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सड़क के उस पार से भयंकर शोर की आवाज़ आ रही थी | होगा कुछ पागलपन, किसी न किसीका झगड़ा या फिर जगन का ही कुछ होगा जो तूफ़ान बरपा हो रहा था वातावरण में !
’हद है---’मन में सोचा मैंने |
‘इतना दूर हो जाने यानि पीछे का पूरा आना-जाना बंद कर देने पर भी उस ओर के लोगों को देखना हो ही जाता था | वैसे मेरी ही तो गलती थी न!क्या ज़रूरत थी मुझे उधर की ओर की खिड़की खोलकर झाँकने की? लेकिन मन था न शैतान का ---!’मैंने अपने आपको ही दुतकारा | फिर भी उधर की ओर झाँकती ही तो रही | कितना अजीब होता है न इंसान !जिससे बचने की कोशिश करता है, उसमें ही जा घुसता है |
सुबह का समय था और मैं न जाने क्यों जल्दी जाग गई थी ? पता नहीं मेरी आँखें जल्दी क्यों खुलने लगी हैं | अम्मा-पापा की दादी जैसी आदत थी, वो लोग प्रतिदिन ही ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाते | अपने पिछले दिन के लिए ईश्वर को धन्यवाद देते, उस खिली-खुली भोर को प्रणाम करते और उस दिन के हर प्रकार से स्वस्थ, आनंद में बीत जाने के लिए प्रभु से प्रार्थना करते फिर एक–दूसरे का आलिंगन करते, उसके बाद ही अपनी दिनचर्या शुरू करते | मुझे कैसे मालूम कि वे सुबह एक-दूसरे को आलिंगन करते थे, सुबह सुबह ही? वो ऐसे कि कई बार ऐसे अवसर आए कि मुझे सुबह सुबह उनसे कुछ जरूरी बात करने के लिए जाना पड़ा | मैंने कई बार उनको पहले आँखें बंद करके प्रभु का धन्यवाद करते देखा। फिर एक दूसरे को ‘विश’करते देखा | उसके बाद ही वे कोई और काम करते | यानि हम बच्चों के बड़े होने के बाद भी|
एक बार हम भाई-बहन ने इस बात पर अम्मा-पापा से बात भी की थी | पापा ने बताया कि—
“सबसे पहले प्रभु यानि पूरे ब्रह्मांड का धन्यवाद अधिकतर सभी वे लोग करते हैं जिनमें आस्था है कि हम उस ब्रह्मांड का ही एक ज़र्रा हैं जिससे हमारी यह देह बनी है| हम एक-दूसरे को ‘विश’इसलिए करते हैं कि ज़िंदगी बड़ी तंग गलियों से गुज़रती है, प्रेम की सँकरी गली बहुत कठिनाई से पार होती है | कितनी परेशानियाँ आती हैं इस मार्ग में ! हमारे प्रेम में तो वैसे भी कितनी परेशानियाँ आई हैं, सब जानते हैं | हम एक-दूसरे के साथ बने रहें, एक दूसरे की गलतियों को नज़रअंदाज़ करके, हाथ पकड़कर चलें तो यह जीवन का सँकरा गलियारा आसानी से पार हो जाएगा | अधिकतर होता यह है कि जैसे-जैसे साथी एक-दूसरे के साथ अधिक समय व्यतीत करते हैं, वैसे वैसे एक-दूसरे की कमियों पर अधिक ध्यान देने लगते हैं | इस प्रकार अच्छाइयाँ तो दरकिनार रह जाती हैं और बुराइयों का पुतला दिखाई देने लगता है साथी ! एक-दूसरे के प्रति आकर्षण कम होता जाता है | अक्सर तो अपने साथी में कमी और दूसरों के साथियों में अच्छाइयाँ दिखाई देने लगती हैं| फिर होती है टकराहट शुरू ---हम दोनों ने पहले दिन ही इस संभावना पर चर्चा की थी और तबसे ही हम ऐसा करते हैं| इससे हमें एक दूसरे के साथ रहने की शक्ति मिलती है ---”
पापा की तो हद ही होती थी, वो किसी एक बात की चीरफाड़ करने आते तो कहाँ तक जा सकते थे, कितना बोल सकते थे, हम सब जानते ही थे फिर भी कुछ न कुछ पूछ ही बैठते थे |
“लेकिन –इसमें सुबह-सुबह गले मिलने की क्या बात हुई ---?” बदमाश भाई छोड़ता थोड़े ही था | कुछ न कुछ उसे बोलना ज़रूर होता |
“देखो—पूरे दिन में कोई न कोई ऐसी बात तो हो ही जाती है जिससे आपस में कहा-सुनी हो जाती है| हम एक –दूसरे से नाराज़ हो जाते हैं | तुम्हारी दादी ने बताया था न कि सुबह उठकर जैसे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, वैसे ही परिवार में सबको नमस्कार करना, अपने से बड़ों के पैर भी छूने चाहिए –जब मैंने उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा था कि पहले दिन जो भी नाराज़गी होती है, नमस्कार से, पैर छूने से दिल में भरी वह नाराज़गी दूर हो जाती है और हम पिछले दिन की बात भूल जाते हैं | इसी तरह से जब हम एक-दूसरे को सुबह‘विश’करते हैं, उसमें पिछले दिन की ‘सॉरी’और उस पूरे दिन के प्रति उत्साह, उमंग, ऊर्जा भर जाती है| ” अम्मा ने भी पापा की हाँ में हाँ मिलाई, हमेशा की तरह से !
