अग्निजा - 105 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 105

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अग्निजा - 105

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-105

केतकी और यशोदा दरवाजे तक पहुंची ही थीं कि भावना उनके पीछे दौड़ी। ये देख कर शांति बहन बोलीं, ‘ए लड़की, तू मेरे पास आ। तेरा पीछा छूटा उनसे...’ यशोदा भी भावना को घर के भीतर ठेलने लगी, लेकिन भावना दृढ़ थी। ‘मैं भी मां और केतकी बहन के साथ जाऊंगी...’

शांति बहन ने अपने गुस्से पर काबू करते हुए उसे समझाने की कोशिश की, ‘अरे पगली, ये तेरा घर है, तेरा अपना...’

‘घर? घर ऐसा होता है क्या? और इस घर में तो प्रेम, दया, माया, सहानुभूति रहनी चाहिए न....मुझे तो ये सब कभी दिखा ही नहीं...’

रणछोड़ ने हुकुम फरमाया, ‘ए लड़की...घर के भीतर आओ...जाने दो उन दोनों को...’

‘और यदि मुझे घर में आना ही नहीं होगा तो?’

‘ये मेरा आदेश है...तुम्हारे पिता का आदेश।’

‘पिता? मुझे तो शर्म आती है तुम्हें पिता कहते हुए...पिता का एक भी लक्षण है आपके भीतर नहीं है...’

‘इन दोनों ने कोई जहर नहीं बोया है...बचपन से आपका व्यवहार देखते आ रही हूं मैं। इसलिए आपके प्रति मेरे मन में नफरत पैदा हो गयी है।’

यशोदा ने भावना के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘ऐसा नहीं है, इतना बुरा नहीं बोलते...तुम भीतर जाओ भला...’

‘नहीं मां, तुम और केतकी बहन जहां रहोगी, मैं भी वहीं आपके साथ रहूंगी...’

‘यदि ऐसा होगा तो आज से तुम्हारी कोई भी जिम्मेदारी मुझ पर नहीं रहेगी...तुम्हारी शादी की भी नहीं और पढ़ाई-लिखाई की भी नहीं...समझ गयीं? और मेरे माल-मत्ते से भी तुमको कौड़ी भर नहीं मिलने वाला...’

‘और आज से आप मेरे नाम के पीछे लगा हुआ आपका नाम भी हटा डालिए न...मैं अपने नाम के साथ यशोदा बहन या केतकी बहन लगाऊंगी....या फिर जनार्दन जानी का नाम लगा लूंगी....समझ गये?’

अब शांति बहन चीखीं, ‘जनार्दन जानी का नाम? वो तुम्हारा बाप नहीं है...’

‘न हों...पर उनके कारण मुझे केतकी जैसी बहन मिली...मेरे लिए इतना ही काफी है...और मेरे साथ किसका नाम जुड़ रहा है इसकी चिंता छोड़िए...आज से हमारा संबंध खत्म...हमेशा के लिए.’

रणछोड़ दासा दौड़ा। तीनों को दरवाजे से बाहर धकेल कर उसने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। ‘हुश्श....छुटकारा मिला...पानी लेकर आओ तो यशोदा...’ पिता को अभी-भी यशोदा की याद आ रही है, यह जानकर जयश्री को आश्चर्य हुआ, लेकिन वह कुछ बोली नहीं। शांति बहन ने उसका हाथ खींचा तो वह मुंह बनाकर पानी लाने के लिए भीतर चली गयी। शांति बहन बेटे के पास आकर बैठ गयीं। लेकिन उसके दिमाग में तो दूसरी ही चाल चल रही थी। केतकी चली गयी, ये तो अच्छा हुआ ..लेकिन भावना और खासतौर पर यशोदा के चले जाने से अब आगे कैसे चलेगा?

दरवाजा खोलकर केतकी अंदर आयी। उसने यशोदा को बाहर ही खड़े रखा। तभी पीछे-पीछे भावना भी आ गयी। उसके हाथ में प्लास्टिक की एक थैली थी। थैली में से उसने कुमकुम र फूल निकाले। मां के पैरों पर रखे। उसके माथे पर कुमकुम लगाया। ‘मां, तुम ही मेरी सरस्वती हो, लक्ष्मी और रिद्धी-सिद्धी भी हो....अब कदम अंदर रखो और मुझे आशीर्वाद दो...’ यशोदा दुविधा में थी। घर छूटने के झटके से वह अभी उबर नहीं पायी थी। उस पर से दोनों बेटियां बेघर होने का दुःख उसे असहनीय हो रहा था। और फिर अपने भविष्य की भी चिंता सता रही थी।

केतकी का मन रखने के लिए उसने कदम अंदर रखा। केतकी ने मां के पैर छुए। यशोदा ने उसे आशीर्वाद दिया, ‘हमेशा खुश रहो।’ इतना कहते साथ उसकी आंखो से आंसू बह निकले। केतकी ने थोड़ी नाराजी भरी आवाज में पूछा, ‘अब किस बात का दुःख है तुमको...क्यों रो रही हो?’

