काल में विजयार्द्ध पर्वत के दक्षिण में पांडलपुर नगर में एक पुरोहित हुआ करते थे देव शर्मा। उनके एक अत्यंत रूपवान कन्या थी। नाम था कपिला! जिसे अपने रूप का बड़ा घमंड था। एक दिन वही कपिला कुमारी अपनी सखियों के साथ अठखेलियाँ करती हुई वन क्रीडा करने के लिये नगर के बाहर गई, सो वहाँ श्री परम् दिगंबर साधु को देखकर उनकी अत्यंत निंदा की, और घृणा की दृष्टि से वह सखियों से कहने लगी-देखोरी बहनों! यह कैसा निर्लज्ज पापी पुरुष है जो पशु के समान नग्न फिरा करता है। और अपना अंग स्त्रियों को दिखाता है। लोगों को ठगने के लिये लंघन करके वन में बैठा रहता है। अथवा कभी-कभी ऐसा नंगा ही वन से बस्ती तक फिरा करता है। धिक्कार है इसके नर-जन्म पर... इत्यादि अनेकों कुवचन कहकर मुनि के मस्तक पर धूल डाल दी और थूक भी दिया।’ वृत्तांत के दौरान उन्होंने प्रीति पर दृष्टिपात किया, जो खा जाने वाली नज़रों से एकटक उन्हें ही घूरे जा रही थी, फिर वे क्षण भर को आँख मूँद आत्ममुग्ध-से बोले, ‘सो, अनेकों उपसर्ग आने पर भी मुनिराज तो ध्यान से किंचित मात्र-भी विचलित न हुए। और समभावों से उपसर्ग जीत कर केवलज्ञान प्राप्त कर परम् पद को प्राप्त हुए! परंतु वह कपिला,’ उन्होंने फिर प्रीति को कनखियों से देखा, ‘जिसने मदोन्मत्त होकर श्री योगिराज का उपसर्ग किया था, मर कर प्रथम नर्क में गई!’ कहकर आँखें मूंद लीं।

प्रीति उठने को हुई। सेठानी ने हाथ पकड़ दबोच ली। गुरुजी सब जान रहे थे, बोले, ‘वहाँ से निकल कर गधी हुई, फिर हथिनी, फिर बिल्ली, फिर नागिन, फिर चंडालिनी और अनेकों योनियों में परिभ्रमण करती हुई अब,’ उन्होंने सेठ की ओर तर्जनी की, ‘तुम्हारे घर में पुत्री के रूप में जन्मी है,’ वे गोया क्रोधातुर थे, ‘इस प्रकार मुनि-निंदा के पाप से इसकी यह दुर्गति हुई है।’

कहकर वे चुप हो गये। पर आवेश अब भी उनके चेहरे पर भौंरे की तरह गूँज रहा था। नासा-अधर फड़कते से फिर रहे थे।

सेठ इस रहस्योद्घाट्न से घबड़ा गया। सेठानी गुरु के कदमों में बिछ गईं, आर्तनाद कर उठीं, ‘हे नाथ! इसका यह पाप कैसे छूटे?सो कृपाकर कहिये, स्वामीऽ!’

उपाध्याय ने देखा-प्रीति निर्भय है! कुछ खोयी-सी जैसे, किसी बात का असर ही नहीं चेहरा सपाट है, लगभग निर्विकार!

तब वे कुछ विचलित से हुए। मगर पूर्वानुभवों का लाभ उठाकर बुलंद स्वर में बोले, ‘सुनो! संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं, जिसका कोई उपाय न हो मनुष्य अपने पूर्व कर्मों की आलोचना, निंदा व गर्हन करके आगे को उन पापों से परांगमुख होकर पुनः न करने की प्रतिज्ञा करे। और पूर्व पापों के निर्जरार्थ व्रतादिक करे तो दोष मुक्त हो सकता है।’

कहते हुए उन्होंने अपनी धोती संभाली और इधर-उधर देख कर बोले, ‘पंखा! बिजली नहीं है?’

