Shraap ek Rahashy - 28 in Hindi Horror Stories by Deva Sonkar books and stories PDF | श्राप एक रहस्य - 28

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श्राप एक रहस्य - 28

इस एक श्राप के साथ अब कितनी कहानियां जुड़ गई थी। जुड़ गई थी लोगो की भावनाएं, उनका गुस्सा औऱ उनके दुःख। प्राची से प्रज्ञा की मुलाक़ात बेहद भावुक कर देने वाला पल था। प्राची बस एकटक प्रज्ञा को देख रही थी, और सोच रही थी, कितना शौक था उसे गुड़ियों का अगर उस वक़्त उसे प्राची मिली होती जब वो जिंदा थी तो कितना खेलती वो अपनी इस प्यारी सी गुड़िया के साथ। काश की वो मरी ही ना होती। लेकिन कुछ काश बस यूं ही काश बनकर रह जाती है। कितना सुखद होता दोनों बच्चियों का बचपन,माँ और पिता के स्नेह तले कितना सुकून होता उनके जीवन में। लेकिन क्या ही करे जब एक पिता और एक माँ ही अपने बच्चों की दुशमन बन जाएं। सोचकर ही गुस्से से लाल हो गयी थी उसकी सुखी आंखे। उसने बस प्राची से एक ही सवाल किया था....

"तुम्हे मां प्यार तो करती है ना..?"

"हा... बहुत ज़्यादा लेकिन दी, लेकिन आपसे कम। वे सबसे ज़्यादा आपको प्यार करती है"। प्राची का इतना कहना था कि प्रज्ञा एक पल में ही गायब हो गयी औऱ इसके तुरंत बाद प्राची के हाथों से वो बालो वाली गुड़िया भी गायब हो गयी थी। कोई देख नहीं पाया सिर्फ़ प्रकृति जानती थी उस दिन एक रूह कितना बिलखकर रोई थी।

उस रात अखिलेश बर्मन ने भी जी भरकर शराब पिया था। उनके साथ दिलेर साहू भी थे,जहां दोनों पुराने दोस्त मिलकर अपने एक दोस्त के मरने का दुःख मना रहे थे। दिलेर साहू का सिर्फ़ नाम ही दिलेर नहीं था वे दिल से भी बड़े दिलदार थे। बार बार वे यहीं रट रहे थे कि मित्तल को मारने वाला अगर उन्हें अभी मिल जाएं तो अभी वो उनका खून पी जाएंगे।

अखिलेश बर्मन बकायदा नशे में थे लेकिन इसके वाबजूद वे उसे और ज़्यादा भड़का रहे थे। और आखिरकार उन्होंने अपना आख़िरी दांव खेला :-

"देख दिलेर बस बोलने से कुछ होगा नहीं। हमें उसे मारना ही होगा, चाहे वो जो भी हो। देख हम वहां जा सकते है,उसे वहां जाकर मार सकते है। अरे उसने हमारे इतने ख़ास दोस्त को मारा है। साले की उम्र ही क्या थी अभी। मैं तो कहता हूं चल अभी घाटी मे चलते है"।अखिलेश बर्मन का इतना कहना था कि दिलेर साहू तैयार हो गया। और उनकी गाड़ी घटियों के रास्ते सरपट भागने लगी।

दूसरी तरफ़ :-

"मुझे जाने दो, इतने इंसानो की मौत देखने की मेरी आदत नहीं है।"

एक रात प्रज्ञा की रूह ने घिनु से कहा।

"चली जाओ" घिनु ने भी दो टूक जवाब दिया।

"मैं ऐसे नहीं जा सकती, तुम मुझे मेरी शक्तियां लौटा दो। उनके बग़ैर मैं जा नहीं सकती। मेरी गुड़िया और वो बाल मेरे जो कुएं में फंसे रह गए थे वो मुझे दे दो। मैं चली जाऊंगी, फ़िर इस जगह में तुम जो चाहो करो।"

"हहह हहह .....तुम्हे लगता है वो मैं तुम्हें दे दूंगा। अरे मैंने तो बड़े हिफ़ाजत से रखा है उसे आख़िर मेरे कमजोरियों के दिनों में उन चीजों ने मेरी बहुत मदद की थी।" घिनु ने बेशर्मी से कहा।

