Namo Arihanta - 11 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 11

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नमो अरिहंता - भाग 11

(11)

तीर्थ

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सोनागिरि-स्वर्णगिरि या श्रमणगिरि भी कहलाता है। यह मध्यप्रदेश के दतिया जिले से 10-15 किलोमीटर दूर मध्य रेलवे के बंबई-दिल्ली रेलमार्ग पर, अर्थात्- विंध्यावटी के छोर पर स्थित है और इस पहाड़ी के नीचे बसा छोटा-सा गाँव सिनावल एक प्राचीनकालीन बस्ती है।

कहा जाता है कि जैनियों के आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु का समवशरण जब यहाँ आया तभी से इस पहाड़ को तीर्थक्षेत्र के रूप में जाना जाता है। किंतु जैन संप्रदाय की यह मान्यता है कि पहाड़ के 72 मंदिर अत्यंत प्राचीन हैं और उन्हें भगवान् आदिदेव (प्रथम तीर्थंकर) के यशस्वी पुत्र भरत चक्रवर्ती ने बनवाया था। इन मंदिरों में चौबीसों तीर्थंकरों की मूर्तियाँ इक्ष्वाकुवंशी चक्रवर्ती भरत ने स्थापित कराई हैं, क्योंकि प्रत्येक भव में पूर्व निर्धारित चौबीस तीर्थंकर ही होते हैं। सो कोई आश्चर्य नहीं कि प्रथम तीर्थंकर के पुत्र चक्रवर्ती भरत ने स्मृति के आधार पर यह अनहोनी कर दिखाई हो! कि भावी तीर्थंकरों की नामजद-चिह्न अंकित हू-ब-हू वे प्रतिमाएँ उन्होंने स्थापित करवा दीं जो बाद में हुए अजितनाथ से लेकर महावीर तक।

और चंद्रप्रभु तो बीच के हैं, आठवें तीर्थंकर। जिनकी नायक प्रतिमा मंदिर नंबर 57 में जस की तस खड़ी है।

जनश्रुति के अनुसार अब से पाँच सौ वर्ष पूर्व सिनावल शुद्ध जाटों (क्षत्रियों) का गाँव था। दतिया स्टेट के अधीन यहाँ उन्हीं की सोलहआना जमीदारी थी। पर उस काल में जातियाँ यायावर हुआ करती थीं। सो दतिया स्टेट के ही ग्राम घूघसी के 40-50 परिवार जिनका नेतृत्व भार्गववंशी ब्राह्मण कर रहे थे, पलायन कर सिनावल आ गये और ब्राह्मणों ने जाटों की चार आना की जमींदारी खरीद ली। शेष 12 आना जाटों पर बनी रही।

ब्राह्मण बौद्धिक अर्थात् अत्यंत चालाक कौम है, इसका भारतीय इतिहास गवाह है। इसे झुठलाना तो ऐसे ही है, जैसे- अंधा मंते, जगत्तर देखे! सो इन भार्गववंशियों के लालच ने 250 वर्ष पूर्व यह षड्यंत्र रचा-

दतिया नरेश के यहाँ दधिखानी चौथ (भाद्रपद शुक्लपक्ष चतुर्दशी) पर समस्त प्रजा द्वारा दूध-दही ले जाने का रिवाज था। मान्यता थी कि भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी) को हर साल की भाँति इस साल भी हो चुका है, सो अब उनका ‘पासनी’ (शिशु को माँ के दूध के अतिरिक्त प्रथम बार अन्य आहार दिए जाने की रस्म) होना है। समस्त प्रजा अपनी गाय-भैंसों का खालिस दूध-दही कलशों में भर-भरकर ले आये और राजा के हौद में उँडेल जाय।...

घूघसी से ब्राह्मणों के साथ पलायन करके आये शूद्रों से ब्राह्मणों की तरह जाट भी बेगार कराते थे। सो, ये जातियाँ बड़ी त्रस्त थीं कि एक तो ब्राह्मण पहले से ही बेगार करा रहे हैं, ऊपर से ये जाट और। बस, छोटी जातियों की इस छटपटाहट (मुक्ति कामना) को ब्राह्मणों ने भुना लिया। उन्होंने कहा कि तुम लोग इस दधिखानी चौथ पर दूध-दही के बजाय जानवरों का मल-मूत्र भर ले जाओ घड़ों में और डाल आओ राजा के हौद में! फिर क्या था, राजा का हौज गोबर-पेशाब से भर गया। संभवतः इतिहास में दलित विद्रोह की यह पहली और बुनियादी परिघटना थी। किंतु तब वे अपनी एकता की अनूठी शक्ति को पहचान नहीं पाये।...

राजा म्यान से बाहर-

‘बाँध दो ससुरों को तोपों के मुँहों से’

‘ना-ना ऐसा नहीं सिंहजूदेव ऽ!’ ब्राह्मणों ने जाल बिछाया, ‘जौ में रैयत कौ का दोस! आपकी हुक्मउदूली तो सरकार जाटों ने कराई है! सिनाउल के जाट खुद को राजा माने बैठे हैं। आप नाहक प्रजा को ताँस (दंड) रहे सरकार हम गवाह हैं! जाटों ने ही सिनाउल वासियों को यह करने पर मजबूर किया है। नहीं तो वे इन सबका हंगना-मूंतना बंद कर देते।’

जू देव ठहरे दतिया नरेश। पल में राई को पर्वत करें और कहो, समुद्र सोख जायँ! सो उन्होंने तुरंत फरमान भेज दिया-

‘जाट पौ फटे ते पहले सिनाउल छोड़ि जायें नईं तोप सें उड़वा देहैं!’

