Agnija - 101 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 101

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अग्निजा - 101

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-101

‘जाओ...मरो....जल्दी....तुम दोनों....इतना बड़ा काम कर रही हो तो मां के नाते मेरा भी तो कुछ कर्तव्य है न? लाओ मैं ही बोतलें खोल देती हूं...दोनों के छुटकारे में मुझे भी थोड़ा सा पुण्य पाने दो...’ यशोदा उन दोनों के पास आकर बैठ गयी। दोनों की तरफ न देखते हुए एक बोतल का ढक्कन खोलकर उसने आराम से नीचे रखा। ‘धीरे से....दो-चार बूंद भी गिरने न पाए...मेरी बेटियों को कम न पड़ने पाये...’

जोश में दूसरी बोतल का ढक्कन खोलने की कोशिश करते हुए यशोदा बड़बड़ाती भी जा रही थी, ‘मैं भी कितनी मूर्ख हूं? केतकी को जन्म देते समय कितनी परेशानियों का सामना किया था मैंने। झमकू बुढ़िया लड़का ही चाहती थी...इसके लिए उसने सारी कोशिशें कर ली थीं...अच्छा होता उसी समय मैं एकाध बोतल पी लेती तो उसी समय हम दोनों को छुटकारा मिल गया होता। लेकिन नहीं, मुझे तो बेटी को ही जन्म देना था। मुझे बेटी चाहिए थी। मैं औरत जात, तिस पर पति मर गया था। इच्छा न होते हुए भी, तुम्हारे लिए दूसरी शादी की, क्यों? मेरा जन्म हुआ तो मेरी मां को उसकी सास ने यानी मेरी दादी ने कम तकलीफें नहीं दी थीं। मुझ पगली को लगता था कि मां ने मुझे जन्म देकर मुझ पर उपकार किये हैं.. उऋण होने के लिए मुझे कम से कम एक बेटी को तो जन्म देना ही चाहिए। इसलिए मैंने तुम्हें जन्म दिया। कितनी मार खायी जीवन भर...कितनी गालियां सुनीं...कितनी बार भूखे रहना पड़ा...जागती रही...किसके लिए? लड़की के लिए...लेकिन रणछोड़ फिर भी मानता नहीं था.. वो राक्षस तुम्हें मार डालता इस डर से मैंने अपने कलेजे पर पत्थर रखकर तुम्हें नाना-नानी के पास रखा। उस समय मेरी क्या हालत थी, मैं ही जानती हूं...तुमसे मिल नहीं पाती थी...अपने पास रख नहीं सकती थी. रात को डर कर जाग जाती थी...केतकी...केतकी की पुकार लगा कर रोती थी.. आवाज सुनकर रणछोड़ जाग जाता था और मुझे दो-चार थप्पड़ मार देता था...भूल से भी तुम्हारा नाम लूं तो मारने लगता था...लेकिन केतकी की याद न आए ऐसा कभी भी मैंने ईश्वर से नहीं मांगा.. कई बार लगता था कि कुंए में कूद कर जान दे दूं। लेकिन यदि केतकी को मेरी जरूरत पड़े और मैं न रहूं तो वह बेचारी कहां जाएगी, यही सोचकर रोज रोज थोड़ा थोड़ा मरती रही, लेकिन जीना नहीं छोड़ा।’ कहते कहते यशोदा का दम फूलने लगा...फिर इस घर में आयी...आने के बाद बहुत समय बाद मैंने जाना कि इनको भी लड़का चाहिए, इसीलिए मुझे लाया गया है। मेरे पति और सास के बारे में तुम्हें अलग से बताने की आवश्यकता है ही नहीं। बेटे के लिए न जाने कितने उपाय किए...गर्भवती होने के बाद भी रोज मारपीट, घर में दिन भर काम...उस पर इस भावना का जन्म हुआ...मुझे जिंदा रहने का एक और कारण मिल गया।

यशोदा ने निर्विकार भाव से भावना की तरफ देखा। भावना उससे नजर नहीं मिला पायी। उसने गर्दन झुका ली।

‘सच कहूं तो मर जाना ही मेरे लिए अच्छी बात थी...मौत मेरे लिए स्वर्ग थी...सभी यातनाओं से मुक्ति...हमेशा के लिए...लेकिन मन में आता था कि यदि मैं इस तरह से अपनी जान दे दूं तो मेरी बेटियों को कौन देखेगा, वे मुझसे क्या सीखेंगी? छोटी-बड़ी समस्या आए तो जहर पीकर जान दे देना? मैंने आत्महत्या नहीं की इसी लिए आज केतकी खड़ी है..उसे उसकी शाला में प्रतिष्ठा मिली है..पद है...सम्मान है...बेटा ये सब तुमने अपने ही बल पर हासिल किया है...लेकिन मैं न होती, मैंने आत्महत्या कर ली होती तो..तुम लोगों की स्थिति इससे भी खराब होती। समझ में आया मेरी मां...?’

केतकी ने मां का हाथ पकड़ने की कोशिश की लेकिन यशोदा ने झटक दिया। ‘मुझे माफ करो। मैंने तुम दोनों को जन्म देने का पाप किया है..जन्म लेते ही मार नहीं डाला...मैं तो अनपढ़ हूं...मुझे कुछ समझ में नहीं आता.. इस लिए तुमसे इतना कह गयी..मै गंवार..मैं तुम लोगों जैसा कहां बोल पाती हूं? तुम जैसी अक्कल मेरे पास कहां है? लेकिन जाने से पहले हो सके तो इस मूर्ख मां को माफ करती जाओ...तुम दोनों बैठो आराम से बोतलें पीते हुए...कोई काम हो तो कहो, नहीं तो मैं चली... ’ इतना कह कर यशोदा ने केतकी और भावना-दोनों का हाथ पकड़ा, ‘मुझे माफ करो मेरी मांओं..मैंने बड़ा पाप किया है...मेरे कारण ही तुमको दुख झेलने पड़े और इस तरह मरने की नौबत आयी...मुझे माफ करो...माफ करो...’ यशोदा रोने लगी। उससे लिपटकर भावना और केतकी भी रोने लगीं। तीनों ने किसी को भी चुप नहीं करवाया। तीनों का मन धीरे-धीरे हल्का होने लगा था।

अचानक केतकी ने दोनों को दूर धकेला। उसने जहर की बोतल उठायी और दूर फेंक दी। सामने की दीवार से टकराकर वह फूट गयी। केतकी ने भावना की ओर देखा। भावना ने दूसरी उठायी और उसी तरह फेंक दी। दोनों ने बाकी बची हुई दोनों बोतलें भी उसी तरह फेंक दीं। केतकी और भावना ने यशोदा की तरफ देखा। यशोदा ने बाकी बोतलें भी दूर सरका दीं।

तीनों बड़ी देर तक एकदूसरे से लिपटकर बैठी रहीं। कुछ देर बाद यशोदा ने कहा, ‘अरे, ऐसे कोई जन्मदिन मनाता है, केक खा लिया और बस..? मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं। उन चूहों को  ये बोतलों वाली दवाई नहीं चलती...और एक बात कान खोल कर सुन लो...मैं तुम्हारी मां हूं और आज मेरा जन्मदिन है...इस लिए मैं कोई काम नहीं करने वाली...समझ में आया?’

भावना जल्दी से उठी... ‘जल्दी से सब्जी गरम करके लाती हूं।’ केतकी ने रोका। ‘वैसी ही ले आओ, गरम करने की जरूरत नहीं। आज जैसी भी होगी, अच्छी ही लगेगी। आज की इस सब्जी का स्वाद जीवन भर ही नहीं मरने के बाद भी याद रहेगा।’

यशोदा ने केतकी की गाल पर चपत मारी, ‘अब मरने की बात की तो याद रखना...’ उस दिन उन तीनों के रिश्ते का पुनर्जन्म हुआ। इसे तीनों ने देर रात तक मनाया।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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