Agnija - 109 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 109

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अग्निजा - 109

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-109

उपाध्याय मैडम ने घर के बारे में भावनायुक्त विचार व्यक्त किये। ‘एक स्त्री के लिए अपने अधिकार का घर पाना कितना दुर्लभ होता है, और उसकी कितना महत्ता है, यह बात उन्होंने अच्छे से समझायी। बहुत कम स्त्रियां ऐसी होती हैं जो अपना घर खरीद पाती हैं, उस पर केतकी जैसी इतनी कम उम्र में घर खरीदने वाली तो और भी कम होती हैं। इस लिए केतकी का जितना अभिनंदन किया जाए, कम ही है।’

इतनी तारीफ सुनकर केतकी शरमा गयी। उसने धीरे से कहा, ‘मैडम, मैंने कुछ नहीं किया। हालात ही ऐसे बन गये कि मुझे यह सब करना पड़ा। उस पर आप जैसे शुभचिंतकों का साथ और शुभेच्छाएं मिल गयी, बस बात इतनी ही है। ’

प्रसन्न बीच में ही बोल पडा, ‘एकदम ऐसा ही है, यह नहीं कह सकते। ऐसे हालात तो अनेक लोगों के सामने आते हैं। मौके भी मिलते हैं। लेकिन ऐसा निर्णय कितने लोग ले पाते हैं? कितने लोग उस परिस्थिति,उस मौके का लाभ उठाते हैं? स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व की पहचान के लिए उसका अपना घर होना अतिआवश्यक है।’

दोनों की बातचीत सुनकर यशोदा को खुशी हो रही थी। केतकी को लेकर गर्व भी हो रहा था। लेकिन फिर भी वह अपनी चिंता छुपा नहीं पायी, ‘यह सब तो ठीक है, लेकिन लड़की की जात को ऐसे अकेले रहने से कैसे चलेगा?’

‘लेकिन, आंटी...’ प्रसन्न कुछ कहने जा रहा था लेकिन उपाध्याय मैडम ने उसका हाथ दबा दिया और फिर धीरे से बोलीं, ‘आपकी चिंता जायज है, लेकिन बच्चों को आजादी तो देनी ही चाहिए न? छोटे बच्चों को हम स्कूल में अकेला छोड़कर आते ही हैं न? ये जीवन भी एक स्कूल ही तो है, केतकी इस स्कूल में अभी नयी-नयी है। लड़खड़ाकर चलेगी। और फिर वह अकेली कहां है? आप हैं न उसके साथ...हम सब भी साथ हैं ही उसके।’

भावना ने झूठमूठ नाराज होते हुए कहा, ‘मेरी तो कोई गिनती ही नहीं है...’

उपाध्याय मैडम ने हंसकर उसकी तरफ देखा, ‘नहीं, तुम्हारी गिनती तो हो ही नहीं सकती क्योंकि तुम तो केतकी की जान हो, छाया हो। हम इतने भाग्यवान कहां? तुम और केतकी अलग-अलग हो ही नहीं। तुम दोनों एक ही हो इसलिए तुम्हारी अलग से गिनती नहीं होगी, समझी?’

भावना भावुक हो गयी, ‘मुझे तो समझ में आता है और मैं अनुभव भी करती हूं...पर...मेरे लिए केतकी बहन प्राणवायु है। मेरे जीने की वजह है, लेकिन ये सब जरा उसको भी समझाइए...’ उपाध्याय मैडम ने उन दोनों के हाथ पकड़ लिये और एक के ऊपर एक रखते हुए बोलीं, ‘दोनों समझदार हो। कभी ऐसा भी होता है कि कोई बात बताने जैसी नहीं होती, कभी सही समय का इंतजार करना पड़ता है, कभी बताकर तुम्हें चिंता में डालना नहीं चाहती वह...’

‘और वह अकेले-अकेल भीतर दुःख सहन करती रहती है, उसका क्या?’

‘पर, बेटा उस पीड़ा की झलक तुम तक न पहुंचे, उसकी यही इच्छा होती है, तो उसमें गलत क्या है?’ और फिर उपाध्याय मैडम यशोदा की तरफ देखकर बोलीं, ‘भाग्यवान हैं आप। आपकी दोनों बेटियां हिम्मतवान है. बहादुर हैं। दोनों एकदूसरे पर जान छिड़कती हैं। ऐसा कम ही देखने में आता है। ये सब आपके संस्कारों का परिणाम है।’

यशोदा का दिल भर आया, ‘दीदी, मैं अपने कामकाज से बाहर आ पाऊं तब तो इन पर संस्कार डालूं? केतकी के पिता का आशीर्वाद है ये...और हालात ने सिखायी हुई समझदारी...महादेव की कृपा से उसे आप जैसे अच्छे और सच्चे लोग मिले।’

केतकी अपने पेट पर हाथ रखते हुए बोली, ‘भावना, कोई फायदा नहीं हो रहा है...’

‘काहे का फायदा, केतकी बहन?’

‘अरे, इतनी बातें कर लीं, पर उनसे पेट नहीं भरा...’

प्रसन्न ने घड़ी देखी, तभी दरवाजे पर घंटी बजी। हॉटेल का वेटर खाने का पार्सल लेकर आया था।

पार्सल खोलते ही बाजरे की रोटी, बैंगन का भरता, आलू-प्याज की तर्री वाली सब्जी, लहसुन की चटनी, खिचड़ी, छाछ और कढ़ी देखकर भावना भीतर प्लेट-कटोरियां लेने के लिए दौड़ी।

केतकी इतना सबकुछ देखकर खुश हो गयी। ‘अब होटल में भी ये सब मिलने लगा?’

उपाध्याय मैडम बोलीं,‘अरे नहीं...प्रसन्न ने खोजा है. हाईवे पर काठियावाड़ी ढाबा है। उसने वहां पर उससे हुज्जत करके, उसे ज्यादा से देकर होम डिलवरी देने के लिए कहा। तुम गेहूं नहीं खातीं इसलिए उसने खासतौर पर बाजरे की रोटी बनाने के लिए कहा।’

केतकी, प्रसन्न से नजरें नहीं मिला पायी। वह नीचे देखती रही। उसने अपन पर्स खोली और पार्सल लेकर आने वाले लड़के से पूछा, ‘कितने पैसे हुए बेटा? ‘पैसे तो साहब ने होटल में ही चुका दिए। मुझे भी पचास रुपए दिए...आपके ये बहुत अच्छे हैं...’ इतना कहकर वह लड़का पार्सल के बरतन इकट्ठा करने लगा।

सभी लोगों ने भरपेट भोजन किया। बातें की। हंसी-मजाक किया। भावना ने उपाध्याय मैडम से आग्रह किया कि अगली बार वह यहां रहने के हिसाब से आएं।

उपाध्याय मैडम उत्तर देतीं, इसके पहले ही भावना का फोन बज उठा। भावना ने केतकी के सामने फोन रखा। केतकी ने मोबाइल को स्पीकर पर डाल दिया। सामने से जयश्री की आवाज सुनाई दी। ‘दादी को बुखार है और पिताजी की छाती में भी दर्द हो रहा है। यही बताने के लिए फोन किया था।’ इतना कहकर उसने फोन काट दिया।

यशोदा एकदम उठ खड़ी हुई, ‘केतकी मैं अब निकलती हूं...’

‘मां, तुम कहीं नहीं जाओगीय..हमारे साथ रहोगी, हमेशा के लिए...’

‘नहीं बेटा....मैं शादी करके आयी हूं, वही मेरा घर है.मैं मरने के बाद ही वहां से निकल पाऊंगी।’

‘लेकिन मां, वहां...’

‘वह सब ठीक है..पर वही मेरा घर है...तुम चिंता मत करो..’

भावना ने मां का हाथ पकड़ लिया, ‘मां प्लीज, तुम हमारे ही साथ रहो न...’

‘मैं तो हमेशा ही तुम लोगों के साथ हूं और रहूंगी...लेकिन इस समय मुझे वहां जाना होगा।’

‘लेकिन मां...’ भावना को बीच में ही रोक कर उपाध्याय मैडम ने उसके कंधे पर हाथ रखा और उसे समझाया, ‘तुम दोनों बहनें जिद करोगी और मां यहां रह जाएगी, तो भी उसकी जान वहीं अटकी रहेगी...उनको जाने दो...आज मैं ठहरती हूं तुम लोगों के साथ...ठीक?’

प्रसन्न ने यशोदा से पूछा, ‘मां, आप स्कूटर पर बैठ सकेंगी?’

यशोदा उसकी तरफ देखती ही रह गयी, ‘मां’ कहा उसने। भावना ने उत्तर दिया, ‘हां, वह बहुत बार हमारे साथ स्कूटर पर बैठी है, लेकिन क्यों?’

‘अरे, मैं जाते समय छोड़ दूंगा न। रास्ते में तुम दोनों की शिकायतें भी मैं उनसे कर पाऊंगा। और फिर उतनी देर मैं उनके साथ रह पाऊंगा... ’

केतकी दुविधा में पड़ गयी, ‘आप क्यों, मैं छोड़ दूंगी न उसको...’

‘अरे, उपाध्याय मैडम यहां पर हैं। आप सब गप्पें मारिए...भावना आपका दिमाग पकाएगी, मुझे सटकने का मौका मिल रहा है तो मुझे जाने दीजिए न...?’ फिर हंसते हुए यशोदा की ओर देखते हुए बोला, ‘ठीक है न मां....आपका कुछ सामान साथ लेना है?’

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केतकी को पूरा भरोसा था कि किसी को भी कुछ नहीं हुआ है। जयश्री झूठ बोल रही थी। इस काम में उसे शांतिबहन और रणछोड़ दास ने साथ दिया था। भावना भी सोच रही थी, ‘ये तो मां को घर वापस बुलाने की उनकी चाल है। लेकिन मां भला वहां क्यों जा रही है?’

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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