Agnija - 107 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 107

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अग्निजा - 107

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-107

केतकी अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी, तभी दरवाजे पर घंटी बजी। ‘दोनों इतनी जल्दी वापस आ गयीं?’ केतकी ने उठकर दरवाजा खोला, ‘अच्छा हुआ, तुम लोग आ गये...’ लेकिन दरवाजे पर जीतू को देखकर उसका वाक्य अधूरा ही रह गया।

‘वाह, पहली बार मुझे यहां देखकर तुम्हें अच्छा लगा होगा...चलो शुरुआत तो अच्छी हुई।’

‘लेकिन, आप अचानक? यहां?’

‘मेरी तारीफ खत्म हुई नहीं कि तुमने अपनी जात दिखा दी...क्यों? यहां आकर मैंने कोई गुनाह किया है? और, मैं यहां क्यों नहीं आ सकता? तुम किसी और की राह देख रही थी क्या, ये भी मेरा ही घर है, समझ में आया न?’

‘हां, वह सब तो ठीक है, परंतु...’

‘ये अपना किंतु परंतु बाजू में रखो...एक गिलास पानी लेकर आयो पहले...है न घर में पानी? उसके बाद मेरे कलेजे को ठंडक पहुंचे ऐसा एक काम करो....’

केतकी ने प्लास्टिक के गिलास में पानी दिया। जीतू हंसने लगा। उसने गिलास खिड़की में रख दिया। ‘यहां तो साला बैठने के लिए भी जगह नहीं है...इसलिए अधिक देर तो रुकूंगा नहीं, निकलता हूं...जल्दी से कागजपत्तर पर दस्तखत करके दे दो...’

‘जीतू, शादी के बाद तो यह घर हमारा ही है न? फिर उसके लिए दस्तखत करने की क्या जरूरत?’

‘वह तो ठीक है, हमारी शादी तो होने की वाली है न? तो फिर चलो अंदर के कमरे में...’इतना कहकर जीतू ने केतकी का हाथ पकड़ा और अपने होंठ केतकी के होठों के नजदीक ले गया। केतकी घबराकर दूर हट गयी...उसने अपना हाथ छुड़ा लिया।

‘ये क्या कर रहे हैं?’

‘क्यों? तुम भी तो मेरी ही हो न?’

‘हां...हां...लेकिन’

‘ए...ज्यादा होशियारी मत दिखाओ....कागजपत्तर पर दस्तखत कर दो...तुम्हारे पास आने में मेरी कोई रुचि नहीं है, समझ गयी न?’

जीतू की आवाज में तिरस्कार का भाव सुनकर केतकी को झटका लगा।

‘शादी के पहले ही इसे मुझमें रुचि नहीं, तो बाद में क्या होगा?’

‘बाद की बात बाद में....अपनी झिकझिक बाजू में रखो...तुमसे शादी कर रहा हूं, यही क्या कम है? सच बताओ, नहीं तो ऐसी गंजी लड़की से कौन शादी करेगा? मैं तुम पर दया कर रहा हूं.. अब नाटक छोड़ो और दस्तखत करके कागज मुझे सौंपो।’

केतकी, जीतू की तरफ देखती ही रह गयी। उसके कानों में जीतू के शब्द गूंज रहे थे....केतकी का माथा ठनका....ये शादी यानी अंधा कुआं...इसमें रोज-रोज मरते रहना होगा? डरते-डरते जीना होगा? मेरे भविष्य में मुझे यशोदा का भूतकाल और वर्तमान दोनों दिखायी दे रहा है...

जीतू ने केतकी के मुंह के सामने चुटकी बजाते हुए कहा, ‘कहां खो गयी? सोच-विचार बाद में करते रहना..मुझे पहले कागज दे दो...’

‘जीतू, आप जिस तरह से मुझसे बात कर रहे हैं, उसका विचार करते हुए तो कागजों पर दस्तखत करने से पहले मुझे विचार करना होगा....’

‘अब तक विचार नहीं किया....पर उसमें विचार करने जैसा क्या है? विचार करने की कोई जरूरत नहीं....मैं कह रहा हूं न, कर दो दस्तखत...’

‘आप जिद और जल्दबाजी मत करिए...मुझे समय चाहिए विचार करने के लिए....’