अब भैया! राजा से जूझन की सक्ती सिनाउल के जाटन में काँ थी? अंडा-बच्चा सें कूच कर गए!.

फलतः सिनावल की सोलह आना जमींदारी भार्गववंशी ब्राह्मणों के हाथों सहज ही लग गई।

लेकिन ब्राह्मण यहाँ केवल जमींदारी हथियाने नहीं आये थे। किसी भी कौम की प्रवृति आसानी से उसका पीछा नहीं छोड़ती। और जैसे अर्जुन की आँख द्रोण की चिड़िया पर, वैसे ही ब्राह्मणों की नजर जैन मंदिरों की चढ़ौतरी पर लगी थी और मंदिर तब भट्टारकों की जागीर हुआ करते थे।...

कहा जाता है कि चौथेकाल में (लगभग 2500 साल पहले) महावीर भगवान् के समय में जैन में भट्टारक पंथ की स्थापना कर्नाटक से आरंभ हुई। बाद में यह भट्टारक परंपरा राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश के साथ-साथ मध्यप्रदेश में भी फल-फूल गई।

ये इसलिये अस्तित्व में आये, क्योंकि यवनों के आक्रमणों से राज्यों के साथ-साथ धर्म-कर्म भी असुरक्षित हो गया था। साधु भक्ति में लीन रहते। अब मठ-मंदिरों को कौन बचाये! कौन भक्तों की, धर्म की रक्षा करे? इसलिये, जो मुनियों के उपाध्याय थे-वे तंत्र-मंत्र में निपुण होते गये! और शस्त्रों का जमावड़ा भी कर उठे। सो वे मंदिरों के महंत यानी बादशाह बन गये।

वे बालब्रह्मचारी होते थे और शिष्य परंपरा से आते थे। सादा लिबास-बिना काँच लगाये सफेद धोती कमर में लपेट कर पहनते। ऊपर वैसी ही बंडी। मगर उसके ऊपर गेरुआ दुपट्टा लपेटे रखते। सादा भोजन-दाल-भात-रोटी। मगर जब भोजन पर बैठते, दिन में सिर्फ एक बार ठीक बारह बजे, तब अनवरत झालर-घंटा बजा करता। ऐसी घोर मचती की जग जान जाता, भट्टारकगादी में भट्टारक महाराज का भोजन चल रहा है।

वे पीछी-कमंडल रखते और साधुओं को शास्त्र-अध्ययन कराते।

वे पौ-फटने से पहले जाग पड़ते। और जागते ही सामायिक में जुट जाते। फिर शौच-स्नान आदि से निवृत्त होकर पूजा करते। तंत्र-मंत्र सिद्ध करते।

उनका चौका उनके शिष्य लगाते।

भोजनोपरांत अपनी गादी (सिंहासन) से प्रवचन करते। फिर विश्राम। फिर मुनियों को उनका सबक याद कराते। फिर शयनादि मुद्रा में चले जाते। कि उनका हर क्रियाकलाप विधिपूर्वक (धर्म दंड विधान से) होता।

और जब चातुर्मास के लिये श्रावक के निमंत्रण पर वे स्थान विशेष के लिये प्रयाण करते तो, हाथी पर और कभी-कभी पालकी में विराजते। हाथी, घोड़े, ऊँट उनकी बारात में सज-धज कर शामिल होते। उनकी सवारी के पीछे 25-50 बंदूकधारी, अस्त्र-शस्त्रधारी चला करते थे।

सो, बड़ी महिमा थी इन परम् भट्टारकों की। अनाप-शनाप धन था उनके खजाने में। कहने को भिक्षावृत्ति पर था उनका साम्राज्य, किंतु जब विहार को निकलते, गाँव-गाँव घूमते तो उनका फौजफाटा देख कर धरती हिलती।

श्रावकों को ढाँढ़स बंधता। सुरक्षा मिलती। और विधर्मियों के हौसले पस्त होते। वे नित नये मंदिरों का निर्माण-उनका जीर्णोद्धार, रख-रखाव और समग्र संचालन किसी चक्रवर्ती की भाँति करते थे।

धीरे-धीरे सिनावल के भार्गववंशी ब्राह्मणों ने भट्टारकों से पटरी बिठाली।तब पहाड़ पर पंडागीरी का लायसेंस मुफ्त मिल गया उन्हें! कुछ जीते-जागते उदाहरण इस तरह हैं-

1.मंदिर नं. 67 के बाद पश्चिमोत्तर मार्ग पर पहाड़ पर एक नारियल के आकार का कुंड है। कुंड की गहराई में किसी की रुचि नहीं। न उसके गंदे जल में कोई आस्था। बस, श्रावक कुंड पर पहुँचा कि पंडे ने पकड़ लिया,

‘संतान नहीं है सेठ!’

‘नहीं महाराज!’

