महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य स्वभावतः जिज्ञासु है तथा उसकी सबसे बड़ी इच्छा ब्रह्माण्ड की व्याख्या करना है। ब्रह्माण्ड का विकास इस प्रकार से हुआ है कि समय के साथ इसमें ऐसे जीव (मनुष्य) उपजे जो अपनी उत्पत्ति के रहस्य को जानने में समर्थ थे। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कब और कैसे हुई? क्या यह सदैव से अस्तित्व में था या इसका कोई प्रारम्भ भी था? इसकी उत्पत्ति से पूर्व क्या था? क्या इसका कोई जन्मदाता भी है? यदि ब्रह्माण्ड का कोई जन्मदाता है तो पहले ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ या उसके जन्मदाता का? यदि पहले ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ तो उसके जन्म से पहले उसका जन्मदाता कहाँ से आया? इस विराट ब्रह्माण्ड की मूल संरचना कैसी है?
ये कुछ ऐसे मूलभूत प्रश्न हैं जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने सदियों पूर्व थे। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से सम्बंधित इन मूलभूत प्रश्नों में धर्माचर्यों, दार्शनिकों, और वैज्ञानिकों की दिलचस्पी रही है। इन प्रश्नों के उत्तर सीमित अवलोकनों, आलंकारिक उदाहरणों, मिथकों, रूपकों एवं आख्यानों के आधार पर प्रस्तुत करने के प्रयास प्रायः सभी प्राचीन सभ्यताओं एवं धर्मों में हुए। अधिकांश धर्मों मे ब्रह्माण्ड के रचयिता के रूप में ईश्वर की परिकल्पना भी की गई।
हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा ने ब्रह्माण्ड का निर्माण किया था । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की विचारधारा का वर्णन ऋग्वेद के एक सृजन स्रोत से मिलती है, जिसे नासदीय सूक्त कहते हैं। यह सूक्त वैदिक सोच की पराकाष्ठा को दर्शाती है। इसमें वैदिक ऋषि कह रहे हैं कि ‘प्रलयकाल में पंच-महाभूत सृष्टि का अस्तित्व नहीं था और न ही असत् का अस्तित्व था। उस समय भूलोक, अंतरिक्ष तथा अन्तरिक्ष से परे अन्य लोक नहीं थे। सबको आच्छादित करने वाले (ब्रह्मांड) भी नहीं थे। किसका स्थान कहाँ था? अगाध और गम्भीर जल का भी अस्तित्व कहाँ था?’
सूक्त के अंत में संदेहवादी ऋषि कहता है कि - 'यह सृष्टि किससे उतपन्न हुई, किसलिए हुई, वस्तुतः कौन जानता है? देवता भी बाद में पैदा हुए, फिर जिससे यह सृष्टि उत्पन्न हुई, उसे कौन जानता है?
किसने विश्व को बनाया और कहाँ रहता है, इसे कौन जानता है? सबका अध्यक्ष परमाकाश में है। वह शायद इसे जानता है। अथवा वह भी नहीं जानता।'
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त से यह प्रतीत होता है कि एक नियत समय पर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई थी। मगर हिन्दू धर्म में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की विचारधाराएं विरोधाभासी हैं क्योंकि वेदों, पुराणों में जो आख्यान मिलते हैं, उनमे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पहले के भी आख्यान हैं, इसके खत्म होने के बाद के भी। इसलिए हिन्दू धर्म में मानते हैं कि ब्रह्माण्ड अनादि-अनंत है, इसका न कोई शुरुवात है और न ही अंत। इसमें सृष्टि सृजन से पहले की भी कहानी होगी और अंत होने के बाद भी, इसलिए कोई एक समय नहीं है - सृष्टि सृजन का!
दूसरी तरफ यहूदी, इस्लाम, ईसाई एवं अन्य कई धर्मों के लोगों का मानना है कि ब्रह्मांड की आवश्यक रूप से एक शुरुवात होनी चाहिए। इनका मानना है कि दुनिया एक दिन शुरू हुई थी और एक दिन खत्म हो जाएगी ; इसे बाइबिल में एपोकलिप्स कहा गया है। वहीं अरस्तु एवं अन्य यूनानी दार्शनिकों की धारणा थी कि यह संसार सदैव से अस्तित्व में था तथा सदैव ही अस्तित्व में रहेगा।