Agnija - 104 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 104

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अग्निजा - 104

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-104

दरवाजे पर घंटी बजी और तीनों की नींद खुल गयी। यशोदा और केतकी उठ ही रही थीं कि भावना ने दोनों को रोक दिया और आंखें मसलते हुए दरवाजा खोला। रणछोड़, शांतिबहन और जयश्री भीतर आना भूलकर दरवाजे पर ही खड़े रह गये। भावना के सर पर बाल न देखकर तीनों अवाक थे, उन्हें अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था। रणछोड़ की आंखों में गुस्से की ज्वाला भड़क रही थी। उसने हाथों के इशारे से ही भावना को रास्ते से हटने का आदेश दिया। रणछोड़ तेजी से भीतर घुसा। शांति बहन और जयश्री भी घर में कोई विचित्र प्राणी आ गया हो, इस तरह से भावना को गुस्से से देखते हुए अपने-अपने कमरे में चली गयीं। रणछोड़ बेचैनी से घर में चक्कर लगा रहा था। ‘ये उस कुलच्छिनी का ही काम होगा..लेकन उसकी मां कहां मर गयी थी...यशोदा....ए यशोदा... ’

अब तक सपनों की दुनिया में जी रही यशोदा अचानक वास्तविक दुनिया में आ गिरी। वह घबरा कर बाहर आयी। उसका चेहरा और बाल देख कर रणछोड़ को आश्चर्य हुआ। ‘घर में नाटक मंडली चालू की है क्या?’

‘ना..ना...लड़कियों ने जरा...’

‘चुप रह...बदजात...दो दिन भी लड़कियों को संभाल नहीं सकती तुम?’

‘ऐसी बात नहीं है....मेरी बात सुनिए तो जरा...’

‘तुम्हारी सुनूं? क्यों? हम सभी को टकला बनाने का इरादा है क्या तुम्हारा, बड़े दिनों से तुम्हें प्रसाद नहीं दिया है इसलिए इतनी चढ़ गयी हो? रुको...मुझे बेल्ट निकालने दो...फिर देखता हूं...’

रणछोड़ गुस्से में अपनी पैंट से बेल्ट निकालने लगा। पट्टा हाथ में आ गया, लेकिन सामने देखा तो देखता ही रह गया। केतकी, यशोदा की ढाल बन कर सामने खड़ी थी। ‘अरे वाह, ये बदनसीब आ ही गयी बीच में...सच कहा जाये तो इस सबमें तुम्हारा ही दोष है...लेकिन सबसे पहले तुम्हारी मां की बारी है... तुम किनारे हो जाओ नहीं तो...’

भावना आकर केतकी के सामने खड़ी हो गयी। ये देख कर शांति बहन चिल्लायीं, ‘भावना, किनारे हो जाओ...इन दोनों ने तुझ पर मोहिनी डाल दी है..तुमको अक्ल नहीं है...’

‘पैदा हुई तब अक्ल नहीं थी। पर धीरे-धीरे आने लगी...मेरी मां और केतकी के कारण...’

रणछोड़ दास ने आगे बढ़कर भावना की बांह पकड़ी और उसे किनारे करने लगा। केतकी ने भावना की दूसरी बांह पकड़ ली। ‘आज किसी को छुआ भी तो ठीक नहीं होगा, कह देती हूं।’

यह सुनकर रणछोड़ दास का दिमाग और खराब हो गया। ‘तुम....तुम मुझे धमकी देती हो...?’ इतना कह कर वह अचानक बांयी ओर मुड़ा और उसने पट्टा खींच कर यशोदा के हाथ पर मारा। यशोदा चीख पड़ी। केतकी ने उसका हाथ पकड़ा, ‘रणछोड़ दास बस करो अब।’ केतकीके मुंह से रणछोड़ दास शब्द सुनते ही सबका मुंह आश्चर्य से खुला रह गया।

‘तू...तू ...मुझे मेरे नाम से पुकार रही है? बालों के साथ-साथ अक्ल भी गंवा बैठी है क्या....?  आज तो तेरा गला ही दबा देता हूं....’

‘रणछोड़ आप कुछ भी नहीं कर पाएंगे...और आपका नाम लेने से ही मेरे मुंह से बदबू आने लगी ...पर कोई रास्ता ही नहीं....बाप के नाम पर प्रेम या करुणा तो दूर ही रही, लेकिन आपने कभी उसका दिखावा भी नहीं किया?आप मेरे पिता तो नहीं हैं, फिर मैं आपको आपके नाम से ही पुकारूरंगी न?’

रणछोड़ का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। ‘सारे झगड़े की जड़ तो तू ही है कलमुंही...आज तक बहुत सहन कर लिया... अब तुझे नहीं छोड़ूंगा...’

रणछोड़ आगे बढ़ा तो केतकी की आंखों से अंगारे बरस रहे थे, उसने अपने दोनों हाथों से उसे रोका और कठोर आवाज में बोली, ‘हममें में से किसी को भी हाथ तो क्या उंगली भी लगा कर देखो...पुलिस में कंप्लेंट नहीं दी तो मैं जनार्दन जानी की बेटी नहीं...’

‘ओ हो...तो बाप की याद आ गई... तो फिर उसके पास ही चली जा...यहां से टलो...मैं तुम्हें अब इस घर में देखना ही नहीं चाहता...’ वह दौड़ कर केतकी के कमरे में गया, उसका सूटकेस, उसकी पर्स, बैग सब बाहर लाकर पटक दी। ‘कुछ छूट जाए तो खबर भिजवा देना..लेकिन अब अपना पैर इस घर में कभी मत रखना..’

यशोदा सामने आई और रणछोड़ दास के पैर पकड़ कर बिनती करने लगी, ‘अरे लड़की जात...अकेली कहां जाएगी? मैं माफी मांगती हूं....वो भी मांगेगी...मैं उसको समझाऊंगी...’

‘यदि उसकी इतनी ही चिंता सता रही होगी तुमको तो, तुम भी निकल जाओ...’ इतना कह कर रणछोड़ ने यशोदा को एक लात मारी तो यशोदा वहीं गिर पड़ी। यह देख कर केतकी ने मोबाइल पर एक नंबर डायल किया. ‘हैलो, पुलिस...’ वह आगे कुछ कहने ही जा रही थी कि यशोदा ने उसके हाथ से मोबाइल छीन लिया और फोन काट दिया। रणछोड़ जोर से चीखा, ‘ मेरे खिलाफ पुलिस में कंप्लेंट करनी है न तुमको?  तो जाओ...कर दो...लेकिन यहां से निकल जाओ...’

केतकी ने अपनी बैग कंधे में लटकाई और दूसरी बैग हाथ में पकड़ कर निकलने लगी। यह देखकर यशोदा ने उसे रोका, ‘बेटी, इस तरह घर छोड़ कर नहीं जाते...’

‘यह घर है? ये तो यातना घर है। मुझे नहीं रहना इन जल्लादों के साथ यहां। तुम भी चलो मेरे साथ...’

‘हां...हां...इतने सालों तक खाने-पीने को दिया, संभाला और अब हम ही जल्लाद? जा निकल जा मेरी आंखों के सामने से... और यशोदा...तुम भी निकल जाओ उसके साथ...नहीं तो वो वापस आ जाएगी....’

‘चलो मां, मेरे साथ, मैं अब यहां वापस नहीं आने वाली। ’

‘हां...हां जाओ....जाओ कुएं में गिर कर जान दो या रेल पटरी पर जाकर सो जाओ...जहर खा लो नहीं तो कहीं से कूद कर जान दे दो....जो करना हो सो करो...पर मेरे घर के दरवाजे आज से बंद...हमेशा के लिए।’

केतकी ने यशोदा का हाथ पकड़ा। उसे जबरदस्ती खींचने लगी। यशोदा की आंखों में आंसू लिए उसके साथ घिसटते हुए निकल गयी।

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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