Param Vaishnav Devarshi Narad - 8 in Hindi Anything by Praveen kumrawat books and stories PDF | परम् वैष्णव देवर्षि नारद - भाग 8

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

Categories
Share

परम् वैष्णव देवर्षि नारद - भाग 8

विधाता होते हुए भी ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में अपने पुत्रों को सृष्टि की उत्पत्ति के लिए कहा तो वे सब इन्कार करके तप करने को चल दिए। पुत्रों के इस व्यवहार पर ब्रह्मा जी को इतना अधिक क्रोध आया कि उनका मस्तक ब्रह्मतेज से जलने लगा, जिससे ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए। जिनमें से एक का नाम कालाग्नि रुद्र है। यह रुद्र सृष्टि का संहार करने वाला है।
ब्रह्माजी ने पुनः सृष्टि रची। उनके दांये कान से पुलस्त्य, बांये कान से पुलह, दांये नेत्र से अग्नि, बांये नेत्र से क्रतु, नासिका के दांये पुट से अराणि, बांये पुट से अंगिरा, मुख से रुचि, बांये भाग से भृगु और दांये भाग से दक्ष, छाया से कर्दम, नाभि से पंचाशिख, वक्ष से वीढु, कण्ठदेश से नारद, स्कन्ध से मरीचि, ग्रीवा से अपान्तरतमा, रसना से वशिष्ठ, अधरोष्ठ से प्रचेता, वाम कुक्षि से हंस और दांयी कुक्षि से स्वयं यति उत्पन्न हुए। ब्रह्मा जी ने इन सब पुत्रों को सृष्टि-उत्पत्ति का आदेश दिया, जिसे सुनकर नारद जी बोले “हे पितामह! आपने हमसे ज्येष्ठ सनकादि को विवाह करके सृष्टि उत्पन्न करने के लिए विवश क्यों नहीं किया? आप स्वयं समर्थ होते हुए भी तप में क्यों प्रवृत्त हो रहे हैं, स्वयं सृष्टि रचना क्यों नहीं करते?
यह कहाँ का न्याय है कि पिता अपने पुत्रों में से किसी को अमृत (तप) प्रदान करे और किसी को विषपान (संसारी बनने) को विवश करे? पिता जी, आप जानते हैं कि अत्यंत निम्न और भयंकर इस संसार-सागर में एक बार गिरने के बाद करोड़ों कल्पों के व्यतीत हो जाने पर भी निस्तार नहीं होता। सभी कष्टों, संकटों, बाधाओं तथा आपत्तियों से निस्तार का एकमात्र एवं अमोघ (कभी व्यर्थ न जाने वाला) उपाय कृपा निधान पुरुषोत्तम श्री नारायण की भक्ति एवं उनकी शरणागति है।
श्रीकृष्ण के चरणाविन्द में अमृत से भी अधिक मधुर एवं सुखद अनुराग को छोड़कर संसार के विषयों के विनाशक विष कौन मूर्ख सेवन करना चाहेगा? इतना सुनने के बाद ब्रह्मा जी इतने अधिक क्षुब्ध हो गए कि वे नारद जी के वक्तव्य को अपनी अवज्ञा समझते हुए संयम न रख सके और शाप देते हुए बोले “नारद! तुमने मेरी अवज्ञा की है, फलस्वरूप तुम्हारे ज्ञान का लोप हो जाएगा और तुम नाना-योनियों में उत्पन्न होकर लंपट, कामी, घोर शृंगारी ही नहीं अपितु श्रृंगार में मधुर वाक (मीठी वाणी बोलने वाला) किन्नर और किसी योनि में दासीपुत्र बनोगे। अंत में वैष्णवों के संग और भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा के फलस्वरूप पुनः मेरे पुत्र बनोगे और मैं तुम्हें उस समय पुनः पुरातन ज्ञान प्रदान करूंगा। इस समय तो तुम मेरे शाप से नष्ट हुए ज्ञान के साथ पतन को प्राप्त करो।"
नारद जी को यह शाप देकर ब्रह्मा मौन हो गए। नारद जी ने रोते हुए पितामह से प्रार्थना की “जगद्गुरो, महातपस्वी तथा जगत् के रचियता के लिए इस प्रकार का क्रोध शोभनीय नहीं है। कुमार्गगामी पुत्र का पिता द्वारा त्याग और शाप तो समझ में आता है परंतु तपस्वी एवं आत्म-कल्याण के इच्छुक पुत्र को शाप देने का क्या औचित्य है? अच्छा, आपके मन में जो आया, आपने कह दिया, मैं उसे शिरोधार्य करता हुआ आपसे केवल एक ही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे केवल यही वर देने की कृपा करें कि जिस भी योनि में मेरा जन्म हो, मैं हरि भक्ति को न छोडूं और न ही श्री नारायण का नाम-संकीर्तन भूलूं।"
ब्रह्मा जी बोले "वत्स! तुम सचमुच ही धन्य हो। हरिभक्ति से बढ़कर उत्तम संसार में कुछ भी नहीं है। इस भारतवर्ष में सबसे हीन योनि शूकर योनि है, जिस भी व्यक्ति को जाति अभिमान हो जाता है, वह शूकर योनि में उत्पन्न होता है। इस योनि में भी हरि भक्ति करने वाला जीवन गोलोक को प्राप्त कर लेता है। वास्तव में श्रीकृष्ण के चरणारविंदों में भक्ति न करा सकने वाले पिता, गुरु, स्वामी तथा सखा आदि सब कुत्सित एवं त्याज्य हैं।"
नारद जी बोले "हे चतुरानन! आपने मुझे अकारण ही शाप दिया है, शास्त्रकारों ने पाताल को दण्डित करने की व्यवस्था की है। अतः मैं भी आपको शाप देता हूँ कि तीन कल्पों तक आप अपूज्य बने रहेंगे। तीन कल्प व्यतीत हो जाने के उपरान्त ही आपका विश्व में पूजन होगा।"
यह कह कर नारद जी शांत हो गए। ब्रह्मा जी के इसी शाप के चलते नारद जी को गंधर्व और दासीपुत्र आदि के रूप में अनेक योनियों में उत्पन्न होना पड़ा। इन योनियों से मुक्त होने पर उन्हें पुनः नारद के रूप में जन्म और पिता से ज्ञान प्राप्त हुआ।