Namo Arihanta - 9 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 9

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नमो अरिहंता - भाग 9

(9)

बीज

**

जिस आचार संहिता में यह कहा गया है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः’ अर्थात्-जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं! उसी आचार संहिता में यह भी कह दिया गया है कि स्त्रियाँ साक्षात् नर्क का द्वार हैं।...

सो, इस्लाम में ही नहीं, जैन में भी यह अपवित्र स्त्री धर्म और ईश्वर से थोड़ी दूर ही रखी गई है।

सेठानी को जलाभिषेक (ईश्वर को नहलाने) का अधिकार नहीं था। गंध्योदक (मूर्ति स्नान का जल) वे अवश्य अपनी आँखों में और समस्त शुभ अंगों में लगा सकती थीं। और लगाना लाजिमी भी था। पर मूर्ति को छूने का हक नहीं था उन्हें।

हीनता सिद्ध हो जाये अथवा श्रेष्ठता, सफलता मिल जाये अथवा असफलता मनुष्य को ईश्वर की शरण में तो आना ही पड़ता है और जहाँ अपने अहं भाव का मर्दन होता है- पूजापाठ, आराधना, जाप में वहीं उसका तुष्टिकरण भी होता है। तभी तो मनुष्य दूसरों को दिखा-दिखाकर करता है, पूजा!

कि हे ईश्वर, मैं कितना दीन-हीन, आत्म-समर्पित हूँ तेरे आगे, यह समाज साक्षी है। क्या पता, कहीं तेरे लिये यह रात्रिकाल हो! मेरा जीवन ही क्या, कितने युग निकल जायें? तेरा एक दिन कितने-कितने युगों के बराबर और तेरी एक रात्रि कितने-कितने युगों के बराबर! तू ही जाने। वैसे भी यह पंचम काल है, इसमें किसी को मोक्ष की प्राप्ति होना ही नहीं है। सो, इस वक्त तू कहीं सोया हुआ हो तो ये समस्त आत्मायें साक्षी!

और मैं पूजा करता हूँ, इस बात का कुछ तो घमंड है, होना ही चाहिये मुझे! इसलिये मैं ऐसे मौके की तलाश में हूँ कि सब देख लें-ऐसे वक्त पर, ऐसे स्थल पर पूजा करूँ। अपने प्रमाद में न सुन पायें तो माइक लगाकर आज तो सुना ही डालूँ इन्हें अपनी (देव) वाणी! कि देखो, मैं हूँ भक्त! मेरे हृदय में है अपने सर्जक के प्रति अनंत श्रद्धा भाव! मैं उस उपकारी को एक क्षण भी भूला नहीं हूँ। उसके अगणित मठ-मंदिर बनवाये हैं मैंने। उसकी धर्मध्वजा चहुँओर फहरायी है मैंने। कि मैं सार्वजानिक रूप से आत्मालोचना कर अपनी हीनता को प्रकट करता हुआ अपने अहं को तुष्ट कर रहा हूँ ताकि तुम भी जान लो मुझे, मेरे जाति-धर्म को, कि जिसके पालन में मैं अपने प्राण तक होमने को तत्पर हूँ आज! मेरे ईश्वर को जान लो और नक्कालों से बचोऽ! हाँ-हाँऽ! वही तो इस संसार का असली भगवान् है और सब तो उसकी नकल (अवतार भर) है।

सो, हाल के ही कुछ वर्षों से वैष्णों देवी के फिल्मी प्रताप से और कलकत्ता की देवी पूजा की होड़ में नगर भर में ब-तर्ज डिस्को रातभर देवी जागरण के अखाड़े लग उठे थे।

और कौन कहता है, जैन में देवियाँ नहीं थीं? जो तुम्हारे यहाँ दुर्गा बनी बैठी हैं, वे देवी पद्मावती ही तो हैं! हमारे यहीं से तो गई हैं।...