‘रोऊं नहीं तो क्या करूं? दोनों बेटियों को शादी से पहले ही घर छोड़ना पड़ा,ये क्या कम दुःख है?’

‘घर कहां छोड़ा? उल्टा वो अपने घर में आई हैं...’

‘समाज में रहकर ऐसा नहीं चलता..’

‘समाज? तुम्हारे साथ मारपीट हो रही थी, बेटा न होने की वजह से अत्याचार हो रहे थे, मुझसे मजदूरी करवायी जा रही थी, तब तुम्हारा समाज कहां था, क्यों चुप था, या अंधा हो गया था? मां, मुझे समाज की चिंता नहीं है...मेरा समाज तुम और मेरी भावना है...समझ में या गया न?’

‘ऐसे नहीं चलता बेटा...लोग कुछ भी बोलते रहते हैं...’

‘बोलने दो न...लोगों को कामधाम नहीं रहता...वे बस निंदा करते रहते हैं। उन्हें ऐसी बातों में ही रुचि रहती है...मैं उनकी परवाह नहीं करती। ’

‘ऐसा कहने से नहीं चलता.. ठीक है...अब चलो काम से लग जाओ...कुछ न कुछ सामान तो लाना होगा न घर के लिए?’

‘घर में कुछ नहीं है, ये बात सच है, लेकिन अब सभी सामान तो नहीं पर थोड़ा-बहुत लेकर आते हैं। मैं लिस्ट बनाती हूं...शाम को बाजार जाएंगे।’

केतकी ने भावना को बाहर भेजकर खाना और मिनरल वॉटर की बोतलें मंगवा लीं। छह प्लास्टिक की प्लेटें और ग्लास। खाना खाने के बाद तीनों पेपर फैलाकर उसपर सो गयीं। लेकिन ऐसे समय नींद भला कहां आने वाली थी? केतकी डायरी लिख रही थी। यशोदा को तीनों की बहुत चिंता सता रही थी। खासकर बेटियों की। उनके भविष्य की। लेकिन भावना अपने आजाद भविष्य के मीठे सपनों में खोयी हुई थी।

चार बजे के आसपास वे उठीं। केतकी की लिस्ट देखकर यशोदा को हंसी आ गयी।‘इतने सामान में घर नहीं चलता बेटा...’

‘मां, मुझे दूसरों की तरह घर नहीं चलाना है...मैं खाना पकाने की झंझट में नहीं पड़ना चाहती।’

‘अरे, तुमको खाना न पकाना हो तो मैं पकाऊंगी, भावना पकाएगी...’

‘मां, आज तक तुमने और मैंने इतने काम किये हैं, कि अब अगले पांच जन्मों तक काम करने की जरूरत नहीं। आसपास कोई टिफिन सर्विस दे रहा होगा, भोजनालय होगा, उसे खोजेंगे। तुम दोनों के सुबह का खाना वहां से मंगवा लेंगे शाम के लिए कोई खाना पकाना वाली बाई रखेंगे। उनको भी काम मिलेगा और हमें भी गरमागरम बैठे-बैठे खाना मिलेगा...ओके?’

भावना खुश हो गयी... ‘वाह...ये एकदम बढ़िया है...काम नहीं...टेंशन नही।’ सभी को, खासकर केतकी और भावना को हल्का महसूस हो रहा था। आजादी का अनुभव हो रहा था। मानो जन्मजन्मांतर के लिए सुकून मिल गया हो। भालना ने केतकी का हाथ अपने हाथों में लिया और उस पर ताली दी, ‘इसको कहते हैं जीवन...नो बकबक...नो टेंशन..’

लेकिन, टेंशन उनके पास आता जा रहा था, इसकी इन तीनों में से किसी को भी उस क्षण कल्पना नहीं थी। बहुत बड़ा टेंशन था वह।

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह