Prem Gali ati Sankari - 17 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 17

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

प्रेम गली अति साँकरी - 17

17 –

===========

अपने कमरे के दरवाज़े पर नॉक सुनकर मैंने कहा –“आ जाइए | ”

मुझे मालूम था महाराज होंगे मेरी कॉफी और अखबार के साथ !

“गुड मॉर्निंग दीदी ---” महाराज ने कमरे में आकर ट्रे मेरी खिड़की के पास की मेज़ पर रख दी| 

“क्या हुआ दीदी?आपकी तबीयत तो ठीक है न ?” महाराज ने अपनत्व से पूछा तब मेरा ध्यान गया कि वह महाराज नहीं उनका बेटा रमेश था | 

“गुड मॉर्निंग ---हाँ, बिलकुल –क्यों?” मैंने उसके चिंतित चेहरे पर दृष्टि डाली| 

“वो, आपके कमरे की लाइट बहुत देर से खुली हुई थी ---” धीरे से उसने कहा | 

यह लड़का हमारे यहाँ 20/25 साल से खाना बनाने वाले महाराज का बेटा था रमेश| महाराज जब भी गाँव जाते इसको छोड़ जाते | यह गाँव में प्राइमरी स्कूल में अध्यापक था और शिक्षित व सभ्य था| आजकल इसकी छुट्टियाँ थीं | इसकी छुट्टियों में अक्सर महाराज अपने परिवार के पास गाँव चले जाते और यह हमारे घर पर आ जाता | बचपन से अपने पिता के साथ आता था और पिता जैसा ही खाना बनाता था | बड़े महाराज ने अपने बच्चों और पत्नी को भी बढ़िया खाना बनाने की ऐसी ट्रेनिंग दी थी कि कई बार तो हम कंफ्यूज़ ही हो जाते थे कि यह खाना महाराज ने बनाया है या उनके परिवार के किसी सदस्य ने | हमारे परिवार में सभी परिवार के ही अंग हो जाते थे| ये भी हो गए थे | दिल्ली से सटा हुआ, कुल 5/7 किलोमीटर दूर ही उनका गाँव था | जब दादी ने उनको खाना बनाने के लिए रखा था तब यह दूरी बहुत लगती थी | अब तो दिल्ली के सारे गाँव जैसे दिल्ली का ही हिस्सा बनते जा रहे थे | महाराज के पिता गाँव में हलवाई की दुकान करते थे | वहीं उन का घर था वह और उनके सभी रिश्तेदार अधिकतर उसी गाँव में बसते थे| उनका घर काफ़ी टूट-फूट गया था | उनके पिता उनकी काफ़ी कम उम्र में ही गुज़र गए थे | दादी ने साल भर में ही उनको पैसा देकर उनका घर ठीक करवा दिया था | महाराज दादी के प्रति इतने अहसानमंद थे कि एक बार घर में उनका खाना बनाना शुरू क्या हुआ, उन्होंने एक भी दिन रसोई नहीं छोड़ी | अगर उन्हें कुछ काम होता तो बेटे, बेटी या पत्नी को खाना बनाने के लिए छुड़वा देते| रमेश को भी दादी ने ही पढ़वाया था, मतलब यह कि दादी के प्रति तो शायद ही कोई होगा जो कृतज्ञ न हो | 

“सामने से बड़ा शोर आ रहा था, पता नहीं क्या हो गया सुबह-सुबह ?” मैंने बड़बड़ाकर कहा | 

“जी, दीदी–कुछ आवाजें तो आ रही थीं| ”उसने उत्तर दिया और कमरे से बाहर निकल गया| 

रसोईघर की खिड़की में से भी सामने वाले मुहल्ले में होने वाली गतिविधियाँ दिखाई देती थीं बल्कि उधर से तो और अधिक साफ़ दिखाई देती थीं | शायद वहाँ से कुछ पता लगाने के लिए वह मेरे पास से जल्दी चल गया था वरना तो वह कितनी-कितनी बातें करता था जब भी उसे समय मिल जाता | नई-नई जानकारियाँ लेना उसका शौक था | पिछले दिनों वह बी.ए करने के बारे में भी मुझसे कई सारी जानकारियाँ ले रहा था | 

उसका भी भाई की तरह एक सपना था कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी कर सके | मुझे उसकी इच्छा जानकर भाई की याद आ जाती | अब अगर भाई को उनकी इच्छा के अनुरूप यू.के में शिक्षा का अवसर मिल सकता था तो यह बेचारा तो दिल्ली तक ही उड़ान भरने का सपना अपनी आँखों में भरे घूम रहा था | इस वर्ष उसने प्राइवेट बी.ए का फ़ॉर्म भर दिया था | 

एक और सपना था उसका जो आज के शायद हर उस वर्ग के बच्चे का होता है कि फर्राटेदार अँग्रेज़ी बोल सके | मैं उससे अक्सर कहती थी कि फर्राटेदार अँग्रेज़ी बोलने का मतलब ही जीवन, में सफ़ल होना नहीं होता| उसके लिए और बहुत से प्रयत्न करने होते हैं | मैं उसे यह भी समझाती थी कि वह इतना अच्छा खाना बनाता है तो वह एक अच्छा ‘शैफ़’भी बन सकता है | इसका कोर्स करने के बाद किसी अच्छे होटल में भी काम कर सकता है लेकिन न जाने क्यों उसके दिमाग में दिल्ली विश्वविद्यालय की छाप इतनी गहरी पड़ी हुई थी कि बस--–वह अपने गाँव से जिस बस में आता था वह बस दिल्ली विश्वविद्यालय से गुज़रती थी| वहाँ का कैंपस, लड़के-लड़कियों का खुलकर एक-दूसरे से बात करना उसे बहुत आकर्षित करता था | 

एक उम्र में ये सब आकर्षण होने बड़े स्वाभाविक होते हैं, बिना किसी विशेष कारण अथवा जानकारी के किशोरावस्था में कई प्रकार की तुलना शुरू हो जाती है | इनमें एक विशेष तुलना गाँव से शहर की भी होती है, वहाँ के रहन-सहन की | अनजाने में बहुत सी बातें ऐसी होती चली जाती हैं जो कोई सोचता भी नहीं है| बस, मस्तिष्क के किसी कोने में कुछ पकता रहता है और जाने कब पूरा पक जाता है| 

‘जब शीला दीदी या रतनी आएंगी तब पता चलेगा असली बात का----‘आखिर मुझे इतनी बेचैन रहने की क्या ज़रूरत थी?पर मैं रहती थी बेचैन !

मेरी खिड़की से अमलतास का भरा हुआ पेड़ दिखाई देता और उसकी भरी हुई पीली टहनियों से मन में जैसे सुखद संचार होता | गार्ड के बच्चे उधर खेला करते थे और पेड़ के नीचे झरते हुए फूलों को एक-दूसरे पर उछाल-उछालकर हँसते हुए खिलखिलाते रहते | उस समय मेरा ध्यान उस सड़क पार की बस्ती पर न जाकर उन बच्चों पर जाता और मन में आता कि उस सामने वाली बस्ती में खूब घना पेड़ हो और बस्ती के सारे बच्चे उस पेड़ के नीचे खिलखिलाते हुए खेलें और सच में अपना बचपन जी सकें !लेकिन मेरे हाथ में कुछ नहीं था, दिमाग से सोचना भर था | उससे लाभ भी क्या था ?मैं खिड़की से बाहर देखती हुई कॉफ़ी की चुसकियाँ लेती रही लेकिन कॉफ़ी में कोई स्वाद नहीं था | मेरे सामने मेज़ पर आज का अखबार भी रखा था लेकिन मेरा मन नहीं किया कि उसे खोलकर भी देखा जाए | क्या होगा उसमें भी ?

कॉफ़ी पीकर मैं बिस्तर पर आ लेटी, मुझे नहीं पता कब मेरी आँखें लग गईं थीं | लेटने से पहले मैंने खिड़की के भारी पर्दे डाल दिए थे | मैं लेटी तो यही सोचकर थी कि कुछ देर में उठ जाऊँगी, अम्मा ने मुझे कुछ काम दिया था, मैं उसे करना चाहती थी इसीलिए कुछ देर तक ही लेटूँगी, यही सोचकर मैं लेटी थी लेकिन पता नहीं मेरी आँखें कैसे लग गईं कि मैं गहरी नींद में न जाने कितने घंटे तक पड़ी सोती रही बहुत देर तक ! हड़बड़ाकर मेरी आँखें खुलीं तो दस बज गए थे | 

‘ओ ! माई गॉड ----”मेरे मुँह से अचानक ही निकला और मैंने आलस्य दूर करने के लिए एक भरपूर अँगड़ाई ली | फिर भी मेरी आँखें बंद ही थीं, मैंने पलंग के नीचे पैर रखे और अंदाज़ से स्लीपर्स टटोलकर उनमें पैर डालकर खड़ी होने की कोशिश की लेकिन आँखें बंद ही हुई जा रही थीं और दिमाग उस शोर से फटा जा रहा था जो सुबह सुबह मेरे दिलोदिमाग को छिन्न-भिन्न कर गया था |