‘चाहता है?’

‘हाँ महाराज!’

‘ला निकाल दक्षिणा’

‘......’

‘ये क्या-बस!’

‘बस महाराज!’

‘अच्छा-ले, चल डाल दे ये बादाम इस कुंड में।’

‘डूब गया’ सेठ घबड़ाता है।’

‘सचमुच चाहिये संतान!’ पंडा फँसाता।

‘हाँ महाराज।’ दीन मुद्रा में खड़े हैं, बेचारे सेठजी! धनिया-मिर्च बेचने वाला बनिया! पंडा ने बना दिया सेठ! बेचारा गरीब अब अपनी धोती तीर्थ में गैर के आगे क्या खोले?

‘चाहिये तो, बोल?’ पंडा डाँटता है।

‘लो महाराज!’ बनिया थैली खोल बैठता। और पंडा अपनी दूसरी जेब से बादाम निकाल कर देता, ‘ले डाल इसे कुंड में अब भी डूब जाय तो संतान नहीं है तेरे नसीब में, क्या समझा!’

और! अब नहीं डूबता बादाम! तैरता रहता है कुंड के काले पानी में. खुश हो जाता है सेठ! पैर पड़ कर चला जाता है, वापस!.

2.मंदिर नं. 67 के दक्षिण-पश्चिम में जाता है एक मार्ग, जहाँ एक विचित्र करिश्मा है! कि यहाँ आये श्रावक श्रद्धापूरित नेत्रों से निरख-निरख कर यह करतब, पंडों के हाथ लुटे बिना जा नहीं सकते। पंडा कुछ इस तरह कहता-

‘श्रीमान् यह जो आसन के आकार का शिलाखंड है उस पर आज से हजारों वर्ष पहले एक मुनि महाराज तपस्यारत थे। उस आसन-शिला पर बगल में खड़ी इस ऊर्ध्वमुखी शिला की घनी छाया रहती थी। मुनि महाराज ने इसीलिये यह एकांत वास चुना।

अब देखिये भगवान् आदिदेव का विधान कि अचानक एक रोज इस शिला पर भयानक वज्रपात हुआऔर शिला बीच से फट गई।और टूट कर आधा शिलाखंड तपस्यारत् मुनि महाराज पर जा गिरा!’

श्रावक धक् से रह जाता।

‘लेकिन, देखिये भगवान् चंद्रप्रभु की कृपा,’ पंडा आसन-शिला के करीब घसीट ले जाता है श्रावक को, ‘देखिये यजमान! मुनि महाराज का बाल भी बाँका न हुआ?’

हवाइयाँ उड़ती हैं पंडा के चेहरे पर और गौर से देखता है श्रावक कि आसन-शिला पर वज्रपात से टूट कर गिरा शिलाखंड बस के एक्सीलेटर की भाँति तिरछा खड़ा है! और उस खाली जगह में कोई भी मनुष्य आसानी से पालथी मारे बैठा रह सकता है।...

‘क्या लीला है? कैसा अद्भुत चमत्कार है’ वह गदगद हो जाता।

‘इतना ही नहीं,’ पंडा उसके अंधविश्वास और भक्तिभाव में और इजाफा करता, ‘जहाँ मुनि महाराज का सिर था, वहाँ शिलाखंड खोखला हो गया है, उसी गोलाई और गहराई में। देखो-देखो!’

तिलस्म में फँसा श्रावक आसन-शिला के आगे घुटनों के बल बैठकर उस पर अधपर झुके खड़े शिलाखंड के अग्र भाग में भीतर से हाथ डाल कर देखता है सचमुच! सिर के आकार में खोखली हो गई है शिला!.

‘तपस्या से मुनि महाराज वज्र के हो गये थे, यजमान!’ पंडे के चेहरे पर दृढ़ता होती और श्रावक श्रद्धा में विगलित।...

पंडा उठाता है उसे, पीछे ले आता है शिलाखंड के , ‘देखो-इस शिला की कटान। देखो! मिलती है कि नहीं उस दूर खड़े शिलाखंड से।’

‘बिल्कुल मिलती है महाराज!’ श्रावक सील लगा देता, ‘ये खंड उसी शिला का भाग है। बिना वज्रपात के टूट नहीं सकता। और अगर मुनि महाराज इस आसन-शिला पर न बैठे होते तो सधता नहीं, पहाड़ के नीचे ढुलक जाता।’

‘आओ, इस शिला से कान लगा कर देखो!’

श्रावक आसन-शिला से कान सटाता है, पंडा अपनी हथेली से बजाता है उसे, ‘सुन पड़ी दिगंबर मुनि की वाणी!’