मैं देखती थी कि हमारे परिवार में न केवल परिवार के पाँच लोग वरन सभी को यह बात सिखा दी गई थी | मतलब उनकी कक्षाएँ नहीं ली गईं थीं, वैसे तो वे देखकर खुद ही सीख जाते थे लेकिन यदि वे सुबह गुड मॉर्निंग, नमस्ते या राम-राम करना भूल जाते तो हम ही उनको विश कर देते थे | यह सब दादी से ही सीखा था हमने | मुझे बार-बार यही महसूस होता कि हमारा घर कितना आदर्श घर था !अपने आस-पास के लोगों से कितना अलग !
अम्मा–पापा के संवाद अचानक ही याद आए और मुझे महसूस होने लगा कि आखिर सभी लोग मेरे अम्मा-पापा की तरह अपना जीवन प्रेम से क्यों नहीं गुज़ार सकते?
जीवन को प्यार, स्नेह, करुणा से जीने के लिए सबसे पहले अहं का त्याग करना पड़ता है| वहीं इंसान मार खा जाता है | अकड़, अभिमान, व्यर्थ का अहं जीवन जीने ही नहीं देते|
अगर यह भी मान लें कि इंसान बना ही अच्छाइयों, बुराइयों के मेल से है, यानि अँधेरा-उजाला सब कुछ जीवन के अंग हैं तब भी मनुष्य होने के नाते मस्तिष्क का प्रयोग तो कर ही सकते हैं हम—और जो जीवन के लिए बेहतर है उसका चुनाव करके जीवन को जीने योग्य बना सकते हैं लेकिन हम करते नहीं हैं न ऐसा| इसीलिए जीवन को ऊबड़-खाबड़ बनाकर घिसटते हुए चलते हैं | मुझे तो लगता था कि अम्मा-पापा को जीवन कैसे जीया जाए? प्रेम क्या है? इसकी कक्षाएँ लेनी चाहिएँ | भई, समाज के लोगों में कुछ तो बदलाव आए| फिर मैं खुद ही हँस पड़ती थी कि मैं इस घर की बेटी होकर भी उन लोगों से इतनी प्रभावित रहती थी जो जीवन जीना तो क्या नकारात्मक सोच में घिरे रहते थे और उनसे मैं भयभीत रहती थी | उनसे तो मेरा लेना-देना भी कुछ नहीं था | बस, एक सड़क पार का रिश्ता !या कह लीजिए वह रिश्ता जो एक मनुष्य का दूसरे से होता है |
मुझे अपने ऊपर हँसी आई, मैं भी अपने मन ही मन कहाँ से कहाँ पहुँच जाती थी !मैंने फिर से अपने विचारों से निकलकर सामने वाले मुहल्ले की ओर झाँकने की कोशिश की जहाँ खासा शोर बरपा हुआ था|
‘अब क्या हो गया ?’मैंने मन में सोचा और फिर से खिड़की में जाकर खड़ी हो गई | मज़े कि बात थी कि अपने बड़े से कमरे की उस सड़क की ओर खिलने वाली बड़ी सी खिड़की के पास मैंने एक छोटी सी गोल मेज़ और आमने-सामने दो कुर्सियाँ भी रखवा रखीं थीं जैसे मुझे उस सड़क पार के लोगों पर नज़र रखने की ड्यूटी दी गई हो|