"और अभी भी कर रही है, है ना..? तुम भी जानते हो उन चीजों के अलावे तुम इस जगह में ठहर नहीं सकते। आख़िर पूरी घाटी में से तुमने अपने ठिकाने के लिए यहीं जगह क्यों चुनी..? क्योंकि इस जगह ने तुम्हे स्वीकार लिया सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तुम्हारे पास मेरी शक्तियां थी। मेरे भीतर की तमाम बुराइयों को तुमने कैद कर लिया है, मेरी अच्छाइयां खो गयी है। बताओ मैं क्या करूँ..? क्या करूँ की मेरी शक्तियां तुम मुझे लौटा दो।"

"इंतजार करो, मैं ख़ुद अपनी ताकतें, और अपनी उम्र बढा रहा हूँ ताकि मुझे किसी और कि शक्तियों की जरूरत न पड़े। मैं लोगों के दिमाग़ को उनसे छीन रहा हूँ ताकि उनके आत्मा में कब्जा कर सकूं। फ़िर मेरी सेना में सिर्फ़ ये मामूली कीड़े ही नहीं रह जाएंगे, मेरे साथ होगी इस घाटी के तमाम मरे हुए लोगों की रूह। मैं लोगों से उनकी सारी जवानी निचोड़ रहा हूँ ताकि ख़ुद को इस दुनियां में ज्यादा दिनों तक बचाएं रख सकूँ। वरना फ़िर उसका जन्म होगा और फ़िर मुझे झेलनी होगी उसके हिस्से का सारा दर्द। देखो लोग अब मुझसे डरने लगे है, घाटी भी लगभग पूरी खाली है। मैं यहां से बाहर नहीं जा सकता मेरी सीमाएं तय की गई है, ताकि मैं अपनी सीमाओं को लांघकर कभी ख़ुद से उसे (कुणाल को) मार ना सकूँ, अब भले वो ख़ुद ही वो मर गया है, लेकिन कभी उसकी सुरक्षा के लिए ही ये सारी बातें उस श्राप के साथ जोड़ दी गयी थी। लेकिन तुम मेरी मदद कर सकती हो, तूम तो लोगो को यहां बुला सकती हो न। तुम घाटी के रास्ते से गुज़रने वालों को बहका कर यहां ला सकती हो। फ़िर हम दोनों का काम होगा। यक़ीन करो मैं लौटा दूंगा तुम्हे तुम्हारी सारी ताकतें"।

घिनु ने ये बात एक जहरीली मुस्कान को छिपाकर कहा था।

प्रज्ञा मान गयी। आख़िर यहीं तो करना था उसे, सबकुछ वैसा ही हो रहा था जैसे तय किया गया था। वो घिनु को लेकर वहां से हट गई। वे दोनों अब घाटी के एक दूसरे छोर पर थे जो थोड़ा आबादी से सटा हुआ था। शर्त ये थी कि प्रज्ञा लोगों को घाटी मे बुलाकर ले आएगी और घिनु अपना काम करेगा। बदले में बहुत जल्द वो प्रज्ञा को उसकी बुरी ताकतें लौटा देगा।

अखिलेश बर्मन जब दिलेर साहू को लेकर कुएं तक पहुँचा तो वहां घिनु नहीं था लेकिन वहां कोई था। कोई औरत जो कुएं के भीतर अपने पैर लटकाएं कुएं की दीवार पर बैठी थी।

..."कौन हो तुम..?" अखिलेश बर्मन ने झुँझलाकर पूछा।

"तुम्हारी पत्नी"....सकुन्तला जी ने बड़ी नर्म और ठहरी हुई आवाज़ में कहा।

इतना कहना था कि अखिलेश बर्मन के भीतर का सारा नशा छू मंतर हो गया। वे फ़टी हुई आँखों से अब सकुन्तला जी को देख रहा था, उनकी पीठ इस वक़्त अखिलेश बर्मन की तरफ़ ही थी। कहीं ये घिनु का कोई भद्दा मज़ाक तो नहीं, अचानक ये बात उनकी दिमाग़ मे कौंधा। लेकिन उन्होंने ग़ौर किया कि घिनु चाहे किसी भी रूप में रहे उसके अगल बगल भिनभिनाते कीड़ो का होना हमेशा ही तय होता है। लेकिन इस वक़्त उनका नामों निशान नहीं था। इसका मतलब था वो औरत सच में सकुन्तला जी ही थी।

क्रमश :- Deva sonkar