‘हाँ!’ श्रावक आत्मविभोर है।

‘चढ़ाओ कुछ।’

उस काल में ये पंडे सिर्फ मंदिरों के चमत्कार दिखाकर ही लूटपाट नहीं करते थे, बल्कि वक्त जरूरत मंदिरों को ‘रहन’ भी रख देते थे। और तब ठेके दारों के पंडे आकर मंदिरों पर दर्शनार्थियों से जबरन चढ़ौतरी करवाते। बोल-कुबोल, बोल-बोल कर लूटपाट करते।

इस तरह तीर्थ दर्शन पूरी तरह एक घिनौना व्यापार बन गया था।

भट्टारक तो ठहरे राजा-रईस! उन्हें इन ओछी बातों से कोई मतलब कहाँ था। उन्होंने तो ब्राह्मणों को दान कर दिए थे मंदिर।... और ब्राह्मण सिर्फ रोजी-रोटी ही नहीं चला रहे थे, बल्कि लूटपाट भी कर रहे थे धर्म, देव-दर्शन के नाम पर। जन सामान्य में उपजी भावना की उस पौध को खा रहे थे, जो उनके पूर्व जों ने बड़ी चतुराई से मानव-सभ्यता के शिशुचरण में ही मनुष्य के हृदय में रोप दी थी।...

एक नजर में पहाड़ पर 77 जैन मंदिर व 13 छतरियाँ हैं। कुछ मंदिर मध्यकालीन देवालय निर्माण कला के प्रतीक हैं तो कुछ बुंदेला स्थापत्य के नमूने। किंतु प्रत्येक मंदिर शिखरयुक्त है। मंदिर नं. 57 जिसमें चंद्रप्रभु की तीन मीटर ऊँची मूलनायक प्रतिमा है, यहाँ का मुख्य मंदिर है और यह प्रतिमा इसी पहाड़ के शिला खंड पर उत्कीर्ण है, जिसका शिलालेख विक्रमी संवत् 1035 का है, न कि इक्ष्वाकु राजा भरत चक्रवर्ती के काल का। यह बात जुदा है कि मुख्य मंदिर के दायीं ओर जो पुराना कोट है, उसकी चारदीवारी बिना गारे के शिलाखंडों से निर्मित है और उसके भीतर के चार-पाँच मंदिर अति प्राचीन वास्तुकला के नमूने हैं, जिनके दरवाजे खिड़कीनुमा हैं, पर इनमें स्थापित मूर्तियाँ नवीन हैं। खंडित मूर्तियाँ पहाड़ी के उत्तरी भाग में स्थित मंदिर नंबर 76 के परिक्रमा-दालान में रख दी गई हैं, जिनके सिर, स्तन, लिंग, भुजा, जंघा, नाक, पंजा आदि कटे हैं। निस्संदेह, यह मूर्तियाँ द्रविड़ शैली की प्रतीत होती हैं। एक ही शिलाखंड में अनेकों बंदर सरीखे देव उत्कीर्ण हैं, बीच में कोई देवी आदि खड़ी हैं। ये मूर्तियाँ बहुमंजिला इमारतों के आकार की भी हैं। और ये सभी साधारण पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों पर उत्कीर्ण हैं। किंतु जो मूर्तियाँ एकल हैं वे संवत् 1600 के आसपास की हैं तथा औरंगजेब के शासनकाल में खंडित की गई प्रतीत होती हैं।

गौर से देखने पर यह पहाड़ हिंदू-जैन साझा संस्कृति का अजायबघर मालूम पड़ता है, क्योंकि जैन मंदिर नंबर 1 के बाद हाथी दरवाजा है, जहाँ से चढ़ाई शुरू होती है, किंतु हाथी दरवाजे से पूर्व ही बायीं ओर एक अतिप्राचीन शिव मंदिर है, जिसकी झिल्ली या अर्घा पूर्व दिशा की ओर है।...

जैन मंदिर क्रमांक 15 के सामने दक्षिण पूर्व की ओर पहाड़ी के सिरे पर गुसांई की मठिया है। ध्यातव्य है गुसांइयों के मठों की बनावट बारहदरी के समान एक खुली संरचना होती है। पर इसे तीन ओर से बंद करवाकर महावीर स्वामी की मूर्ति स्थापित करवा दी गई है और इसे जैन मंदिर नंबर 15 (क) दे दिया गया है। इस तरह की गुसांइयों की छतरियाँ यहाँ 4-6 और भी हैं, जिनमें 108 मुनि पादुकायें निर्मित करा दी गई हैं।

गुसांई मठ परंपरा के बारे में जनश्रुति यह है कि गुसांई एक ओछी ब्राह्मण कौम है, जो अधिकांशतः बुंदेलखंड में पाई जाती है। सन् 1500 से 1857 तक इन गुसांई मठाधीशों का यह उद्देश्य बना रहा कि वे बुंदेलखंड राज्य हथिया लें। इसके लिये वे गाँव-गाँव अखाडे़ चलाकर बलिष्ठों का संगठन बना लेते थे। स्थानीय स्तर पर भूखंड हथियाकर उन पर मठ बनाते जाते और उनमें अपने गुरुओं के चरण चिह्न बनाते चलते। आगे चलकर ये गिरी और पुरी नामक दो पंथों में बँट गये थे। पर लक्ष्य एक ही था, सत्ता पर काबिज होना। किंतु प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की असफलता ने इनके हाथ-पाँव तोड़कर रख दिए।

तो कहा जा सकता है कि इसी अभियान में गुसांइयों ने जैनाधिपत्य सोनागिरि पहाड़ पर कब्जा ज़माने के उद्देश्य से ये छतरियाँ बनाई होंगी, जिन्हें अब एक धीमी रफ्तार से हटा दिया गया है।

लेकिन गुसांइयों के मठों के अतिरिक्त पहाड़ के पूर्वी भाग में एक बुंदेलों का चबूतरा भी है और तलहटी में सोन तलैया भी। और कहावत है कि ‘या तो महोबा में भुंजरिया मेला होता था या फिर सोनागिरि में सोन तलैया पर।’

पहाड़ की साझी संस्कृति का एक और नमूना इस पर स्थित तीन-चार भैरव प्रतिमाएँ हैं, जिनमें कूकर-मुख स्पष्ट अंकित हैं। जहाँ से पुराने कोट को राह जाती है, उसके दोनों ओर स्थापित ये सिंदूरधारी भैरव प्रतिमाएँ आज जैन देव क्षेत्रपाल के नाम से जानी जाती हैं। सोन तलैया इनके दायीं ओर है। भैरव की एक और विशाल प्रतिमा जैन मंदिर नंबर 74 और 75 को जोड़ने वाली राह के मध्य गुफा द्वार में स्थित है, यह भी क्षेत्रपाल के नाम से जानी जाती है।...

पर आज पहाड़ के मंदिरों पर न तो कोई पंडागीरी हो रही है और न वे भट्टारक की रियासत रहे हैं। उनका जीर्णोद्धार, रख-रखाव और मूलनायक भगवान् का अर्घ चढ़ाने का दायित्व अब श्री दिगंबर जैन सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र संरक्षिणी कमेटी ने ले लिया है।

यह करिश्मा लगभग 65 वर्ष पूर्व हुआ जबकि जैनाचार्य श्री 108 शांति सागर जी महाराज ने मुनि परंपरा को बढ़ावा दिया। पहले तो मुनि ही गिने चुने पाये जाते थे।वे इस सदी के प्रथम जैनाचार्य थे। उन्होंने बंबई से सम्मेद शिखर (बिहार) तक विहार करते हुए मुनि धर्म का गाँव-गाँव में प्रचार किया था। मध्यप्रदेश में चातुर्मास कर द्रोणागिरि पहाड़ पर तप किया, तब उन पर शेर का उपसर्ग हुआ। सर्प का उपसर्ग तो अनेकों बार हो चुका था। पर उन्होंने सारे उपसर्गों का निवारण कर दिखाया। यही नहीं जयपुर में दिगंबर वेश के कारण उन पर मुसलमानों का उपसर्ग हुआ। उसे भी शांतचित्त भाव से काट दिया उन्होंने। उनकी अपूर्व ख्याति ने इंदौर के सेठ ‘सर’ हुकुमचंद जैन को (जिनके शीशमहल और रंग-महल आज भी इंदौर में विद्यमान हैं तथा जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने ‘हिजहाईनैस’ की उपाधि प्रदान की थी!) अत्यंत प्रभावित किया। इससे सारे देश में भट्टारक परंपरा को ऐसा धक्का लगा कि कर्नाटक और उत्तरप्रदेश में रूरा को छोड़कर वह सारे भारत में तहस-नहस हो गई।

सेठ ने पहाड़ सोनागिरि को भट्टारक से मुक्त कराकर उसे ‘तीर्थ क्षेत्र संरक्षिणी कमेटी’ के आधिपत्य में दे दिया और हो गया सारा प्रभुत्व समाप्त महाभट्टारक का, कि जिसने तलहटी के मंदिरों में सबसे प्राचीन और विशाल मंदिर वि.सं. 800 में बनवाया था।

पहाड़ पर से कब्जा क्या हटा, भट्टारक का प्रभुत्व क्या मिटा कि सिनावल के भार्गववंशीय ब्राह्मणों से पंडागीरी ही छिन गई। क्षोभ ग्रस्त ब्राह्मणों ने सोनागिरि का सारा इतिहास नष्ट कर डाला। फिर उन्होंने पहाड़ पर जाना ही छोड़ दिया। सोन तलैया पर भुंजरियों की प्रथा कुंद पड़ गई।

और सिनावल की बीसपंथी कोठी, बीसपंथियों के हवाले हो गई। संरक्षिणी कमेटी ने तेरहपंथियों के लिये बायीं ओर त्यागीव्रती आश्रम बनवा दिया। अब भट्टारक प्रथा को ढोते भट्टारक चंद्रभूषण के पास सिर्फ तलहटी के पाँच मंदिर बचे थे। तलहटी के शेष 12 मंदिर विभिन्न जैन समाजी कमेटियों के कब्जे में चले गये। यूँ भी तलहटी के मंदिरों का कोई खास महत्व है नहीं! सारा आकर्षण तो पहाड़ के मंदिरों का ही है! जिन पर सिद्ध क्षेत्र संरक्षिणी कमेटी (दिल्ली वाली) का कब्जा है।

फिर जब देश आजाद हुआ तो भट्टारक के दो गाढ़ी भर हथियार भी जमा हो गये। अब इस परंपरा के अंतिम भट्टारक श्री 108 चंद्रभूषण महाराज के पास समाधिपूर्वक मरण के सिवा कोई चारा नहीं बचा था। लेकिन वे अभी घिसट रहे थे।