परिणामतः सेठानी ने अपनी कोठी के एक हिस्से में देवी पद्मावती का मंदिर बना लिया था। नगर भर के लिये यह सेठ की पहचान (नीली कोठी वाला सेठ) कोठी, अब देवी की पहचान भी बन गई थी। इसे पद्मावती देवी के बजाय नीली कोठी वाली देवी कहना ज्यादा सरल पड़ता।

इस मंदिर के निर्माण से सेठानी धर्म में और भी तल्लीन हो आई थीं। और कोई जरा पूछ धरे, कि कौन हैं देवी पद्मावती? वे फौरन कहतीं, ‘श्री अहिच्छत्र (राम नगर किला) में हमारे 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथजी स्वामी जब अखंड तप कर रहे थे, तब उनका तप खंडित करने के लिये दसव (दशभव) के बैरी कमठ ने प्रचंड आँधी, ओले और आग के शोले बरसाकर घोर उपसरग (उपसर्ग) किया। तब धरणेन्द्र-पद्मावती ने फण-मंडप रचकर उपसरग-निवारण किया, तब भगवान् निर्विघ्न तप करके केवलज्ञान पाकर अरहंत पद को प्राप्त हुए।’

और कोई नहीं पूछता तो भी वे इस नये मंदिर के बारे में स्वतः बता उठतीं, ‘हमारे यहाँ तो 24 देवियाँ हैं। हरेक तीर्थंकर भगवानजी के साथ देवी है।’ आदि।

मंदिर हॉल के एक हिस्से में प्लाई से पार्टीशन बनाकर 8 गुणा 10 वर्ग फीट के केबिन नुमा ढाँचे में बना हुआ था। मंदिर में चार सीढ़ी वाले सिंहासन की छत से लगी पहली सीढ़ी पर पर्यक में पीतल के महावीर स्वामी, दूसरी पर अष्टधातु की पद्मावती! जिनके पीछे यूकिलिप्टस के तने-सा पतला साँप। साँप का फन देवी पद्मावती के सिंहासन के ऊपर मंडप के आकार का और इस फण-मंडप में पार्श्वनाथ पर्यक में विराजमान। अखंड तप में लीन। जिनकी आत्मा सिद्धालय में रखी हुई और सिर्फ पार्थिव शरीर यहाँ स्थित!

देवी की वह अद्भुत लीलाधारी प्रतिमा देखते ही बनती।

तीसरी सीढ़ी पर पूजा सामग्री बिखरी हुई होती। और चौथी यानी सिंहासन की सबसे निचली सीढ़ी पर जिनवाणी की तीन-चार पुस्तकें। फिर पटे पर पीले और सफेद चावल नदी की ताजा बजरी की तरह पसरे हुए।

सेठानी सुबह-शाम खूब भगतिन बनी रहतीं। मूर्ति को बार-बार छूने, जलाभिषेक करने, और पुनः-पुनः प्रक्षालन में एक हीनताबोध सर्वथा साकार हो रहा था। कि देवी की पूजा का अधिकार तो है। भगवान् की नहीं तो क्या हुआ? देवी ने तो ‘कमठ’ से भगवान् की रक्षा की फण का सिंहासन बनाकर सिर पर बिठा लिया, नहीं तो तप खंडित हो जाता। केवलज्ञान न मिल पाता भगवान् पार्श्वनाथ को। और फिर कौन-सा भगवान् है धरती पर, जो देवी की कोख से नहीं हुआ?

घर में मंदिर हो जाने से सेठानी का महत्त्व अब कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था, जैन समाज में और खासकर स्त्री जैन समाज में!

क्योंकि देवी पद्मावती पर जल चढ़ाने, उनकी पूजा करने प्रायः धर्म प्राण श्राविकाओं को आना ही पड़ता और जब वे कोठी की सीढ़ियाँ चढ़कर आ बैठतीं, तो सेठानी के गुण भी गातीं। अंजलि के घर-वर की तारीफ करतीं। और जो-जो सेठानी को सुहाता, सो-सो कहती, बेचारीं।

बस्ती से दूर नदी के किनारे जहाँ थोड़ा-सा जंगल था, वहाँ किसी पूर्व काल में नसिया का निर्माण कराया गया था। उस काल में जैन साधु बस्ती के जिनालय में आकर नहीं ठहरते थे। साधु को यूं भी वन में ही रहना चाहिये! सो, वन स्वरूप नसियाजी में उस समय केवल एक बड़ा हॉल था। जिसमें संगमरमर के सिंहासन पर तीर्थंकरों की चौबीसी स्थापित करा दी गई थी। मगर जैसे-जैसे नगर का विकास हुआ नसियाजी के सामने पड़ने वाला रोड पक्का हुआ। उसी रोड पर गल्ला मंडी पहुँची। उसी दर से नसियाजी का आकार भी बढ़ता गया।

फिर हॉल के सामने एक कीर्ति-स्तम्भ भी बनवा दिया गया। पीछे धर्मशालानुमा कई कमरे। दर्जन भर लेट्रीन-बाथरूम। बायीं ओर विशाल सभा मंडप। दायीं ओर मेला लगाने के लिये 200 गज लंबी-चौड़ी खुली जगह।...

पर कोढ़ में खाज यह कि अतीत काल से ही नसियाजी के बगल में ही एक छोटी-सी देवी की मठिया भी बनी हुई है, जिस पर पहले अव्वल तो दूरी के कारण और दूसरे जंगल की वजह से कोई औरत जल चढ़ाने नहीं जाती थी। लेकिन जब से नसियाजी का आकार वृहद से वृहद्तर हो गया है और परकोटा खींचकर उसका गेट बना दिया गया है, तब से देवी मठिया, देवी मंदिर होकर जीवन्त हो उठा है। और असल मुसीबत यह है कि इस देवी मंदिर के लिये नसिया के गेट से होकर जाना पड़ता है, अब! क्योंकि मंदिर का परकोटा नदी के कगार तक पहुँच गया है। उधर से प्रवेश और निर्गम का द्वार ही कहाँ बचा है?

मंदिर के जीर्णोद्वार के लिये जो ट्रस्ट बना है, उसके आजीवन ट्रस्टी सनातन धर्म को सर्वांग समर्पित पूज्यपाद मामाजी हैं। और मामाजी पूजा झाँकी में भी माहिर हैं, इसलिये उन्हें इस मंदिर का पुजारी भी बना दिया गया है।

‘अब कहिये, रहीम जी,’ नगर के एक प्रसिद्ध आर्य समाजी और वयोवृद्ध स्वंतत्रता संग्राम सेनानी दादा सूरज भान तिराहों-चौराहों से गुजरते लोगों से हठात् पूछ बैठते, ‘कैसे बने केर-बेर को संग? कि नगर में नित नई उत्सव प्रियता बढ़ती जा रही है। कभी ‘पंच कल्याणको’ की धूम होती है तो कभी ‘श्रीराम नाम ज्ञान यज्ञों’ की।

इन समारोहों में होड़ा-होड़ी बैंड-बाजों, माइकों, रथों और शोभा यात्राओं का जलजला-एक गगन भेदी शोर दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है। जैसे- धरती का ताप और समुद्र का जल स्तर!

कि सारा नगर ही धर्ममय-ज्ञानमय हो उठा है, अब तो! अपने-अपने मंचों से ऐसे-ऐसे प्रवचन होते हैं कि जन-जन उपकृत हो उठता है! हर शख़्स स्वयं को अपने स्वर्णिम ‘दैवीय अतीत’ से जुड़ा हुआ पाता है और वेदिका के सम्मुख सारे कर्मों को विलुप्त कर सतयुग में प्रवेश पा रहा है, जहाँ त्रिविध ताप नहीं होते, बैर-भाव नहीं होता, मोक्ष अत्यंत निकट प्रतीत होता है।’

पर लोग उनकी बातों पर तवज्जह न देते। हँसकर टाल देते। जबकि वे लगातार बड़ी गहराई से महसूस करते कि- इस युग में संतों और अवतारों की ऐसी बाढ़ आई है जो कोटि-कोटि प्रकार के पापियों को स्वर्गधाम की ओर निस्संदेह बहा ले जाएगी। मानो धर्म जादू का टोप बन गया जिसे जो भी पहन लेता है, वह उसी का आकार ले लेता है। उसी साँचे में ढल जाता है। उसी परिभाषा से परिभाषित हो उठता है! और विडंबना यह कि ये सारी परिभाषाएँ एक-दूसरे की जानी दुश्मन बनी हुई हैं।...

बहरहाल, इन अनुष्ठानों के लिए न दानदाताओं की कमी थी, न आदि अनादि देवी-देवताओं और उन ग्रंथों की जिनके सहारे यह सारा धार्मिक कारोबार चल रहा था! और इन गतिविधियों पर चिढ़ते तो नगर के एक कम्युनिस्टी भी थे। किंतु वे दादा सूरजभान की तरह गली-मोहल्लों में नहीं बल्कि किसी धार्मिक मंच से ही अवसर हाथ आ जाने पर जूता-सा मार बैठते थे। उस वक्त उनकी स्पीच कुछ यूं हुआ करती-

‘हाँ भई, सारा ज्ञान-विज्ञान, सारी कला, सारी सभ्यता इन्हीं में तो समाहित है।

पता है! हमारी हर परंपरा, हर रीति-रिवाज, हरेक क्रिया, हरेक अंधविश्वास का एक वैज्ञानिक आधार है हाँ! सब कुछ पहले ही खोज लिया गया था। अब कोई मानवीय खोज उस दैवीय-रहस्य को कभी खोल नहीं पाएगी। लेकिन मेरे सिरफिरे साथियो, यह सारी धूम-धाम, धमाचौकड़ी इस बात से बेखबर है कि यह इस युग के आदमी की अतीत में वापसी है! वापसी-मानव-सभ्यता के शिशुचरण में कि जब उसने सूर्य से डर कर उसे देवता मान लिया था। प्रकृति के अधीन वह शिशु अग्नि को देवता मान बैठा था। वरुण का पूजक बन बैठा था ताकि वर्षा से धान्य उपजा सके । जानवरों से भयभीत होकर उस देवी का आविष्कार कर बैठा था जो सिंहवाहिनी थी।’

बीच-बीच में संयोजक टोकता, माइक छीनने की कोशिश करता! पर वे और उग्र होते जाते, ‘तुम्हारे यहाँ सूअर भगवान्, बंदर भगवान्, कछुआ तक भगवान् खून पीने वाली देवियाँ और विष पीने वाले देवता!’ और अंततः आयोजक उन्हें मंच से उतार देते। और मंचस्थ गुरुओं से क्षमा-याचना करने लगते। तब वहाँ उपस्थित धर्मप्राण जनता भी उन्हें ‘पगला’ कहकर हँस पड़ती। और सारे ढोंग बदस्तूर झेलती रहती।...

एक सर्वशक्तिमान सत्ता की संकल्पना हमारे यहाँ बहुत पुरानी है। लेकिन इस सर्वशक्तिमान सत्ता को भी अस्तित्व प्रदान करने वाली शक्ति है, मातृदेवी या शक्तिदेवी! तभी तो कहा गया है- ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता’ और देवियों में भी दुर्गा को प्रधानता दी गई है।

और वैसे तो नवरात्र पर्व वर्ष में दो बार चैत्र तथा आश्विन मास में मनाया जाता है, लेकिन शक्ति प्राप्ति के लिए आश्विन मास की प्रतिपदा से शुरू होने वाले नवरात्र पर्व का विशेष महत्त्व है।

सेवानिवृत्ति के उपरांत मामाजी सर्वथा शक्ति के पुजारी हो गये। अब वे आश्विन नवरात्र पर्व पर नसियावाले देवी मंदिर में 15-20 रोज पहले ही डेरा डाल लेते हैं। इस अवसर पर मंदिर में स्थापित देवी की पुरानी काली और बदरंग मूर्ति से उन्हें कुछ नहीं लेना-देना होता, वे तो नसियाजी के हॉल के बगल में एक बड़ा-सा मंडप बनवाते हैं! उस विशाल स्टेज पर भव्य पहाड़! पहाड़ में झरने-नदियाँ, जंगल, शेर-चीते सब होते हैं! और चोटी पर होती है अष्टभुजा दुर्गा की जीवन्त मूर्ति! और जिनके मुकुट से और तथास्तु की मुद्रा वाले हाथ के पंजे से किरणें-सी फूटती रहती हैं।

पहले के नवरात्रों में मामाजी घर में ही कलश स्थापित करा लेते थे। उसी के आगे दुर्गा सप्तशती और रामचरितमानस का पाठ कर लिया करते। पर अब वे नसिया के बगल वाले देवी मंदिर पर लगाते हैं मजमा। जिससे सारा नगर उमड़ पड़ता है वहाँ!

सेठानीजी मामाजी से कम प्रदर्शनप्रिय नहीं हैं। नसियाजी पर दुर्गा के नवरात्र महोत्सव की धूम हो और देवी पद्मावती हमारी ही कोठी में एक कोने में विराजी रहें, यह किसे गवारा था? सो, प्रतिपदा से दो दिन पूर्व ही एक जलसा कर प्रतिमा-प्रस्थान के लिए बोली लगवायी जाती महावीर चौक स्थित जिनालय में। और जो जैनी सबसे ज्यादा रकम लगाता वही हाथी के हौदे पर देवी पद्मावती को सिंहासन समेत बैंडबाजों की घोर के मध्य नसियाजी पर ले जाता। जहाँ उन्हें एक टेम्परेरी मंदिर में मंत्र जंत्रित विधि से स्थापित करा दिया जाता।

फिर सजाई जाती झाँकी। जिसमें होते कमठ के उपसर्ग। पहाड़। झरने। वन। बिजली की चकाचौंध। रंगों की बौछार।...

इधर भी बगल में दुर्गाजी के रथ में चार-चार शेर जोत दिए जाते। और पहले ही दिन ऊँचे माइक की ऊँची आवाज से कुछ यूँ कनफोड़ हो उठता-

ॐ ऐं आत्मतत्वं शोधयामि नमःस्वाहा

ॐ ऐं विद्यातत्वं शोधयामि नमःस्वाहा

ॐ क्लीं शिवतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा

ॐ ह्रीं क्लीं सर्व तत्वं शोधयामि नमःस्वाहा

और हॉल के दूसरे तरफ से ऐसी स्वाहा-स्वाहा सुन कर मानो प्रतियोगिता में कई नारी कंठ एक साथ माइक में गूँज उठते-

पद्मासिना जिनशासिनी, पद्माम्बिकामाता।

पद्माक्षिणी शुभकामिनी वरदायिनीमाता।

आदि-आदि-आदि।

रात को दोनों ही स्टालों पर शंख-घंटादि भारी कनफोड़ के मध्य अपनी-अपनी आरती होती। प्रसाद बँटता। तदन्तर भी माइकों को चैन नहीं पड़ता। रात-रात भर बेचारे चीखते रहते। स्तुतिगान, भजन-कीर्तन किया करते। गले बैठ जाते, थकते कदापि नहीं!

थक-हारकर धर्मप्राण जनता संतुष्टि का भाव लिए आधी रात के बाद नगर की ओर लौटती।

पद्मावती मंडप की तारीफ होती और सेठानी मन-ही-मन फूलती जातीं।

दुर्गाझाँकी की तारीफ होती और मामाजी मन-ही-मन फूलकर मुंडी के साथ दाढ़ी हिलाते जाते।

जिस तरह रात्रि में सरोवर के कमल सुबह की राह तकते हैं या भरी हुई तोप पलीता धरे जाने की घड़ियाँ गिनती है कि कोई बंधी हुई नदी बांध की छाती फट जाने की प्रतीक्षा करती है! ठीक उसी तरह दोनों के भीतर बहाने मचल रहे थे-मिट जाने के लिए, धर्म के नाम पर मर जाने के लिए!

(क्रमशः)