नामदेव का समय संवत् १३२७ वि० से संवत् १४०७ वि० है, इस पवित्र अवधि में उन्होंने दक्षिण और उत्तर भारत में संतमय की जिस प्रगाढ़ भगवद्भक्ति से परिपुष्टि की उसकी मौलिकता और अपूर्वता में तनिक भी संदेह नही किया जा सकता है। सिखों के 'आदि ग्रन्थ' में नामदेव की अगणित रचनाओं का संकलन इनकी महत्ता और परम् साधुता का परिचायक है। इनके इष्ट विट्ठल थे। महाराष्ट्र के पांच प्रमुख संतो में इनकी गणना होती है, संत ज्ञानदेव, संत एकनाथ, संत रामदास और सन्त तुकाराम की श्रेणी में वे परिगणित है। वे केवल महाराष्ट्र ही नही, समस्त भारत देश के तत्कालीन संतो के एक विशिष्ट प्रतीक अथवा आदर्श थे। यवनों की राजसत्ता से उत्पीड़ित भारत में उन्होंने शांति की निर्झरिणी बहायी। उन्होंने जनता को सरस भगवद्भक्ति का दान दिया, संतमय के संरक्षण में उसे अभय किया।
सन्त नामदेव का जन्म परम वैष्णव कुल में हुआ था, उनके पूर्वज भगवान की भक्ति में बड़े दृढ़निष्ठ थे। उनके एक पूर्वज यदुसेठ विट्ठल के अनन्य भक्त थे। वे हैदराबाद में सतारा जिले के कन्हाड़ के निकट नरसी ब्राह्मणी गांव में रहते थे। उनका कुल भगवद्भक्ति आचार-निष्ठा और संतसेवा से परम पवित्र हो गया था। इसी भागवत परिवार में संवत् १३२७ वि० में कार्तिक शुक्ल एकादशी अथवा प्रतिपदा को संत नामदेव ने जन्म लिया। उनके माता-पिता गोणाई और दामासेठ भी भगवत भक्त थे, शिशु नामदेव में अलौकिक तेज और दिव्य गुण देखकर उन्होंने अपने आपको परम धन्य समझा। नामदेव का लालन-पालन उन्होंने उचित ढंग से किया और इस बात को दोनों ने सदा ध्यान में रखा कि वे भगवान के भक्त बने तथा उन्हें सदा संतो और ज्ञानियो का संग मिलता रहे।
गाँव के बाहर केशिराज शिव का मंदिर था। दामोसेठ नित्य शिव की पूजा करने आया करते थे, वे प्रतिवर्ष विट्ठल भगवान के दर्शन के लिए पंढरपुर आया करते थे और भगवान के प्रति आसक्ति बढ़ने पर वे पंढरपुर में ही बस गये। पिता के आचरण का नामदेव के विकास पर बड़ा प्रभाव पड़ा।
नामदेव के शैशव-काल मे एक दिन एक विचित्र घटना हुई। उनके घर मे श्री विट्ठल का विग्रह था, नामदेव के पिता विधिपूर्वक नित्यप्रति उनकी उपासना और पूजा करते थे, उन्होंने अपने भागवत पुत्र नामदेव को दूध अर्पण करने का भार सौंपा था, नामदेव विट्ठल का नाम सुनते ही आनंद से 'जय-विट्ठल' कहते-कहते विट्ठलमय हो जाया करते थे, जब पिता ने उनसे भगवान को दूध अर्पित करने की बात कही, वे बहुत प्रसन्न हुए। पिता की अनुपस्थिति में वे कटोरे में दूध लेकर विट्ठल के विग्रह के सामने बैठ गये, नयन बन्द कर धीरे से कहा ' विट्ठल! दूध पी लो' मन में उत्सुकता बढ़ रही थी कि विट्ठल ने दूध पिया होगा। बालक नामदेव ने नयन खोले, वे सहम गये, भगवान ने दूध नही पीया। नामदेव ने सोचा कि मेरी सेवा में कोई अपवित्रता आ गयी इसलिए करुणामय ने कटोरे की ओर देखा भी नही। उन्होंने कहा, 'विट्ठल, पिता तो बड़ी पवित्रता से दूध पिलाते है, मैं तो अभी बच्चा हूँ, मुझसे अवश्य सेवा में भूल हो गयी है, इसलिए दूध पड़ा रह गया, ठीक है, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ यदि दूध पड़ा रहेगा तो मैं भी दूध नही पिऊँगा। वे विट्ठल की ओर व्यग्र होकर देखने लगे। उनके मन मे बहुत दुःख था कि विट्ठल ने दूध नही पीया। भगवान को भाव चाहिये, वे दयामय नामदेव के सामने प्रकट हो गए, दूध पीने लगे। वातावरण धन्य हो गया। इसी प्रकार जब तक दामासेठ नही आ गये, नामदेव सदा दूध पिलाते रहे। पिता ने लौट कर जब वास्तविकता का पता लगाया तब उनका शरीर रोमांचित हो उठा, उन्होंने नामदेव को गले लगा लिया, कहा कि तुमने मेरे घर को ही नही पवित्र किया, समस्त पंढरपुर की धरती और भरतखंड के कण-कण तुम्हारी भक्ति से धन्य हो गये। नामदेव की विट्ठल में भक्ति बढ़ने लगी। आठ साल की अवस्था में गोविंद सेठ की कन्या राजाई के साथ नामदेव का विवाह कर दिया गया। कुछ दिनों में पिता का देहांत हो गया। घर-गृहस्थी संभालने का भार नामदेव के कंधों पर आ पड़ा। उनकी माता और स्त्री की बड़ी इच्छा थी कि नामदेव व्यापार में लगें, घर की उन्नति करे पर विट्ठल के राज्य का प्रवेशपत्र तो उन्हें परिवार वालो के ऐसा सोचने के पहले मिल गया था। नामदेव तो विट्ठल के कीर्तन, भजन और चिंतन में मग्न थे, उनके लिए तो चंद्रभागा में स्नान, पुण्डलीक के दर्शन और पंढरीनाथ के स्मरण से बढ़ कर संसार मे कोई दूसरा व्यापार था ही नही, संसार उन्हें फीका लगता था, वे पंढरपुर में ही रह कर दिन-रात श्री विट्ठल के नामामृत का रसास्वादन करने लगे। वे सरस अभंगो की रचना कर रुक्मिणी और विट्ठल को रिझाने लगे। पंढरपुर में उन दिनों गोरा कुम्हार और साँवला माली जैसे संतो का समागम नामदेव महाराज के लिये परम सुगम और सुलभ था। वे उनके सत्संग से अपने जीवन को पूर्ण रूप से विट्ठलमय बनाने में सफल हुए।
नामदेव की भक्ति श्रीविठ्ठल में इतनी बढ़ गयी कि प्रभु उनसे एक क्षण के लिये भी अलग नही रह सकते थे, वे नामदेव के सामने प्रकट रूप से माया-मनुष्य हरि के रूप में प्रत्येक आचरण करते थे, अपने भक्त की प्रत्येक कामना की पूर्ति में लगे रहते थे, इधर नामदेव भी प्रभु के दर्शन बिना एक क्षण भी सुखपूर्वक नही रह पाते थे। प्रीति का पथ निराला होता है। दोनों की एक-दूसरे में प्रगाढ़ अनुरक्ति थी, कितने सौभाग्यशाली थे संत नामदेव। नामदेव के समकालीन संतो में संत ज्ञानेश्वर (ज्ञानदेव) की बड़ी प्रसिद्धि थी। वे नामदेव से मिलने पंढरपुर आये। उनके मन की बड़ी इच्छा थी कि नामदेव तीर्थयात्रा में उनके साथ रहें। दोनों एक-दूसरे के सत्संग और पारस्परिक सम्पर्क से प्रभावित थे। ज्ञानदेव ने नामदेव से तीर्थयात्रा में साथ चलने की बात कही। नामदेव ने बड़ी सरलता और कोमलता से उत्तर दिया कि मैं श्री पाण्डुरंग भगवान को देखे बिना एक क्षण भी जीवित नही रह सकता पर आप सन्त है, उन्ही के साक्षात स्वरूप है, यदि वे प्रभु आप के साथ जाने की आज्ञा प्रदान कर दे तो मुझे आपत्ति नही हो सकती। यह तो मेरा परम सौभाग्य है कि आप सरीखे उच्च संत मुझे अपने संपर्क से धन्य करने की बात सोच रहे है, नामदेव के रोम-रोम में आनंद छा गया। भक्त की बात थी, ज्ञानदेव जैसे महात्मा की वकालत थी, पाण्डुरंग का न्यायालय था। ज्ञानेश्वर ने प्रभु के सामने नामदेव के मन की बात रखी। पाण्डुरंग ने संत ज्ञानेश्वर से कहा कि नामदेव मेरे परमप्रिय है। मैं उन्हें अपने पास से क्षण भर के लिए भी दूर नही करना चाहता हूँ। यदि ले ही जाने की इच्छा है तो रास्ते मे उनके विषय मे पूरा ध्यान रखना। नामदेव का जीवन धन्य हो गया, करुणामय पंढरीनाथ की उनपर ऐसी कृपा थी, कितनी सफल और पुण्यमय रहनी थी सन्त नामदेव की।
संत नामदेव विट्ठल भगवान के आदेश से महात्मा ज्ञानदेव के साथ तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। ज्ञानेश्वर ने उन्हें परमात्मा के सर्वव्यापक होने का ज्ञान समझाया पर उनका मन तो सगुण भक्ति में सराबोर था। उन्होंने ज्ञानेश्वर से कहा कि विट्ठल प्रभु ही पूजनीय है, प्राणी को उन्ही के भजन, चिंतन और स्मरण में लगे रहना चाहिये, श्रीकृष्ण का प्रेम ही जीवन का श्रेय है, पाण्डुरंग ही मेरे प्राणधन है। सन्त ज्ञानेश्वर का निर्गुण ज्ञान उनके लिये सर्वथा नीरस था, वे तो अनवरत विट्ठल का सरस नाम स्मरण करते हुए चले जा रहे थे। प्रभास, द्वारका आदि तीर्थो से लौटते समय बीकानेर के निकट मार्ग में एक विचित्र घटना हुई। नामदेव और ज्ञानेश्वर दोनों-के-दोनों बड़े प्यासे थे, कौलावत गाँव में एक कुआँ दीख पड़ा। ज्ञानेश्वर सिद्धयोगी थे, लघिमासिद्धि के प्रयोग से वे कुएँ में पहुंच गयें, पानी पीकर नामदेव के लिये जल लेकर बाहर आ गये। संत नामदेव भक्त थे उन्होंने जल पीना अस्वीकार कर दिया और विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि विट्ठल को मेरे जलग्रहण की चिंता अवश्य होगी। उनका इतना कहना था कि पानी कुएँ के ऊपर आ गया और उन्होंने पीकर प्यास शान्त की। भक्त के लिये भगवान की सेवा का रूप ही यही है कि वे अशरणशरण अपने प्रेमियों को रिझाने के लिए लघुत्तम से भी लघुत्तम काम के लिए कटिबद्ध रहते है। काशी से पंढरपुर लौटते समय यात्रा मंडली विश्राम के लिए गृहस्थ संत गोरा कुम्हार के घर पर तेरढोकी स्थान में ठहर गयी। गोरा कुम्हार उच्च कोटि के ज्ञानी संत थे, ज्ञानेश्वर और उनकी बहिन मुक्ताबाई, आदि के हृदय में उनके लिए उच्च कोटि की श्रद्धा थी। इस यात्रा में ज्ञानेश्वर के साथ मुक्तबाई भी थी। गोरा कुम्हार की प्रसिद्धि 'चाचा' नाम से थी। गोरा कुम्हार के घर पर सत्संग हो रहा था, थोड़ी दूर पर एक थापी दीख पड़ी। मुक्ताबाई ने विनोद के स्वर में कहा कि चाचा जी यह क्या है। गोरा ने कहा कि यह थापी है, इससे घड़े के कच्चे और पक्के होने की बात जानी जाती है। मुक्ताबाई ने कहा कि हम लोग भी तो मिट्टी के घड़े के ही समान है। गोरा ने कहा कि ठीक है और उन्होंने थापी से एक-एक के सिर पर थापना आरम्भ किया। सन्त नामदेव को यह बात अच्छी नहीं लगी। गोरा ने उनके सिर पर थापी रख कर कहा कि नामदेव तुम अभी कच्चे घड़े हो, तुमने अभी तक गुरु नही किया। नामदेव को बड़ा दुःख हुआ। पंढरपुर लौटने पर उन्होंने विट्ठल के समक्ष बात रखी। भगवान ने गोरा की बात का समर्थन किया, नामदेव से कहा कि यद्यपि तुम मेरे परम भक्त हो तथापि जब तक गुरु की शरण मे जाकर उनके चरणों पर अपना अहंकार नही चढ़ाओगे तब तक कच्चे रहोगे। भगवान के आदेश से संत नामदेव ने विसोबा खेचर को अपना गुरु बनाया। विसोबा खेचर पहुँचे हुए महात्मा थे, नामदेव ने उनसे पूर्ण तत्वज्ञान का बोध प्राप्त किया। उनके गुरुमुख होने के संबंध में एक विचित्र घटना का उल्लेख मिलता है। विट्ठल ने स्वप्न में नामदेव को आदेश दिया था बिसोवा खेचर को गुरु बनाने का। नामदेव उनकी खोज में चल पड़े, एक शिवमंदिर में उनका पता लग गया, नामदेव ने एक बूढ़े व्यक्ति को शिवलिंग पर पैर फैलाये देखा। ये बात नामदेव को अच्छी नहीं लगी वे उन्हें डांटने लगे। व्यक्ति ने कहा कि मेरे पैर ऐसे स्थान पर रख दो जहा शिवलिंग न हो। नामदेव ने पैर हटाये ही थे कि दूसरे स्थान पर भी शिवलिंग प्रकट हो गया। नामदेव ने समझ लिया कि वे ही विसोबा खेचर है उन्होंने उनसे दीक्षा ली। अपने अभंगो में नामदेव महाराज ने अपने गुरु की बड़ी महिमा गाई है। उन्होंने एक अभंग में कहा है कि मेरा मन सुई है, तन धागा है, मैनें खेचर जी का चरण पकड़ लिया है। गुरु ने मेरा जन्म सफल कर दिया, मैं दुःख भूल गया, मेरा अन्तरदेश आनंदमय हो उठा। गुरु ने मेरे नयनो में ज्ञान का अंजन लगाया, बिना राम नाम के मेरा जीवन मणिहीन था। मैनें गुरु की कृपा से भगवान का स्मरण किया, और भगवद्मय हो गया। नामदेव की गुरुनिष्ठा परम सराहनीय है। इस प्रकार नामदेव की संत ज्ञानेश्वर के साथ तीर्थयात्रा सफल हुई, वे पंढरपुर लौट कर पाण्डुरंग के प्रेमरंग में रंग गये। संत नामदेव ने कुछ दिनों तक पंजाब प्रांत में भी रह कर कृष्णभक्ति का प्रचार किया था। गुरुदासपुर जिले के घोमनगांव में उन्होंने असंख्य जीवों का अपने सत्संग और पाण्डुरंग की भक्ति से कल्याण किया। उन्होंने घोमनगांव के निवासकाल में अनेक पद हिंदी भाषा मे बनाये जिनमे से अधिकांश गुरुग्रंथ साहब में संग्रहित है। उनके जीवन के पूर्वार्ध का अधिकांश पंढरपुर में बिता और उत्तरार्ध के अधिकांश का सदुपयोग उन्होंने उत्तर भारत मे किया, नामदेव वारकरी सम्प्रदाय के आदि सन्तो में से एक थे, महाराष्ट्र में उन्होंने विष्णुभक्ति और संतमत का संगम उतार लिया। उन्होंने सर्वत्र भगवान का विट्ठल रूप में दर्शन किया। वे संत थे, पूर्ण निरपेक्ष और निष्पक्ष थे, सम्प्रदाय और जाति के भेदभाव से ऊपर उठे हुए थे। वे समदर्शी महात्मा थे। उन्होनें उस परम तत्व को प्रणाम किया जिसका विवेचन उन्होंने अपने सद्गुरु से प्राप्त किया था। उनके गुरु ने उन्हें परमतत्व का दर्शन कराया था, उनकी उक्ति है कि मैं उस परमतत्व को प्रणाम करता हूँ जिसको मुझे गुरु ने दिखाया था। नामदेव ने अत्यंत दीन और विनम्र भाव से भगवान की शरणागति याचना की। उन्होंने अपने एक पद में कहा है कि राम मेरे स्वामी है, मैं उन्ही का श्रृंगार करता हूँ। संसार मेरी निंदा भले करे पर मेरे तन-मन तो राम के ही योग्य है। मैं किसी से विवाद नही करता हूँ। मेरी रसना निरंतर रामरसायन पीती रहती है। मैं तो स्तुति-निंदा से परे हो कर श्रीरंग विट्ठल को भेंटना चाहता हूं। मैं उनसे डंके की चोट मिलना चाहता हूँ। वे ही मेरे प्राणधन हैं–सर्वस्व हैं।
संत नामदेव के जीवन में विलक्षण और अद्भुत घटनाओ का समावेश पाया जाता है। एक बार संत नामदेव आलावती स्थान पर गये, भगवान के प्रेम में आत्मविभोर होकर वे मंदिर के सामने बैठ कर कीर्तन करने लगे। पण्डों ने शुद्र जानकर उन्हें उस स्थान से उठा दिया, वे मंदिर के पीछे जाकर कीर्तन करने लगे। मंदिर का दरवाजा पूर्व से पश्चिम हो गया, भगवान अपने भक्तों का अपमान नही सह सकते है, वे प्रत्येक स्थिति में उनका सम्मान सुरक्षित रखते है। प्रभु ने नामदेव की प्रसन्नता के लिए मंदिर का दरवाजा ही घुमा दिया।
एक बार संत नामदेव की कुटिया में आग लग गयी, एक ओर की वस्तुएं जलती देखकर उन्होंने दूसरी ओर की वस्तुओं को आग में फेंकना आरम्भ किया। लाल-लाल लपटों में उन्हें अग्निवेष में विट्ठल का दर्शन हुआ, उन्होंने कहा कि प्रभु इस अग्निमय में मैं अपनी वस्तुओं की आहुति दे रहा हूँ, अज्ञान से मैनें इनको अपना मान रखा था, अब इनको स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें। आग ने भयंकर रूप धारण कर लिया, सारी कुटी जल गयी। नामदेव को इसकी तनिक भी चिंता नही थी। प्रभु ने मजदूर के वेष में प्रकट होकर उनकी छान-कुटी छा दी।
अपनी भावना के अनुरूप ही भगवान का दर्शन होता है। एक बार संत नामदेव एक गाँव के सुने मकान में ठहरने लगे। गाँव वालों ने कहा कि इस मकान में ठहरने से प्राण संकट में पड़ जायेगा, इसमे एक ब्रह्म राक्षस रहता है। नामदेव ने कहा कि प्रत्येक स्थान में विट्ठल ही है, वे भूत के रूप में भी रह सकते है, आधी रात को भूत प्रकट हो गया, उसका शरीर लंबा था, वह देखने मे विकराल और भयंकर था। नामदेव ने भूत के रूप में विट्ठल की स्तुति की, उन्होंने कहा कि मेरे लम्बकनाथ, आज तो आपका रूप कुछ विचित्र ही हैं। आपके सिर स्वर्ग तक है और पैर धरती पर है, अनेक साज में आपके इस विचित्र रूप का पार शिव-सनकादि भी नही पा सकते है। आप मेरे स्वामी है, प्रभु मुझे सफलमनोरथ करे। नामदेव ने देखा कि उनके नयनों के सामने शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण करने वाले साक्षात् पाण्डुरंग ही खड़े है। प्रभु की मन्द-मन्द मुसकान ने नामदेव का मन मोहित कर लिया।
एक बार नामदेव ने एक जंगल मे पेड़ के नीचे कुछ रोटियाँ बनाई, वे लघुशंका करने जा रहे थे कि एक कुत्ते ने रोटियाँ लेकर भागना आरम्भ किया, नामदेव घी की कटोरी हाथ मे लेकर उसके पीछे दौड़ पड़े। उन्होंने बड़ी व्यग्रता से कहा कि प्रभु, मुझे पहले रोटियों में घी लगा देने दीजिये, रूखी रोटियाँ आप के योग्य नही है। भगवान तो भाव के भूखे है, कुत्ते में पाण्डुरंग अभिव्यक्त हो उठे, नामदेव ने चतुर्भुज रूप में विट्ठल का दर्शन किया, वे प्रभु के चरणों पर गिर पड़े, भगवान ने उनको गले लगा लिया।
|| जय-जय राम कृष्ण हरि ||