जीतू का दिमाग खराब हो गया... ‘साला....मैं इस पर दया दिखा रहा हूं, उसकी कोई बात नहीं...मैंने तुमसे शादी करने के लिए हां कहते समय विचार किया था क्या....हां कहां न?’

‘लेकिन, मैं नहीं चाहती कि आप किसी तरह की दया दिखाकर मुझसे शादी करें। विवाह एक पवित्र संबंध है...दो आत्माओं का मिलन...जीवन भर का साथ है...एकदूसरे का आसरा... ’

‘ए मास्टरनी, लेक्चर स्कूल में देना...समझी? मेरे सामने नहीं...’

जीतू ने सामने सरक कर उसका हाथ पकड़ लिया, ‘बोल, कहां है पेपर? मैं लाकर देता हूं...आज तो मैं दस्तखत लेकर ही जाऊंगा...’

जीतू ने केतकी के हाथ की पकड़ मजबूत कर दी। केतकी को दर्द होने लगा, लेकिन उसने हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की। ‘तो एक बात तुम भी कान खोलकर सुन लो...मैं आज दस्तखत करने वाली नहीं...समझे?’

‘ऐसा? इतनी अकड़ है तुझमें, किस बात का घमंड है? तू तो क्या तेरा बाप भी दस्तखत करेगा आज तो ...चल..’ जीतू ने केतकी को आगे घसीटा। केतकी वापस मुड़ी। वह उसके सामने हुई और बोली, ‘छोड़ मेरा हाथ...’

‘तुम्हारा हाथ पकड़े रहने में मुझे भी भला कहां रुचि है...तुम दस्तखत कर दो तो हाथ छोड़ दूंगा...’

‘प्लीज, मेरा हाथ छोड़ो...’ लेकिन जीतू तो केतकी का दूसरा हाथ भी पकड़ने लगा, तब केतकी ने खुद को बचाने के लिए जोरदार धक्का दिया। धक्का देते समय अचानक उसका हाथ जीतू की टी-शर्ट की बटनों में अटक गया। धक्का खाकर जीतू जैसे ही पीछे हुआ, उसका टी-शर्ट फट गया। टी-शर्ट को फटा हुआ देखकर जीतू बिफर गया। ‘तू बातों से तो मानेगी नहीं तो....तेरे बाप ने मुझे पहले ही बता रखा था कि उसे सीधा कैसे करना है, ये आप जानो...लेकिन तब मुझे समझ में नहीं आया था... ’ इतना कहकर जीतू ने अपनी पैंट का बेल्ट निकालने लगा। इसी के साथ केतकी की नजरों के सामने अनेक दृश्य तैरने लगे...मां, रणछोड़, चीख, आंसू, खून, पीड़ा, अत्याचार....केतकी को न जाने क्या सूझा वह जीतू की ओर दौड़ी। पट्टा निकाल रहे उसके हाथ को उसने पकड़ने की कोशिश की। जीतू ने दूसरे हाथ से उसे जोरदार थप्पड़ मारा। केतकी पीछे की ओर गिर गयी। लेकिन जीतू उसके पास सरका। केतकी पीछे सरकने के बजाय जीतू की ओर बढ़ी। जीतू के टी-शर्ट का की कॉलर पकड़कर बोली, ‘खबरदार, हाथ उठाया तो...’

‘तू...तू मुझे धमकी दे रही है? ....रुक...आज तो तुझे सीधा कर ही देता हूं...’

जीतू पैंट से बेल्ट निकाल ही रहा था और इधर केतकी ने दोनों हाथों से उसका टी-शर्ट खींचा। टी-शर्ट पूरी तरह से फट गया। जीतू की मर्दानगी लजा गयी। ‘तू...तू...साली एक औरत मुझ पर हाथ उठा रही है...अच्छा ...?’ वह आगे बढ़ता इससे पहले केतकी बिफरी हुए बछ़ड़े की तरह भागती हुई आई और उसने जीतू को जोरदार धक्का मार दिया। जीतू दीवार से जाकर टकराया। केतकी मुट्ठी बांधकर बाहर भागी। मानो उसके पीछे नरभक्षी बाघ पड़ा हो, वह इस तरह से पीछे देखे बिना भागने लगी...दौड़ती ही रही।

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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