Nafrat ka chabuk prem ki poshak - 18 - Last Part in Hindi Love Stories by Sunita Bishnolia books and stories PDF | नफरत का चाबुक प्रेम की पोशाक - 18 - अंतिम भाग

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नफरत का चाबुक प्रेम की पोशाक - 18 - अंतिम भाग

बीमारी के कारण फिरदौस की फूफी का भी इंतकाल हो गया था इसलिए अब उनकी बहुएं यानी मेरी ननदें भी हमारे पास मिलने आने लगीं। इस बात का फिरदौसा को पता चला तो उसने बहुत बखेड़ा खड़ा कर दिया। अब सब कुछ ठीक था पर फिरदौस के इरादों से डरकर मैं और अम्मी यहाँ अजमेर आ गए।
ये घर राशिद के नाना का है। अम्मी के अलावा उनका और कोई नही था। इसलिए उन्होंने ये घर अम्मी को दिया और अम्मी ने मुझे।
हम जोधपुर से अजमेर इसी घोड़ा गाड़ी में आए थे। सफर लम्बा था और डरावना था। हमने घर से थोड़ा-बहुत सामान लिया था। जिसमें राशिद की यादें और खाने-पीने के साथ ही कुछ जरूरी सामान था।
हम दिन में सफर करते और रात को कहीं रुक जाया करते थे। लगभग पांच-छह दिन में हम जोधपुर से अजमेर पहुँचे थे।
वो सफर जरूर परेशान करने वाला था पर आगे की जिंदगी सुकून भरी थी। यहाँ अजमेर में नानी जान ने मुझे नया नाम दिया माली।
और यहाँ मुझे सब माली ही कहने लगे मैं खुद भी अपना नाम भूल गई। आने के बाद मैंने कुछ दिन घोड़ा गाड़ी नहीं चलाई। पर नाना-नानी पर हमारा बोझ बढ़ गया था इसलिए उनके लाख मना करने पर भी में घोडागाडी चलाने लगी।
कुछ दिन उन्हें बुरा लगा और मौहल्लें भर को भी आश्चर्य भी हुआ। पर धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो गया। पर एक दिन अम्मी मुझे अकेला छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कह गई और साल भर में ही नाना और नानीजान।
उनके गुजरने के कुछ दिन बाद ही मेरा प्यारा घोडा बादशाह भी गुजर गया।
अब फिर मेरे सामने पेट भरने की समस्या आ खड़ी हुई पर मौहल्लों वालों की मदद से मैंने दूसरा घोड़ा यानी बन्ने खां लिया।अब तो वो भी बूढ़ा हो गया।
वो चाबुक मेरी घोड़ागाड़ी में जरूर रहता है पर में कभी अपने घोडे़ को चाबुक नहीं मारती। ये तो खुद मेरे बच्चे की तरह हैं और मेरे इशारों पर ही चलते हैं। क्योंकि चाबुक देखते ही मुझे अपने बेटे का दर्द और तकलीफ दिखाई देने लगती थी।
अगर ये जरूरी ना होता तो मैं इसे कभी अपने साथ ना रखती ।
ये चाबुक मेरा दर्द बढ़ाता है और ये पौशाक तुम्हारे काका के प्रेम को जिंदा रखती है और अब हमारा प्यार परवान चढ़ेगा " असुवन जल सींच सींच प्रेम बेल बोई
अब तो बेल फैल गई आनन्द फल होई।। कहते - कहते काकी गोते लगाने लगती यादों के सागर में।
हम भी काकी की बातों में इस कदर डूबे रहते कि जब तक घर से कोई बुलाने नहीं आता तब तक हम अपने घर नहीं जाते।
हमारे जाने के बाद भी मद्धम स्वर में ढपली की थाप पर काकी गा रही होती - - ‘‘ चार दिनां दा प्यार होये रब्बा... बडी लंबी जुदाई... लंबी जुदाई।’ और रात के सन्नाटे को चीरता हुआ ये मद्धम स्वर भी पूरे मोहल्ले को जगाए रखता ।
मोहल्ले वाले काकी के हर दुख और तकलीफ़ में साथ होते।
कुछ दिनों से बाबू ज्यादा बीमार हो गया था वो ना कुछ खाता ना हँसता।
माली काकी की तो जान ही अपने बाबू में बसती थी उसके खाना छोड़ने पर माली काकी का भी खाना छूट गया। वो भी बीमार सी रहने लगी और एक दिन बाबू की सांसे टूट गई।
तभी से माली काकी भी सुन्न हो गई। दस- बारह दिन माँ के पास रहने के बाद रुखसार वापस अपने ससुराल चली गई।
मौहल्ले की औरतें काकी से मिलने जाया करती थी। पर जैसे बाबू उनकी आवाज भी ले गया और काकी निरुद्देश्य सी चुपचाप बैठी रहती।
आखिर एक दिन माली काकी ने दरवाजा नहीं खोला तो रुखसार को बुलाया गया। प्रेम की लाल पोशाक पहने माली काकी एक हाथ में दर्द का चाबुक तो दूसरे में ढपली लिए अपने बाबू के पीछे चली गई अल्लाह के दर पे राशिद की तलाश में।
समाप्त
सुनीता बिश्नोलिया