Namo Arihanta - 7 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 7

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नमो अरिहंता - भाग 7

(7)

प्रसंगवश

**

आनंद को गये दो बसंत बीत गये हैं, पर प्रीति का लगाव नहीं घटा है।

इस बीच अंजलि का प्रेम तुड़वाकर गंगापुरसिटी के एक धनीमानी सेठ घराने में उसका रिश्ता जोड़ दिया गया है। कि जिनका कारोबार करोड़ों में फैला हुआ है!

कहाँ तो सेठ अमोलकचंद राइस मिल चलाकर, दालें-तिलहन आदि की आढ़त का व्यापार करते हुए खुद को धन्ना सेठ समझते रहे, जैसे- गूलर के फल के कीड़े! समझते हैं कि ब्रह्मांड यही है। बाहर निकल ही नहीं पाते। और निकलते भी हैं तो उसी वृक्ष पर लगे अगणित गूलर फलों को ठीक से निरख भी नहीं पाते, हवा खाकर मर जाते हैं।...

सेठ अमोलकचंद के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था कि- अब तक भिंड-मुरैना-

ग्वालियर-दतिया से आगे की दुनिया उन्होंने देखी ही नहीं थी। पर जब अंजलि के प्रेम-प्रसंग की खबरें उनसे ईर्ष्या रखने वाले महावीर चौक के जैनसमुदाय ने अम्बाह-पोरसा-डबरा तक फैला दीं तो मजबूरन उन्हें अपने खोल से बाहर निकलना पड़ा।

और उन्होंने पाया कि गंगापुरसिटी के सेठ मदनलालजी काला तो करोड़ों में खेल रहे हैं। जिन्होंने एक वक्त ‘मिस्टर स्कूटर शोरूम’ से डेली कलेक्शन बेसिस पर एक-दो स्कूटर गंगापुरसिटी में ही सेल करने का धंधा शुरू किया था वह आज बीस से ऊपर शहरों में फैल गया है!

मदनलालजी ने एक समूह बना लिया है- ‘काला ग्रुप ऑफ कम्पनीज’ के नाम से। और आज स्थिति यह है कि प्रत्येक शोरूम से कम-से-कम दस स्कूटर प्रतिदिन फायनेंस किये जा रहे हैं। ये स्कूटर 80-90 रुपये प्रतिदिन की किस्त पर सुलभ कराये जाते हैं। उनका वसूली तंत्र बड़ा तगड़ा है। 20 स्कूटर के पीछे एक युवक तैनात किया गया है।

तब अमोलकचंद को पहली ही भेंट में श्री काला ने बताया कि आज उनका समूह ‘लिजिंग फायनांस, स्टॉक मार्वेट, एग्रोबेस्ड एक्टीविटीज, एक्सपोर्ट, भवन निर्माण, विदेशी मुद्रा, होलिडे रिसोर्ट्स’ आदि के कारोबार में जुटा है और यह भी कि वे शीघ्र ही ‘बैंकिंग व एअरलाइंस’ के क्षेत्र में कदम धरने वाले हैं।

बाद में सेठजी को पता लगा कि ‘काला ग्रुप ऑफ कम्पनीज’ ने निवेश की भी नायाब योजनायें पेश की हैं। एक वर्ष तक एक हजार माहवारी देकर आप ‘संपत्ति सहारा-एक’ योजना में तीन साल बाद से प्रतिमाह सात सौ रुपये पाने के हकदार तीस वर्षों तक बने रहेंगे। और तीस साल बाद आपको एक मुश्त दस लाख भी मिल जायेंगे। उसी तरह ‘संपत्ति सहारा-दो’ में आपको आवेदन के साथ एक मुश्त 32,000 जमा करने होंगे। एक वर्ष के अंतराल के बाद आपको प्रतिमाह 700 रुपये मिलने लगेंगे। और तीस वर्ष बाद आपको ‘दस लाख’ एक मुश्त मिलेंगे। उनकी ‘शेयर शापी’ में ढाई प्रतिशत कटवाकर तुरंत भुगतान की व्यवस्था है।

उनकी कटरा में एक फाइव स्टार होटल की योजना है। संप्रति 21 लक्जरी बसें दिल्ली से विभिन्न स्थानों के लिये निकट भविष्य में ही चलायी जाने लगेंगी।

और सेठजी ने तो इतना ही आकर बताया था सेठानीजी को। पर इस घराने से संबंधित और भी तमाम खबरें सेठानी ने कुछ इस तरह फैला रखी थीं-

1.कि ‘काला ग्रुप ऑफ कम्पनीज’ एक लाख तक वर्किंग कैपीटल भी सुलभ कराते हैं। किंतु कोई भी ऋण एक वर्ष से अधिक तक की अवधि के लिये नहीं रहता है। उनकी उगाही बड़ी सख्त है। 99 क्या 101 प्रतिशत तक होती है! उनके विल्खालेक भुवनेश्वर में 5000 एकड़ भूमि तथा 20 किलोमीटर का समुद्री किनारा सुलभ है।

2.मार्च 1977 को समाप्त वर्ष में 200 करोड़ का कामकाज किया गया है तथा मार्च 1978 को समाप्त होने वाले वर्ष में 250 करोड़ के कारोबार की उम्मीद है और मूल बात, कहं क्या, शताब्दी अंत तक 10,000 करोड़ के कारोबार की उम्मीद बन जायेगी आदि।

और गोहद के महावीर चौक के ईर्ष्यालु बिरादर भाइयों की नींद हराम कर देने वाली इन तमाम खबरों में से एक चुटीली खबर यह भी थी, जो जाने किसने फैलायी-

कि एक समय के खलीफा रहे रामदास पंडत के परम् शिष्य पहलवान पप्पू अमोलकचंद जब गंगापुरसिटी पधारे और उन्होंने करोड़ीमल सेठ मदनलालजी काला से पूछा कि बात कैसे बनेगी महाराज! तुम गगन के चंद्रमा हो, हम धरा की धूल हैं! तो कालाजी ने कहा, ‘देख लो धणीं, लड़का तो हीरा है, हीरा! एकदम चोखा रतन!’

सेठ बोला, ‘तो महाराज! उस खान का हमें भी पता बता दो, कि जिससे आपने यह नायाब हीरा निकाला है हम भी उसी से दो-चार रतन निकाल लें! कि जिससे मुझ गरीब बनिया का बुढ़ापा सुधर जाय’

और एक-दूसरे को आँख मारते हुए, ताली देकर लोग एक-दूसरे को बताते कि तब काला सेठ खिसिया गया, कि उसने पप्पू अमोलकचंद को सेठानी के गोंड़े (पास) भिजवा दिया! और पप्पू वहाँ से उनका दूध पीकर लौट आये।

फिर!

फिर क्या? इतने में तो सगाई क्या, पूरी जैदाद (जायदाद) नाम करा देती सेठानी पप्पू अमोलकचंद के ।’

प्रीति इन बातों को सुनकर बहुत खिसिया जाती, क्योंकि उसे पता था कि जब पापा ने जीजी के ससुर से अपनी हालत बयान कर दी और रोने लगे, कि महाराज, मोहे निभालेउ। तब उन्होंने एक ही बात कही थी-

‘सेठजी, आप जैन हैं! हमारे लिये इतना ही बहुत है। धन-दौलत आणीं-जाणीं

लड़की ठीक है! बस, शोभा-रूप रख लीजो हमारा।’

और जीजी का रिश्ता सध गया।...

तभी सेठानी कुंदुकुंदु स्वामी को रोज सुमिरिती हैं, के जिनकी मेहर से गूंगा बोले, अंधा देखे, नीलगिरी पे लंगड़ा पहुँचे हे स्वामी! हे नाथ, प्रीति के लाने भी ऐसोई रिश्ता बताइ दीजो।...’

अंजलि की सेटिंग से प्रसन्न बदन सेठजी ने अपने त्रिस्तुतिक समाज की कमेटी बनवाकर गोहद में एक प्राइवेट कॉलेज खुलवा दिया था। सेठानी का विचार था कि प्रांगण में देवी पद्मावती की मूर्ति पधरे! पर कमेटी को इस पर भारी आपत्ति हुई। उसके विचार से प्रतिमायें सार्वजानिक स्थलों पर नहीं लगाई जा सकतीं। देवी-देवताओं को स्टेच्यु नहीं बनाया जा सकता। कि उनकी देवियाँ अगर सार्वजनीन होने लगीं तो धर्म का क्या स्वरूप रह जायेगा। उसे विस्तार नहीं चाहिये, एक जाति विशेष का घेरा चाहिये, बस! इस तरह फैलाने से तो सनातन धर्म की तरह जैन धर्म भी दाल-रोटी हो जायेगा। उसका महत्त्व और हमारी जातीय पहचान मिट जायेगी।

और चूँकि जैन में कोई सरस्वती या नाहिद नहीं हुई, संगीत या विद्या की देवी नहीं हुई, इसलिये लाख हिंदू की होने के बावजूद कॉलेज के प्रांगण में सरस्वती की संगमरमरी मूर्ति ही स्थापित कराई गई। हाँ यह बात अलग कि मूर्ति के ऊपर छतरी की आवश्यकता पर बल नहीं दिया कमेटी ने। सो, बारिश और धूप की मार से पहली ही साल में सरस्वती की चमक उतरने लग गई थी। तब बी.ए. सेकंड ईयर में आकर छात्र संघ की अध्यक्षा बनते ही कुमारी प्रीति जैन ने छतरी की माँग को लेकर कमेटी के खिलाफ आंदोलन किया था और अपनी माँग मनवाकर ही रही थी।

अंजलि साल में एकाध बार, एकाध दिन के लिये गोहद आती-अपनी ही छोटी-सी खूबसूरत मारुति में।

घर में त्योहार आ जाता।

सिर से पाँव तक चाँदी और सोने के रत्न जड़ित गहनों से लक्दक् अंजलि शादी से एक वर्ष के अंतराल में ही फूलकर सेठानी बन बैठी थी।

कि अब उसे महेश भटेले की याद नहीं सताती थी।

प्रीति सोचती है कि एक समय इसी महेश भटेले के लिये जीजी कैसी पागल रहा करती थीं!

पापा-मम्मी से लड़ बैठी थीं कसकर और जहर तक खाने के लिये आमादा हो गई थीं।...

तब सेठजी ने महेश के पिता पंडित त्रिलोकी नाथ भटेले के चरणों में अपनी टोपी धर दी थी और दीन होकर रो पड़े थे-

‘महाराज! आप तो ब्रह्माजी के मुख से भये हैं! हम वैश्य तो उनकी जंघा के मैल हैंमहाराज, धरम की रच्छा करो! तुल्सी बब्बा भी कहि गये हैं-मुखिया मुख से चाहिये।’

सुनकर उखड़ गये थे पंडित त्रिलोकी नाथ! और रोते-गिड़गिड़ाते सेठ की टोपी उछालकर ताव में बोले, ‘वाह साब! रस्ता पे हंगें और घुन्नायें... कानी अपनो टेंट न निहारे! हमारे कुल खानदान में तो ऐसो कभी भयो नहीं। मोड़ी पे कंट्रोल करो नईं गओ और हमें लाग देन (दोष देने) चले हैं- कै, मुखिया मुख से चाहिये’

‘अब बच्चा ने जांघ पे हंग लओ, अब मैं का करों-महाराज! जांघ काटी जात है, का?’

‘नईं काटी जात तो फिरो खाजु-सी खुजायें।’

प्रीति सोचती है कि भटेले बहुत कमीन हैं, रिश्ता तो वे भी नहीं करते हमारा! पर उँगली दबी थी और वे लड़के वाले होने के नाते पूरा-पूरा खामियाजा वसूल लेना चाहते थे।...

‘सेठ बड़ी मोटी मुर्गी है एकाध अंडा छोड़ ही देइगी।’

महेश की अटैची से पंडितजी को जीजी की चिट्ठियाँ और फोटो हाथ लग गये थे।

‘सेठ कुछ डाल भागे, शायद!’ सो उन्होंने महीनों खींचा था केस।

फिर न जाने क्या ले-देकर बात रफा-दफा हो गयी थी और पापा तीन-चार दिन के लिये रिश्तेदारी में चले गये थे जीजी को लेकर। कि जहाँ से बीमार होकर लौटी थीं वे! मुंह कैसा पीला पड़ गया था उन दिनों और उसी साहलग में महेश की शादी हो गयी थी।

उसके बाद जीजी ने महेश को मारुति में, एअरकंडीशंड फ्लैट में, जश्री की साड़ियों में, राजस्थानी लहंगा चुनरी में, मंहगे जे़वरात में दफन कर दिया है।

कि अब उन्हें उसका खयाल भी नहीं आता कभी।

उनकी जगह अगर प्रीति होती तो ऐसा हर्गिज नहीं कर पाती। और न उसे कोई विवश कर पाता, क्योंकि वह जान गयी थी कि समाज और धर्म की सफेद चादर पर बैठे भले लोग, चरित्र के धनी, अत्यंत पहुँचमान, इज्जतदार और आदर्श पुरुष; दुर्गंध को दबाने सुगंध, गंदगी को ढकने सफेद पोशाक और वासना को छुपाने दूसरों के चरित्र के ठेके दार बने बैठे हैं। इन खोखले लोगों से क्या डरना! कि जिन्होंने अपनी कुरूपता को गंभीरता में, वाणी की मीठी छुरी में, सौम्य हँसी में, पवित्र चितवन में छुपा लिया है.

मगर प्रीति दुःखी है, क्योंकि आनंद बिहारी तो भाग गये हैं न जाने कहाँ?

वह उनके मामाजी के यहाँ भी कई बार हो आयी है। मामा से मामी तब भी दयालु हैं! वे प्रीति का दर्द जानती हैं। पर उन्हें खुद नहीं पता कि आनंद कहाँ चले गये हैं जेल से छूटने के बाद! उनकी अम्मा, भइया, भाभी तक बेहद दुःखी हैं।

अब आफ्टर रिटायरमेंट मामाजी भी कुछ ज्यादा धार्मिक हो गये हैं। यों तो समय का भरपूर उपयोग वे पहले भी धार्मिक अनुष्ठानों में किया करते थे, पर अब तो ये धार्मिक कार्यक्रम ही जैसे उनकी ड्यूटी बन गये हैं।

अब रिटायरमेंट के साल भर के भीतर ही उनके चेहरे पर एक सफेद दाढ़ी निकल आयी है, जिसने उनके गले की उभरी हुई गांठ (कंठमणि) तक सर्वथा ढक ली है। अब वे प्यून वाली वर्दी की जगह सफेद धोती-कुर्ता पहनने लगे हैं। अब उन्होंने स्थायी रूप से चश्मा भी लगाना शुरू कर दिया है। योंकि अब एक नये शीट के प्रेम में उन्होंने बाई फोकल लेंस जो डलवा लिये हैं, जबकि पहले पास की नजर का चश्मा वक्त-जरूरत ही पहनते थे, किंतु अब ब्राह्मण संघ के मंझोले पदाधिकारी बन जाने से समाज की बैठकों और सभा-पंचायतों में जाना-आना पड़ता है। भाषण वगैरह देने पड़ते हैं। सो, कागज-पत्तर, शास्त्र-पत्रिकायें देखने के लिये बार-बार चश्मा चढ़ाना-उतारना पड़ता। भाषण देते समय कभी सूत्र-वाक्य या श्लोक हाथ की डायरी में देखने पड़ जाते तो, जल्दी से पहले नाक पर चश्मा धरना पड़ता और इबारत देखने के बाद बोलने के लिये सामने नजर डालते तो गड्ढे और पहाड़ियाँ सी दिखतीं, भड़-भड़ाकर चश्मा उतारते जो कभी कान में भी फँस जाता! और वे बोलने में अक्सर गड़बड़ा जाते।

तब किसी ने सुझाया था, ‘पंडितजी बाई फोकल लेंस का चश्मा बनवा लो अब तो!’ और मामाजी ने वही किया।

प्रीति उनके इस चरित्र से नाखुश है। पता नहीं कब कौन व्यक्ति भीड़ का हिस्सा बन जाये! वह सोचती है अक्सर और लंबी उसांस लेकर रह जाती है कि आखिर वह कर भी क्या सकती है!

(क्रमशः)