‘है तो महाराजजी!’ एक आदमी झट से खड़ा होकर पास झुक गया, ‘सोचा, आप मुनि महाराज की तरह धारणा (नियम) न किये हों इससे नहीं खोला!’ और लपक कर उसने दीवार से चिपका स्विच ऑन कर दिया। पंखा घूम उठा। हवा की लहरियाँ प्रीति के पसीने को सोखकर देह को शीतल कर उठीं।

उसे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा।

सेठ-सेठानी सहित सभी श्रवण उत्सुक थे, उपाय जानने के लिये, जिससे प्रीति का पूर्व भव का पाप कटे और सुयोग्य घर-वर मिले उसे।

हवा से चित्त शांत हुआ तो उपाध्याय आगे बोले, ‘अब यह पुत्री सम्यकत्व पूर्वक श्रावण शुक्ला द्वादशी व्रत को धारण करे!’ प्रीति ने मुँह बिचकाया। पर उन्होंने कोई परवाह न की और सेठानी को व्रत की विधि समझाने लगे-

‘श्रावण शुक्ला एकादशी को प्रातःकाल स्नानादि करके श्री जिन पूजा करे और पश्चात् भोजन करके सामायिक के समय द्वादशी उपवास व्रत की धारणा (नियम) करे। इस समय से अपना काल धर्म-ध्यान में बितावे और द्वादशी को भी नियमानुसार उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त हो, श्री जिन मंदिर में जाकर उत्साह सहित पंचामृत अभिषेक कर (अभिषेक अपने भाई या पितादि पुरुष से करावे) अष्ट द्रव्य से पूजन करे अर्थात् पाठ और मंत्रों को स्पष्ट बोलकर प्रासुक अष्ट द्रव्य चढ़ावे और णमोकार मंत्र (णमो अरिहंताणम् के 7, णमो सिद्धाणम् के 5, णमो आइरियाणं के 7, णमो उवज्झाणं के 7, णमो लोए सव्व साहूणं के 9 कुल 35 अक्षर) का पुष्पों द्वारा 108 बार जाप करे।...

जाप में यह अर्थ ध्यान में रखे-’

उपाध्यायजी व्रत की विधि अकेली सेठानी को नहीं समझा रहे थे! वहाँ उपस्थित समस्त भक्तगण उन्हें दत्तचित्त होकर सुन रहे थे सिवा (सेठजी के मुताबिक अभागी) प्रीति के ! आगे वे अष्टांग प्रणाम की मुद्रा बनाकर अधमुँदे नेत्रों से बोले, ‘इस लोक के सर्व अर्हंतों को नमस्कार हो, इस लोक के सर्व सिद्धों को नमस्कार हो, इस लोक के सर्व आचार्यों को नमस्कार हो, इस लोक के सर्व उपाध्यायों को नमस्कार हो, इस लोक के सर्व साधुओं को नमस्कार हो’ उन्होंने मुद्रा बदली, ‘तत्पश्चात् सामायिक, स्वाध्याय, धर्म-ध्यान में काल बितावे। फिर त्रयोदशी को इसी प्रकार अभिषेकपूर्वक पूजनादि करने के पश्चात् किसी अतिथि या दीन-दुःखी को भोजन-दान करने के बाद भोजन करे। इस प्रकार एक वर्ष में एक बार करे। सो, बारह वर्ष तक करे।’

सेठ घबड़ाया, ‘तो महाराजजी, फिर इसका ब्याह कब होगा? बारह साल तक तो इसकी उमर निकल जायेगी।’

उपाध्याय की सपाट गुदगुदी हथेली आगे बढ़ी मानो उसके मुँह पर चस्पां हुई और वे निर्णायक लहजे में बोले, ‘इस भव में इसका ब्याह नहीं है। इस व्रत के फल से यह तेरी कन्या यहाँ से मरण करके आगामी भव में तेरे ही यहाँ पुत्र के रूप में जन्म लेकर, मात-पिता सहित जिन दीक्षा लेकर समाधि मरण करके स्वर्ग में महर्दिक देव होगा। और फिर मनुष्य भव लेकर तप के योग से केवलज्ञान को प्राप्त होकर मोक्ष पद प्राप्त करेगा।’

सब हैरत से सुन रहे थे। बच्चे तक त्रिकालज्ञ उपाध्यायजी के त्रिकाल-दर्शन से सम्मोहित थे, गोया! उनके शब्द गाज की भाँति गिर रहे थे सेठ के श्रवण रंध्रों पर, ‘इसकी माता प्रथम स्वर्ग में देवी होगी। तेरा जीव भी अवसर पाकर सिद्ध पद को प्राप्त करेगा।’

‘महाराजजी, उद्यापन की विधि और कहिये!’ भयातुर सेठानी मानो घिघियायीं। अप्रैल के शुरू में ही उन्हें गजब का पसीना छूट रहा था।

तब गर्वोन्नतमुख हँसते से उपाध्याय यह वचन बोले-

‘श्रावण द्वादशी व्रत कियो शीलव्रती चित्त धार।

कियो अष्ट विधि नष्ट सब लह्यो सिद्ध पद पर सार।’

अब प्रीति इस डॉग्मा पर हौले से मुस्कराई। पर उपाध्याय नहीं समझे। उत्साहपूर्वक बोले, ‘बारह बरस व्रत साधकर सोत्साह उद्यापन करें। अर्थात्-चारमुखी प्रतिमा की प्रतिष्ठा करावें। चार ग्रंथ जिनालय में पधरावें। वेष्टन चौकी, छत्र-चमरादि उपकरण चढ़ावें। परोपकार में द्रव्य खर्च करें। व्यापार रहितों को व्यापारार्थ पूँजी लगा देवें। पठनाभिलाषियों को छात्रवृत्ति देकर पढ़ने को भेजें। रोगी को औषधि, निःसहाय दीनों को अन्न-वस्त्र, औषधादि देवें। भयभीत जीवों को भय रहित करें। मरते को बचावें और यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो बारह बरस और व्रत करें।’

तिलमिला कर प्रीति उठ खड़ी हुई। मगर उसने दयाद्र नेत्रों से देखा उपाध्याय की ओर जिनकी चाँद घुटी थी, चेहरा क्लीनशेव्ड था!

उसे लगा, दस साल में आनंद भी यही श्रूडनैस अख्तियार कर लेंगे।...

और वह हॉल से निकल कर चप्पल पहनकर सीधी मामाजी के घर चली गई।

सेठ-सेठानी, उपाध्याय और सभी जैनी हत्वाक् थे।

जो साधुओं में शास्त्र-ज्ञान में प्रधान और अन्य साधुओं को शास्त्र-ज्ञान देते हैं-ऐसे उपाध्याय महाराजजी आज यह सोचने को विवश हो गये कि ‘क्या भूत भगवान् महावीर का श्रुततीर्थ (सिद्धांतगान) व्युच्छिन हो गया है? अभी तो ढाई हजार वर्ष हुए हैं कि उसे तो बीस हजार तीन सौ सत्रह वर्ष चलना था।... आज पंचम काल में ही जनता क्रोधी, अभिमानी, पापी, अविनीत, दुर्बुद्धि, भयातुर, ईर्ष्यालु हो गई है। मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविका सम्यक चारित्र की धारणा-पालना नहीं कर पा रहे अवश्य यह हुंडा अवसर्पिणी काल के प्रभाव से उत्पन्न हुआ है। कि तभी भरत चक्रवर्ती का मान भंग हुआ। आदिदेव से भी प्रथम मोक्ष बाहुबली का हुआ! तीर्थंकरों के पुत्रियाँ न होने का शास्त्र वचन झूठा कर आदिदेव के दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। अयोध्या और सम्मेदशिखर देवों द्वारा नहीं, मनुष्यों द्वारा बसाये गये! सभी तीर्थंकरों का जन्म मात्र अयोध्या में और मोक्ष मात्र शिखरजी में न होकर अन्यत्र स्थलों पर भी हुए।...

आदि-आदि-आदि!

उपाध्याय ने सिर धुन लिया।

सेठानी उनके चरणों में पड़कर गिड़गिड़ाने लगीं। और सेठ भी पुत्री की दुर्बुद्धि की क्षमा-याचना करने लगा।

सुधा को गुस्सा आ रहा था। प्रीति पर भी, जो इस तरह उठकर चली गई! और इन मम्मी-पापा पर भी, जो जो हैं! बस।

