मित्रों
प्रणव भारती का स्नेहिल नमन
हम भूल जाते हैं, इस संसार के वृत्त में घूमते हुए, हम इस कटु सत्य से अपने मन को न जाने कब भटका लेते हैं । बहुत देर बाद समझ आता है कि भई बहुत छोटा सा है जीवन ! और खो जाते हैं इस सागर की लहरों में ! सच बात तो यह है मित्रों कि हम अपनी ही बातों में, अपने कर्तव्यों में,अपनी परेशानियों में गुम हो जाते हैं | स्वाभाविक भी है क्योंकि हम अपनी प्रतिदिन की पीड़ाओं की गुत्थी में ऐसे उलझ जाते हैं कि जब तक हम पर कोई ऐसी इमर्जेंसी ही न आ पड़े तब तक हम उस गुफ़ा से निकल ही नहीं पाते जो हमारे अँधेरों में भीतर और भीतर उतरती चली जाती है |
"क्यों उदास हो? । " मन ने पूछा।
"तन्हाई में घिरी ज़िंदगी, क्या करें? "
"तन्हाई एंजाय करो !"
जीवन में कभी अभाव का दुःख, कभी स्वभाव का और कभी दुर्भाव का और इससे भी ऊपर तनाव का दुख घेरे रखता है। इन्हीं दुखों के वशीभूत हम टकराव की जिंदगी जीते हैं। और बिखराव का दुख भोगते हैं। दुःखों से सभी डरते हैं क्योंकि दुःख अप्रिय हैं।
दुख से दूर रहने और सुख पाने की चाहत में हम अक्सर नई नई गलतियांँ करते रहते हैं। यही हमारी सबसे बड़ी भूल होती है। यही गलतियांँ सुख को पास आने से रोकती हैं। दुख हमारी भूल ओर हमारे मानवीय स्तर से गिरकर घिनौने कर्मों का फल है। इसलिए अगर जीवन में सुख चाहिए तो हमें मानवीय मूल्यों को अपनाना होगा ।
मानसिक शांति की खोज में सदियों से लोग लगे हुए हैं लेकिन यह तो किसी किसी को ही प्राप्त हुई है । यह न त्याग से, न तप से, न गृहस्थ से, न धन दौलत से, किसी को मिलती है। इसे प्राप्त करना जितना मुश्किल है उतना आसान भी है। क्योंकि ये सभी के भीतर भरी हुई है। परंतु भीतर तो भरे हुए हैं - स्वार्थ, ईर्ष्या, क्रोध अहंकार, मोह, लोभ, ओर न जाने कितने अनाप शनाप विचारों की भीड़ अटी पड़ी है। फिर हम मानसिक शांति ढूंढ रहे हैं तो वो कैसे मिलेगी?
शौर्य तलवार में नहीं होता है, उसे चलाने वाले के भीतर होता है। भीतर शौर्य और शांति तभी सम्भव है जब शरीर मजबूत और मन भीतर से निर्मल हो।
मन बादल
घूमता है अंतर
प्यार सहज
तो मित्रों ! प्यार सहज है, सरल है। मन के भीतर है, बाँटने से बढ़ता है। आइए, महसूस करें इस आखर को और पंडित बन जाएं।
स्नेह
डॉ.प्रणव भारती