बीसपंथी कोठी (पंचामृत जलाभिषेक पंथी) और त्यागीव्रती आश्रम अर्थात् तेरहपंथी कोठी (शुद्ध गर्म जल से जलाभिषेक के पंथी) के मध्य अब जो रास्ता बचा था पहाड़ पर चढ़ने का, वहाँ कमेटी ने गेट बनवा दिया था। इस गेट का विशाल फाटक रात को बंद कर दिया जाता। पहाड़ के मंदिरों से इसलिये बेफिक्री थी, क्योंकि वहाँ सभी पाषाण प्रतिमायें जो थीं और मुख्य मंदिर (मूलनायक) क्र. 57 की सुरक्षा हेतु मंदिर नंबर 58 में एक मुनि और उनके शिष्य क्षुल्लक महाराज रहने लगे थे।

इस नये गेट के बन जाने से हाथी दरवाजा अब गेट नंबर 2 हो गया था।

और चूँकि त्यागीव्रती आश्रम बन जाने से अब पहाड़ पर जाने का इस गेट के सिवा और कोई रास्ता न बचा था, इसलिये शिवालय तक पहुँचने के लिये भी गेट नंबर 1 का ताला खुलने की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। जबकि पहले पहाड़ पर चढ़ने के बजाय हाथी गेट के बगल से ही शिवालय तक पहुँचा जा सकता था।

मंदिरों में भले कुछ नहीं था, पर मुख्य मंदिर में पूजा-सामग्री और बर्तन तो थे ही! दानपेटियाँ भी रोज खोलकर खाली नहीं की जाती थीं। ऐसे में पहले पाकिस्तानी हमले के आसपास मुख्य मंदिर से बर्तन-दानपेटी आदि वस्तुओं की चोरी हो गई। मुनि महाराज तो वहाँ से काफी दूर 58 नंबर में सोते थे, सो उन्हें कोई खबर नहीं पड़ी।

कमेटी ने सिनावल के पूर्व पंडा और साहूकार राधास्वामी दुबे के नाम एफ.आई.आर. दर्ज करा दी।

अब शिवालय का विवाद गहराने लगा।

सिनावल में जैनी तो कोई था नहीं! एक गरीब बनिया, उसकी क्या गिनती? हाँ जी, हाँ जी कहना, इसी गाँव में रहना। सो हिंदू जनता गोलबंद होने लगी।

डेढ़ हजार की आबादी में 800 जन तो भार्गववंशी ही थे! बचे 400 चमार, आठ घर गड़रिया, दो घर नाई, पाँच घर माली, तीन घर बढ़ई, चार घर धानुक, चार घर धोबी, दो घर लोधी, और छह घर काछी सो ये छिटककर कहाँ जाते! भगवान् तो सभी के थे। शिव तो वैसे भी आदि-अनादि हैं। अनार्यों के देव हैं। आर्य अपने देवों तक न जाने दें नीच कौम को, शिव तक जाने से कैसे रोक सकेंगे। फिर इस बहाने मंदिर पर चढ़ने का, देव-दर्शन का और पूजा-आराधना का मौका जो मिल रहा था! सो सिनावल की रिआया शिवालय की ओर दौड़ने लगी थी। कमेटी को इस से घोर आपत्ति होने लगी।

दिन में तो कोई बात नहीं। पर रात में 7 बजे के बाद और सुबह 6 बजे के पहले गेट खोलना उसे अखरता। गेट चौकस बंद रहता। पर इधर भी जोर-जबरदस्ती पर उतर आये थे लोग। दस-बीस इकट्ठे होकर आते और ताला तोड़ कर घुस जाते।

पर दोनों ही बछड़े अभी सींग दिखा-दिखाकर आजमा रहे थे एक-दूसरे को। दूर से ही बल तौल रहे थे। कुश्ती की, मुठभेड़ की नौबत नहीं आ पहुँची थी अभी।

कमेटी ने राधास्वामी दुबे से राजीनामा कर लिया था और बात रफा-दफा हो गई थी फिलहाल।...

लेकिन राधास्वामी की टीस गई नहीं थी। उन्होंने सोन तलैया, बुंदेला का चबूतरा, गुसांई की बड़ी मठिया-अर्थात् मंदिर क्र. 15 (क) और तीनों भैरव बनाम क्षेत्रपाल के स्थानों को लेकर तहसीली में कमेटी पर मुकद्दमा ठोक दिया।

उस वक्त तहसील दतिया के तहसीलदार संयोगवश एक ब्राह्मण-सुत ही थे। 6 महीने बाद उन्होंने फैसला दिया कि ‘बुंदेले का चबूतरा, सोन तलैया और पहाड़ी के पूर्वी भाग वाला भैरव का स्थान ग्राम सभा के आधिपत्य में दिया जाता है।’

कमेटी में खलबली मच गई। दिल्ली-भोपाल-ग्वालियर सब दूर से फोन पर फोन खनक उठे। कलक्टर पर दबाव पड़ा। उन्होंने आश्वासन दिया कि एस.डी.एम. आपके पक्ष में फैसला देंगे।

अपील हुई।

पर तीन महीने बाद एस.डी.एम. दतिया ने भी वही फैसला बहाल रखा। तब तक कलक्टर का स्थानांतरण हो गया और नये कलक्टर को इस विवाद से कोई डर न था। न उसे सामंजस्य की दरकार थी! फलतः रेवेन्यू कोर्ट ने भी वही फैसला बहाल रखा।

कमेटी तो पहले से ही सक्रिय थी! वह मामले को ग्वालियर कमिश्नरी ले पहुँची। औैर सारे रास्ते मूँदने के लिये उसने एक प्रतिष्ठित हाईकोर्ट वकील हरिहर निवास द्विवेदी को एक बड़ी थैली भेंट करने की पेशकश की।...

इस पर उन्होंने अपने दूर के रिश्तेदार ग्राम सिनावल निवासी पूर्व साहूकार और पंडा राधास्वामी दुबे को बुला भेजा।

कहा, ‘इतने दे रहे हैं!’ तथास्तुवाला पंजा दिखाया। अर्थात् पाँच सौ भी हो सकते थे, पाँच हजार भी, और पचास नहीं, इतने नहीं होंगे! राधास्वामी ने सोचा। पर पाँच हजार भी बड़ी रकम है! है तो फालतू का उज्झैंटा।...

तब उन्होंने अपनी बड़ी नाक छोटी की। भूरी और ऊपर को उमेठी हुई मूँछ का अंटा खोलकर नीचे गिराया और गिड़गिड़ाकर बोले, ‘काए जू! नातेदार की न निबेहो? पंचायती कारज है जो तो, आप तो वकील बेरिस्टर के सिरमौर, कानून की किताबें लिखत हो, माया को का पार! कोठी पे कोठी, मोटर-गाड़ी सब हैं।’

‘अरे भाई!’ आत्मप्रशंसा से मुग्ध द्विवेदीजी का महामानव की छवि-सा तेजोमय और भारी-भरकम चेहरा बोला, ‘ये छोटे-मोटे रेवेन्यू ऐक्ट के केस मैं तो लेता नहीं, जूनियर लोगों की बात थी और कमेटी यहाँ आकर गिरी! तुम ये तो देखो।’

‘सबई तुमाइ महिमा है महराज!’ राधास्वामी की अदृश्य दुम हिल उठी।

‘ठीक है, जाओ! फिक्र न करो।’ द्विवेदीजी ने अभयदान दे दिया।

फैसला टाइप होकर मिल गया। मुद्रा पर कमिश्नर के ऑरीजनल हस्ताक्षर चमक रहे थे। राधास्वामी की भूरी मूँछ शान से खिल उठी। बल्कि तनिक और चढ़ गई ऊपर की ओर। फैसला बहाल रखा गया था।

जीत की खुशी में महेबा के यादव, बड़ौनी के बामन, और सेंबरी, सुनारी, ऐरई की रैयत यानी पहाड़ के चौतरफा ग्रामों की हिंदू जनता शरीक हो गई थी।

अब तय था-

लगेगो भुंजरियों का मेला सोन तलैया पे जा साल!

मिलनी होयगी आठो गाँव की सोन तलैया पे जा साल!

शिवाले पे भुंजरियाँ चढ़ायेंगे हम।...

भैरों पे, अपने बाबा पे नाचेंगे-गायेंगे हम।...

खुला नईं ताला तो तोड़ देंगे फाटक, बहा देंगे खून! अर्थात्- हमें चढ़ा जुनून।...

लेकिन दतिया की चतुर कलक्टर अरुणा शर्मा ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए पहाड़ के पूर्वी भाग की तलहटी में सिनावल से सोन तलैया तक पी.डब्लू.डी. के द्वारा डब्ल्यू.बी.एम. रोड डलवा दी।

कुशल एस.पी. शुक्ला ने गाँव का दौरा कर मोज्जिज लोगों को अपनी चतुराई से इस बात के लिये राजी कर लिया कि भुंजरियाँ सोन तलैया तक पहाड़ का चक्कर काटकर नई सड़क से ले जायें।...

और एस.पी., कलक्टर ने कमेटी को भी इस बात के लिये राजी कर लिया कि ये लोग भुजरियाँ सिराकर शांतिपूर्वक पहाड़ के रास्ते से लौटंगे तथा शिवालय में भुंजरियाँ चढ़ाकर पहाड़ के प्रवेश द्वार से गाँव लौट जायेंगे.

कुछ नहीं होगा!

हम सब रहेंगे।...

प्रशासन हर कदम पर आपके साथ होगा।

फिर, अंधा क्या चाहे, दो आँखें!

जानते हैं लोग-सांप्रदायिकता भड़कने पर प्रशासन ही झुकता है। इसलिये भड़के और राजी इसलिये हो गये कि गाँव में सामान्यजन भी महत्त्व पा गया। कमेटी और सिनावल दोनों का ही एस.पी. और कलक्टर से सीधा हाथ मिल गया। भुंजरिया-प्रसंग में तो यही राजनीति थी।

फिर शक्ति प्रदर्शन का झूठा ड्रामा खेला गया। जैसे, रामलीला में पुट्ठे की तलवारें भाँजी जाती हैं! तीन-चार ग्रामों की सैकड़ों लड़कियाँ राखी की पूर्णिमा को सज-धजकर अपने हाथों में भुंजरियों के खप्पर ले-लेकर गाती-इठलाती हुई सड़क मार्ग से सोन तलैया तक पहुँची। महोबा की तर्ज पर भुंजरियाँ सिराई गईं सोन तलैया में। बुंदेला के चबूतरे पर जमा पुरुषों की जमात भंजरियों का आदान-प्रदान कर एक-दूसरे के गले मिली। हँस-हँस कर मिलनी की। और फिर पूरी रंग-बिरंगी भीड़ भैरव के बगल में होकर पहाड़ पर चढ़ आई जिसकी अगवानी करने कलक्टर, एस.पी. और कमेटी वहाँ पहले से मौजूद थी!

