राजा उत्तानपाद की दो रानियां थीं। बड़ी रानी का नाम सुनीति और छोटी रानी का नाम सुरुचि था। सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था और सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम। राजा छोटी रानी और उसके पुत्र से विशेष स्नेह रखते थे, बेचारी सुनीति और बेटे ध्रुव की हमेशा उपेक्षा होती थी। महल की परिचारिकाएं भी सुरुचि से प्रसन्न नहीं रहती थीं। वे प्रायः घृणा से उनकी ओर देखती और बोलती, "देखो, वो आ रही है रानी सुरुचि।"
"देखो तो कैसी अकड़ है, इसका तो बस एक ही लक्ष्य है कि किसी तरह से इसके पुत्र उत्तम को ही राजगद्दी मिले।"
सुरुचि अपने बेटे के पास गई तो वह बोला "माँ! इस समय पिता जी खाली बैठे हैं। मैं जाकर उनकी गोदी में बैठ जाऊं?"
"जरूर बैठो मेरे मुन्ने! होने वाले राजा का उस गोद पर पूरा अधिकार है।" सुरुचि ने बेटे के सिर पर प्रेम से हाथ फिराते हुए कहा।
ध्रुव ने उत्तम को पिता की गोद में बैठे देखा, तो वे भी उधर ही भागे और बोले "पिता जी, मैं भी आपकी गोद में बैठूंगा।"
सुरुचि ने उसे झिड़का "हरगिज नहीं! तुझे उस गोद में बैठने का कोई अधिकार नहीं है। भाग जाओ यहाँ से"
"मैं कहाँ जाऊं, छोटी माँ।" कल्पित होकर रुंआसे स्वर में ध्रुव ने पूछा।
"जा, भगवान् विष्णु से प्रार्थना कर कि तुझे मेरी कोख से जन्म दें। तभी तू उत्तम की तरह अधिकार पा सकेगा।"
दुखी ध्रुव, बिलखते हुए अपनी माँ के पास पहुंचे। माँ ने उन्हें गोद में उठा कर प्यार से पूछा “रो क्यों रहा है मेरे लाल?"
ध्रुव बोले "माँ, माता सुरुचि कहती हैं कि पिता जी की गोद में बैठने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। वे कहती हैं कि केवल उत्तम ही पिता की गोद में बैठ सकता है।"
“वे ठीक कहती हैं, पुत्र!" सुनीति बोली और बेटे को
कलेजे से लगाए भीतर ले गई। ध्रुव ने पूछा "माँ, मैं तो क्षत्रिय राजकुमार हूँ ना?"
"हाँ, मेरे बेटे!" सुनीति ने जवाब दिया।
अपनी माँ की गोद में चैन से बैठे बालक ध्रुव कुछ सोचते रहे। फिर बोले "माँ! माता सुरुचि ने कहा कि अगर पिता की गोद में बैठना चाहता है तो भगवान् विष्णु से प्रार्थना करनी पड़ेगी। क्या सचमुच भगवान् विष्णु मेरी मदद करेंगे माँ?"
“हाँ, मेरे बेटे! भगवान् शरणागत को कभी निराश नहीं करते। "
“तब तो मैं उनके दर्शन अवश्य करूंगा।" ध्रुव ने दृढ़
स्वर में कहा।
ध्रुव जब अगले दिन वन में जाने को तत्पर हुए तो उनकी माता ने आशीर्वाद दिया, "जाओ मेरे लाल, उनके सिवा कोई हमारी मदद नहीं कर सकता। उनके दर्शन कर पाना सरल बात नहीं है, किंतु तुम सच्ची तपस्या करोगे तो अवश्य सफलता मिलेगी।"
"मुझे सफलता अवश्य मिलेगी माँ।" बालक ध्रुव दृढ़
निश्चय के साथ बोले "मैं जाता हूँ अब और भगवान विष्णु के दर्शन किए बिना नहीं लौटूंगा। फिर मैं अपने पिता और दादा से भी बड़ा राजा बनूंगा।" कहते हुए ध्रुव वन की ओर चल पड़े।
उधर, देवर्षि नारद को सुरुचि के कटु वचनों और ध्रुव के संकल्प के बारे में पता चला तो उन्होंने सोचा, 'ध्रुव सच्चा क्षत्रिय है। अभी वह बालक मात्र ही है किंतु सौतेली माँ का दिया हुआ अपमान सह नहीं सका। पर बेचारा कैसा असंभव संकल्प कर बैठा है। चलकर उसे समझाना होगा। नारद ध्रुव के पास पहुंचे और बोले "बेटे! अपने भाग्य से समझौता करके अपनी माँ के पास चले जाओ।"
बालक ध्रुव ने कहा "हे देवर्षि नारद मैं यशस्वी राजा उत्तानपाद का बेटा ध्रुव हूँ। मैं क्षत्रिय हूँ। मैंने भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने का निश्चय कर लिया है।"
नारद बोले "मुझे मालूम है, वत्स। किंतु अभी तुम बहुत छोटे हो। भगवान के दर्शन कर पाना बहुत कठिन बात है। तुम जरा बड़े हो जाओ, तब कोशिश करना।"
ध्रुव ने कहा "क्षमा कीजिए देवर्षि। मैं अपना इरादा बदलने वाला नहीं। आप मेरा मार्गदर्शन कर दें तो आपकी अति कृपा होगी।"
देवर्षि नारद ध्रुव के निश्चय की दृढ़ता से प्रसन्न होकर बोले "यमुना तट पर एक स्थान है– मधुवन। तुम वहाँ जाकर तपस्या करोगे तो भगवान् तुम्हें जरूर दर्शन देंगे।"
ध्रुव ने पूछा "हे मुनिवर! अब ये भी बता दीजिए कि तपस्या कैसे की जाती है?" तब नारद ने उन्हें समाधिस्थ होकर 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र का जाप करने को कहा और बोले "बस इसी मंत्र को बार-बार दोहराकर ध्यान लगाना।"
तत्पश्चात् ध्रुव तो मधुवन की ओर चल पड़े और नारद राजा उत्तानपाद के पास पहुँचे। राजा ने नारद का बहुत सम्मान किया और एक ऊंचे आसन पर स्थान दिया।
नारद ने महसूस किया कि राजा ने यद्यपि बड़े आदर के साथ उनका सत्कार किया है, तथापि उनका चित्त कहीं और भटक रहा है। इस पर नारद जी ने पूछ लिया "राजन्, आप किस चिंता में पड़े हैं?"
राजा ने कहा "देवर्षि। मैं बहुत नीच और स्वार्थी हूँ।
सुरुचि ने कर्कश वचनों का प्रयोग कर बेचारे ध्रुव को घर से भगा दिया और मैं अभागा कुछ भी नहीं बोला। हाय, वह बेचारा अकेला जंगलों में भटक रहा होगा। नन्हीं-सी जान को जंगली जानवर फाड़कर खा जाएंगे।"
नारद ने राजा को आश्वासन देते हुए कहा "डरो मत
राजन्! स्वयं भगवान् विष्णु तुम्हारे पुत्र की रक्षा करेंगे। वह तो तुम्हारे वंश का कुलदीपक है। वह शीघ्र ही लौट आएगा।"
ध्रुव मुधवन पहुंचे और एक वृक्ष के नीचे पत्थर की बनी भगवान् की प्रतिमा के आगे समाधिस्थ होकर बैठ गए। उन्होंने मन ही मन देवर्षि नारद के बताए मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया। पहले महीने उन्होंने केवल फल खाकर निर्वाह किया।
धीरे-धीरे उन्होंने फल भी छोड़ दिए और केवल घास-पात खाने लगे। तीन महीने के बाद उन्होंने घास-पात खाना भी छोड़ दिया और सिर्फ हवा के सहारे जिंदा रहने लगे। वे निरंतर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का मंत्र दोहराते रहते।
पाँचवें महीने उन्होंने सांस भी रोक ली और एक टांग पर खड़े रहकर मंत्र जाप करते रहे। ध्रुव की कठिन तपस्या की शक्ति से पवन तक रुक गया। सारे स्वर्ग में त्राहि-त्राहि मच गई। धरती के लोग व्याकुल हो उठे और भगवान् से रक्षा की प्रार्थना करने लगे। स्थिति असह्य हो उठी तो सभी देवता मिलकर भगवान् विष्णु के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना की "हे प्रभु, हमारी रक्षा कीजिए।"
भगवान् श्रीहरि बोले "हे देवगणों, इतने निराश मत होओ। मैं पृथ्वी पर जाकर ध्रुव को उसका इच्छित वरदान दूंगा, तब सब ठीक हो जाएगा।
उधर, ध्रुव की तपस्या जारी थी। वह सोच रहे थे , कि "हे प्रभु कभी मुझे लगता है कि आप मुझे मिल गए, पर तभी आप अंतर्धान हो जाते हो। क्या मेरी पूजा अभी अधूरी है? आप मुझसे रुष्ट हो प्रभु तो मैं अपना तप फिर से नए सिरे से करूंगा।"
ध्रुव ने जैसे ही आँखें खोली, उन्होंने साक्षात् भगवान् विष्णु को अपने सम्मुख खड़े पाया। ध्रुव हर्षित हो उठे और उनके पैरों में गिरकर बोले "हे मेरे प्रभु! आखिर आपने मुझे दर्शन दे ही दिए।"
भगवान् बोले "ध्रुव, तुम मधुवन में क्यों आए हो, यह मुझे मालूम है। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। तुम महान राजा बनोगे।" किन्तु उस समय ध्रुव के हृदय से राज्य भोग की वासना मिट गयी थी। उन्होंने कहा "प्रभु! कोई यदि कांच की खोज में ढूढते-ढूंढते मणि पा जाय तो क्या वह मणि को फेंक कांच की खोज करने लगेगा।"
श्रीभगवान की कृपा से उन्हें राज्य प्राप्ति एवं भोग के अन्त में मोक्ष की प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
ध्रुव को आशीर्वाद देकर भगवान् विष्णु वेकुंठलोक चले गए। ध्रुव 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय' कहते हुए अपने घर लौट पड़े।
ध्रुव के आगमन की खबर जैसे ही राजा उत्तानपाद को मिली, उन्होंने अपना रथ सजवाया और अपने पुत्र पर भरपूर प्यार लुटा दिया। फिर ध्रुव जैसे ही बालिग हुए, राजा उत्तानपाद ने उन्हें सिंहासन सौंप दिया और वे स्वयं वानप्रस्थ आश्रम में चले गए।