पर प्रीति जब घर पहुँची मामाजी के , वे पंचांग खोले नवरात्र की तिथियों का आकलन कर रहे थे। उन्होंने चश्मे के ऊपरी भाग से झाँककर देखा उसे और मस्ती से बोले, ‘आइये!’ फिर अंदर की ओर मुँह करके जोर से आवाज दी, ‘डुक्कीऽ ऽ देख तो कौन आया?’ और फिर चटाई पर बिछे कागज-पत्रों में भिड़ गये।

बैठके में चप्पलें उतारकर प्रीति अंदर चली गई। मामी भीतर के कोठे में चारपाई के प्रेम में दरी बुन रही थीं। छाया पड़ी, अंधेरा-सा हुआ कमरे में तो पलट कर देखा, दरवाजे पर प्रीति खड़ी थी।

उन्होंने अपने हाथ का पंजा वहीं छोड़ा और उठ आईं। चश्मा संभालती हुई बोलीं, ‘कहो, कैसी हो?’

प्रीति का गला चिपक गया था। बमुश्किल बोली, ‘पानी।’

मामीजी ने धोती संभाली, वे ब्लाउज नहीं पहनतीं अक्सर, और आँगन की घिनौची पर रखे घड़े से गिलास भरकर प्रीति को पकड़ाते हुए बोलीं, ‘कहाँ से भूल पड़ीं आज?’

अब तक मामाजी भी अपने पोथी-पत्रा समेट कर वहीं आ गये, बोले, ‘जि बताओ, आज कैसे गैल भटक गईं!’ प्रीति ने गिलास खाली किया और मुस्करा कर बोली, ‘आप तो आते ही नहीं अब सोचा, खबर ले लें! कैसे हैं बुढ़ऊ।’

मामाजी ने ऊपर-नीचे मंडी मटकाई, बोले, ‘और क्या? और क्या! अब खबर लैन आईं सालन में’

प्रीति ने देखा, वे उघारे बदन थे। सिर्फ धोती लपेटे हुए तहमद की तरह। दाढ़ी उनकी छाती तक लहरा रही थी। वे किसी तपोनिष्ठ ऋषि की भाँति शुभ्र-प्रसन्न-बदन जान पड़े उसे। तब वह कुछ कह पाती इसके पहले ही वे बोले, ‘चलो, आज ‘चंगा-पौ’ हो जाय!’

मामी ने मुँह ऐंठा, ‘तुम्हें तो सदा ‘चंगा-पौ’ सूझता है।’

‘काऐ नहीं,’ वे हठीले बच्चे की भाँति कोठे में घुस गये और फर्श पर बिसात रख ली। डिब्बे से कौड़ियाँ और बटन निकाल लिये, बोले, ‘आज तुम दोनों मिल कर हराना हमें।’

प्रीति फर्श पर बैठ गई। मामी ने ट्यूबलाइट जलादी। मामा प्रीति से बोले, ‘बोलो-कौन-से बटन लोगी?’

प्रीति ने पीले चुनकर अपने घर में रख लिए।

‘और तुम?’ उन्होंने मामी से पूछा।

‘जो जी में आये धरि देउ!’ वे प्रीति की ओर मुँह सिकोड़ कर मुस्कराईं।

मामाजी ने हरे बटन उनके घर में रखे और बच्चों की भाँति उछलते से बोले, ‘बढ़िया-बढ़िया! लाल बच गये, हमारे!’ और लाल बटन अपने घर में रखते हुए चपलता से बोले, ‘हरी हरावे, लाल जितावे, पीरी खेल-खिलावै’

प्रीति मामा की ओर देखकर उनके खिलंदड़ेपन पर तनिक मुस्कराई। फिर खेल बदस्तूर चल उठा।

और गोहद के उनके मित्रों में यह मशहूर है कि वे ‘चंगा-अष्टा-पौ’ के जबर्दस्त शौकीन हैं। जीतने पर बच्चों की तरह धरती काटने लगते हैं और हारने पर खिसिया जाते हैं। दूसरे की गोटी पीटते हैं उछल-उछलकर और अपनी पिटते देखकर रोनी सूरत बना लेते हैं। कभी-कभी बीच में ही इतने उत्तेजित हो जाते हैं कि बिसात ही पलट देते हैं! सारा खेल खराब कर देते हैं। फिर बीड़ी धौंक उठते हैं रूठकर। और कभी अपनी पौ को चंगा, तिये को अष्टा कहकर झट से कौड़ियाँ बटोर लेते हैं। मामी कहती हैं-‘नंबर बदलाओ, नंबर उतर गया चश्मा तुम्हारा!’ तो और भी खिसिया जाते हैं। खोंखिया पड़ते हैं उन पर।...

पर थोड़ी-सी उठापटक के साथ खेल मजेदार और रोमांचक ढंग से चलता रहता है।

यह खेल आनंद के ज़माने में भी चला करता था। हालाँकि वे इसमें कोई खास रुचि नहीं लेते थे, तो भी मामाजी चहक चहककर मनोरंजन किया करते थे, ‘देखो भाई, तुम्हारी डुक्की आज दो बाजी हार गई। अब तो आज दो-दो तरकारियाँ बनेंगी। एक रसीली, एक सूखी और गरमा-गरम पुलकियाँ।’ आनंद मुस्कराकर रह जाते।

उन्हीं दिनों से प्रीति ने यहाँ आना शुरू किया था। मामाजी उसे अपने साथ घसीट लेते थे खेल में। शुरू में तो वह हारती रहती थी, किंतु बाद में जब पारंगत हो गई तो मात पर मात दिए चली जाती थी और मामाजी जीतने की हठधर्मी में उसे उठने नहीं देते थे। तब प्रायः देर हो जाती।

प्रीति आज इस मूड में कतई नहीं थी। यह बचकाना खेल अब उसे सुहाता नहीं था। पर भोले मामाजी का मन रखने उसे बैठना पड़ा। घर की भी चिंता थी कि आज तो लौटते ही सिर पर पत्थर पड़ेंगे! अक्सर तो मम्मी ही आड़े हाथों लेती हैं बात बात पर! पर आज तो पापा भी बख्शेंगे नहीं! खोंखियाये बैठे होंगे। उपाध्यायजी की अवहेलना करके चली आई है-न, वह!

‘येऽलो! पक गये अपुन तो।’ हठात् मामाजी ने कहा और उठ कर बीड़ी सुलगाने चले गये।

प्रीति ने मामी से कहा, ‘मन नहीं लग रहा!’

‘तो बंद करो’, मामी बोलीं, ‘हमाई दरी अधपर डरी है’ उन्होंने पुट्ठे से गोटियाँ और फर्श से कौड़ियाँ समेट कर डिब्बे में रख दीं।

इतने में मामाजी सुट्टा मारते हुए लौटे और चौंककर बोले, ‘अयं! हो गई बाजी?’

‘बंद कर दी।’ प्रीति ने संक्षेप में कहा।

‘अच्छा!’

‘अच्छा-आईं कैसी, जि-बोलो?’ वे चारपाई पर बैठ गये, जैसे इंटरव्यू लेते हों। तब प्रीति ने थोड़ी हिचक के साथ कहा, ‘आनंद सोनागिरि में हैं!’

‘अयं ऽ!’ मामाजी को जैसे करंट लग गया। वे बीड़ी बुझाकर बोले, ‘कब से? साधु हो गये क्या?’

‘अभी तो नहीं, हो सकता है हो भी गये हों’ प्रीति ने संशयात्मक लहजे में कहा।

‘कब की बात है?’ सूखे से होंठों से मामीजी ने पूछा।

‘होली की,’ प्रीति बोली, ‘हमें चौथ को मिले थे।’

‘इसी चौथ को, चैत की?’ मामाजी ने बात लपक ली।

‘हाँ! पिछले महीने मार्च में 28 तारीख को’ प्रीति ने याद करते हुए कहा।

फिर मामाजी उकड़ूँ बैठ गये खाट पर एक लंबी उसांस छोड़कर। और अपने आप में ही उतरते चले गये मानो। मामी दरी में भिड़ गईं।

प्रीति ने कहा, ‘चलती हूँ।’ तब मामी पलटीं। उनके चश्मे के लैंस चमके । मामा उसे द्वार तक छोड़ने आये और उसके जाते-जाते बोले, ‘और कोई खबर लगे तो बताना, पता दे जाना वहाँ का।’

‘जायेंगे आप!’ प्रीति के भीतर कोई खुशी नाची। एक आशा के उजले द्वार खुले। पर वह मुड़ी नहीं, चली गई अपने घर की तरफ जल्दी थी उसे।

(क्रमशः)