इस तरह एक अनूठा भाईचारा कायम हो गया था, सो कनटोपधारी सिर, जाली पकड़े वर्दी के हाथ अपनी जान की, अब तक की नौकरी की सुरक्षा का अहसास कर तालाब के नये कमलदलों की तरह अपनी समग्रता में खिल उठे थे।

जीत के उल्लास में बतियाते हुए पुरुष और उमंग में गाती हुई लड़कियाँ पहाड़ पर बने मुख्य परिक्रमा मार्ग से हाथी गेट पार कर बायें घूम गये शिवालय की तरफ।

घोर घंटा-ध्वनि और असंख्य कंठों से भोले की जय-जयकार हुई। फिर सबके सब भेड़ों के झुंड की मानिंद फाटक से बाहर निकलते चले गये।

अरुणा ने शुक्ला को और शुक्ला ने अरुणा को इस संयुक्त कामयाबी पर ढेरों बधाइयाँ दीं। उसके बाद यह लगभग रस्म ही बन गई प्रत्येक रक्षाबंधन पर्व के लिए।

गाँव इससे ज्यादा और क्या चाहता!

गाँव की भी तो अपनी मजबूरी थी आखिर! जो उसने अपनी राजी-खुशी से तलहटी की तमाम जमीन खुद ही जैन बंधुओं को ऊँचे दामों पर बेच डाली थी मंदिरों और धर्मशालाओं के लिए! कि आखिर स्याद्वाद जैन विद्यालय में ही तो पढ़ते हैं उसके बच्चे। जहाँ केवल एक पीरियड होता है धार्मिक शिक्षा का, बाकी सब तो कोर्स की बातें हैं! फिर वह कोई विरोध क्योंकर मोल लेता? धर्मशालाओं और नित नये मंदिरों का निर्माण कार्य रुक जाने से तो सौ-डेढ़ सौ मजदूरों और राजगीरों के हाथ कट जाने थे! फसाद से अगर डर जायेंगे बनिया और नहीं भरेगा मेला तो किराना, सब्जी, चाय, होटल लगाने वाले उसके दुकानदारों का क्या होगा? अगर नहीं आएँगे बनिया लोग दर्शनार्थ, उनके तो देशभर में सैकड़ों सिद्ध क्षेत्र हैं, तो मालियों का क्या होगा? जो आज भी मंदिर का चढ़ावा (चावल, लौंग, बादाम, खोपरा गोला वगैरह) समेट लाते हैं? पूजा के लिए (तिपनिया) दूध, दीपक बेचने वालों का क्या होगा? असाध्य श्रावकों को डोली लगाने वाले कहारों और श्रावक-शिशुओं को गोदी ले जाने वाली गरीब लड़कियों का क्या होगा?

अजी सिद्ध क्षेत्र के कारण ही तो टेलीफोन एक्सचेंज और रेस्ट हाउस है सिनावल में! नहीं तो न टेलीफोन सुविधा-एस.टी.डी./आई.एस.डी. हो पाती इस कदर और न अधिकारियों से रोज-ब-रोज विश्रामालय में आने पर मिलाई का, अपनी समस्यायें रखने का लाभ मिल पाता। इसी गहमा-गहमी की वजह से बिजली लगातार मिल पाती है। पेयजल सुविधा मुहैया कराने में कितना बड़ा हाथ है बनियों का।...

सिनावल तो प्रसिद्ध है इसी से! इसी चंदाप्रभू के समोसरण से। नहीं कौन पूछता? बड़ौनी, सेंबरी, सुनारी, ऐरई, महेबा कैसे सड़ रहे हैं!

अब भूतपूर्व पटेल और पूर्व सरपंच राधास्वामी दुबे भी सोच बैठे हैं, ‘चलो, बरन देउ उतैं, हमई खों का करनै। अब जब बामनई कौ कोनेऊ ईमान नईं रऔ, कां पैलें पंडा रए, चढ़ाओ लेत ते, अब धरमसालान में बानियन की धोतियाँ धो रए हैं’

पर कभी-कभी आज भी खयाल आता है गाँव को कि एक दिन वो भी था, जब पहाड़ी के नीचे वाले गाँव के तालाब पर डोल ग्यारस के दिन लड्डूगोपाल खों तला में इस्नान कराउन ले जात ते अब बा तला में डिल्लीवारी धरमसाला और बीसपंथी कोठी की लैटरीन के गड्ढा हैं!

और सभी की नाक सिकुड़ जाती है। एक सड़ांध-सी चढ़ जाती है मगज पर सो अब ज्यादातर कोई शिवालय में भी नहीं जाता। घर में ही ठाकुरजी के आले पर अगरबत्ती घुमाकर ‘ओम जै जगदीस हरे’ गा लेते हैं। कमरा सुगंध से भर जाता है। मौज से सो रहते हैं।

(क्रमशः)