Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 24 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 24

Featured Books
  • बैरी पिया.... - 39

    शिविका " आपने kiss फीलिंग की बात की.. ?? हमारे बीच क्या फीलि...

  • My Devil Hubby Rebirth Love - 40

    सुबह 10 बजे  रूही अभी सो रही थी इतने में उसके फोन कि घंटी बज...

  • बेखबर इश्क! - भाग 24

    ये सुनते ही कनिषा समझ गई की इशांक उसे अपनी कंपनी से बाहर फें...

  • द्वारावती - 60

    60गुल ने जब आँखें खोली तब वह गुरुकुल के किसी कक्ष की शैया पर...

  • जीवन सरिता नौन - ७

    स्‍वीकारो इस पाबन जल को, मुझको यहां मिलाओ। खुशी हुआ तब सुनत...

Categories
Share

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 24

भाग 22: जीवन सूत्र 24

आत्म सम्मान की सीमा रेखा की रक्षा करें

भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है: -

अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।(2/36)।

गीता के अध्याय 2 में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा,"तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे,फिर तुम्हारे लिए उससे अधिक दु:ख क्या होगा?"

अर्जुन के मन में अपने परिजनों को लेकर उठी मोह और दुविधा की स्थिति का समाधान करते हुए श्री कृष्ण ने उन्हें प्रेरित किया कि वीर पुरुषों को इस निर्णायक अवसर पर अपने कदम पीछे हटा लेना शोभा नहीं देता। अर्जुन जैसा वीर योद्धा चाहे अपने व्यक्तिगत कारणों और अति संवेदनशीलता के कारण कुरुक्षेत्र के मैदान से हट जाते लेकिन ऐसा होने पर इतिहास उनका अलग तरह से मूल्यांकन करता।उनके विरोधी निःसंदेह उन्हें कायर घोषित करते। द्वापर युग के श्रेष्ठतम धनुर्धर अर्जुन के लिए इस तरह का संभाव्य आरोप पूर्व के अनेक युद्ध में प्रदर्शित की गई उनकी कीर्ति के लिए एक धब्बे की तरह ही सिद्ध होता।

भगवान कृष्ण अर्जुन को अपने राज्य के प्रति कर्तव्य की भी याद दिलाना चाहते थे। शांति स्थापना के सभी प्रयत्नों के असफल हो जाने के बाद और स्वयं भगवान कृष्ण के शांति दूत के रूप में हस्तिनापुर की यात्रा के बाद भी युद्ध अपरिहार्य हो जाने के कारण अर्जुन व्यक्तिगत रूप से इस युद्ध के संबंध में कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थे। यह होती है सामूहिकता की भावना। अगर युद्ध अपरिहार्य है और एक बार निर्णय लिया जा चुका है तो फिर यह होकर रहेगा।पांडवों ने कोई शांति समझौता केवल इसलिए स्वीकार कर लिया होता कि इस भीषण रक्तपात से बचा जाए और इसलिए अनीति भी बर्दाश्त कर ली जाए,तो यह सीधे-सीधे आत्मसम्मान के विरुद्ध होता।अगर कलिकाल शुरू होते- होते अर्जुन के पुत्र परीक्षित के बदले दुर्योधन हस्तिनापुर की सत्ता पर काबिज रहता तो न जाने आगे कितने अधर्म होते।इसीलिए युद्ध एक तरह से अपरिहार्य था।हां,एक सीमित स्तर के युद्ध को दुर्योधन ने पूरे भारत से विशाल सेनाओं को आमंत्रित और एकत्र कर एक विनाशक युद्ध का स्वरूप दे दिया था। अतः अर्जुन के द्वारा हथियार उठाने का प्रश्न उस आत्मसम्मान और अस्मिता से भी जुड़ गया था, जिसके लिए पांडव अपने बचपन से संघर्ष कर रहे थे।

आत्मसम्मान और अहंकार में फर्क है।दुर्योधन के अहंकार ने उसे पराजित किया।पांडवों के आत्म सम्मान और आत्मविश्वास ने द्वापरयुग के सबसे शक्तिशाली हस्तिनापुर साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया।

(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले सभी भ्रम, दुविधाओं और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है।यह उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय