राजा के आख़िर क्यों पूछने पर सुशीला ने कहा, “राजा मैं ख़ुद इतनी छोटी थी कि कहाँ जाती, क्या करती? अपने आप को किस-किस से बचाती? यहाँ तो हर गली, हर नुक्कड़ पर भेड़िए ताक लगाए खड़े रहते हैं। इसलिए मैं चुपचाप यहीं रह गई। यहाँ तो कम से कम शांता ताई का सहारा था। पहले महीने तो मुझे समझ ही नहीं आया था कि मेरे गर्भ में तुम्हारा जन्म हो चुका है; लेकिन जब पता चला तब मैंने सोचा …”
“क्या सोचा था माँ …?”
“मैंने सोचा था क्यों ना इस इंसान के सामने ही मैं तुम्हें जन्म देकर बड़ा करूं। उसे उसकी ही नज़रों में गिराऊँ। राजा आज भी वह इसी डर में जीता है कि कहीं मैं उसका नाम ना बता दूं। घबराता है ख़ुद की इज़्ज़त बचाने के लिए। वह तो चाहता था कि मैं कहीं और चली जाऊँ; लेकिन मैं नहीं गई। तुम्हें देखकर उसे हमेशा यह एहसास होता होगा कि उसके दो पल के सुख के लिए उसने यह क्या कर दिया। उसका ही खून उसी की आँखों के सामने दर-दर की ठोकरें खाता है, ग़रीबी में पलता है।”
“माँ तुमने जो भी किया ठीक किया माँ, पर उसे सज़ा …?”
“सजा …राजा जो सज़ा मैंने उसे दी है ना वह हर सज़ा से बड़ी सज़ा है। कोर्ट कचहरी करके मान लो किसी को यदि फांसी ही हो जाती हो, तो भी इंसान दो मिनट लटकता है फिर मर जाता है। लेकिन इस सज़ा से अब वह हर पल मरता होगा। इस डर में जीता होगा कि मेरी जीभ खुलने से कहीं उसका परिवार, बीवी, जवान बच्चे उसका काला चिट्ठा ना जान जाएं। उसकी माँ आई थी मेरे पास …”
“माँ ये क्या कह रही हो? कैसे? क्या उन्हें सब पता है?”
“राजा यह सब भगवान की लीला है। शायद तुमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। तुम्हारी शक्ल हुबहू उसी की तरह है। उम्र का और शायद दाढ़ी मूँछ का अंतर ही है। पहली बार बचपन में जब उसकी माँ ने तुम्हें देखा था वह तो तभी समझ गईं थीं और मेरे पास भी आई थीं। उसी समय उन्होंने मुझसे सारी सच्चाई उगलवा ली थी। उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए मुझसे कहा कि यह राज़ किसी से ना कहना बेटा; वरना मेरा परिवार टूट जाएगा। वह बहुत अच्छी हैं, पैसे देने की बात कह रही थीं। मैंने उन्हें मना करते हुए कहा माँजी मैंने अपने आपको बेचा थोड़ी था, जो आप पैसे दे रही हैं। वह बहुत मना रही थीं मुझे पर मैं नहीं मानी। उसके लगभग दस साल बाद, उसकी बीवी भी तुम्हें देखते से ही मेरे पास आई थी।”
“यह क्या कह रही हो माँ, क्या वह भी सब जानती हैं?”
“हाँ बेटा, वह तो शहर की बहुत बड़ी वकील है। वह भी बहुत अच्छी है। मुझसे उन्होंने जो भी पूछा मैंने सब सच-सच बता दिया। राजा मेरे पास और कोई रास्ता था ही नहीं क्योंकि प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या ज़रूरत है। तुम्हारी शक्ल ही उसका वर्षों पुराना भेद खोल रही थी। जब मैडम की शादी हुई होगी तब शायद वह बिल्कुल वैसा ही दिखता होगा जैसे तुम अभी दिखते हो। शायद तुम्हें भी उसकी तरह अच्छे कपड़े मिल जाएं तो …! मैं नहीं चाहती थी कि मैडम जी का परिवार टूटे परंतु … समय के आगे किसकी चलती है भला। तुम्हारी नानी यदि ज़िंदा होती तो मैं आगे पढ़ाई करती। काश यदि मैं पढ़ लेती तो मेरे जीवन में वह समय आता ही नहीं लेकिन आठवीं कक्षा के बाद ही माँ का देहांत हो गया,” कहते हुए सुशीला का गला सूख गया।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः