व्यंग्य और अनुभूतिपरक सृजन का सेतु है ‘ व्यंमग्यी गणिका’
– डॉ. अनिल कुमार गुप्ता
ऐतिहासिक सालवई की माटी में जनमें एवं भवभूति की कर्मस्थैली के सच्चेस कलासाधक रामगोपाल भावुक की नवकृति ‘ व्यंग्यक गणिका’ उनको व्यंग्याकार के रूप में प्रतिष्ठित करके ही रहेगी।
कृति का शीर्षक ‘व्यंग्य विद्या’ का विच्छेदन समग्र रूप से एक शब्द में करता प्रतीत होता है और लोगों की अनंग भावनाओं को उद्वीरत कर अपने लक्ष्यम की सिद्धि में कुशल होती है। हूबहू व्यंओग्यक विद्या भी इन सभी कृत्योंष का निर्वहन करती है, वह लोकरंजन करती है, लोकमर्म की परख करती है और लोक भावनाओं को उद्वोरत कर सामाजिक वातावरण को चुस्त दुरस्तओ कर अपने लक्ष्य संधान में सफल होती। व्यंमग्य् गणिका का शीर्षक मुझे इस दृष्टि से भी उचित लगता है, क्योंकि जिस तरह गणिका धन लिप्साइ से अपना सर्वस्वत व्यापार करती है, आज अर्थदायी मंचों की फूहड़ता ने भी व्यंग्य को गणिका बना दिया है।
व्यंग्यन ही सामाजिक विसंगति, संत्रास, विघटन, स्वांर्थ, कुण्ठा के इस वातावरण को दिशा दे सकता है, कवि इस बात से सरोकार रखता है। व्यंग्य एक ओर आदमी का स्वसस्थे मनोरंजन करता है, तो दूसरी ओर व्यंक्ति उसकी मार से तिलमिला उठता है, यही बात व्यंग्य लेखक परिकल्पित कर उच्चाउरित करता है –
आदमी के अपने अंदर का
ऐसा ही आदमी बाहर निकलकर
अपना चेहरा इस व्यंग्य गणिका के आइने में निहारता है तब अंदर ही अंदर अपने आपको कोसने लगता है पर बाहर मुखौटे पर मुस्कहराहट प्रतिबिंबित होती है।
स्वाकर्थ ने सामाजिक मूल्यों में पलीता लगाने में कसर नहीं छोड़ी है, कवि इन मूल्यों के हृास से दु:खी है। इसी कारण इस संग्रह की ‘’ कौन किसके सगे हैं’’ जैसी व्यंग्यी रचना के माध्यहम से यह कहने को विवस है –
की राम जी आज तुम होते तो स्व यं ही दूसरों के लिए व्यसथाओं के बीज बोते और आप ऐश – आराम की जिंदगी बसर करते।।
कृति में मानवीय संवेदना का गहन अनुभव है। जब तक आदमी पर खुद नहीं बीतती तब तक वह समझौता नहीं करना चाहता।
और त्यों ही उसके साथ कुछ कष्टापूर्ण घटित होता है, तो वह समझौता करने को तैयार हो जाता है। समझौते का विन्दु व्यंग्य कृति शायद इसी विचार का प्रतिविम्वत है, देखिये –
जब ये उसमें पिसेंगे, तड़पेंगे............ तब कहीं, समझौते के बिन्दुत पर हस्ता.क्षर करेंगे।।
आतंक और दहशत की अग्निन में देश जल रहा है। इससे हमारी व्यकवस्था्यें राख हो रहीं हैं। देश के विकास के पहिये की निवौध गति के लिए भावुक जी आतंक का शमन चाहते हैं और देश में अमन चाहते हैं। व्यंभग्य गणिका की यह रचना संभवता इस विचार की पोषक है।
नफरतों को खत्मग करना बस इसी हथियार से। बस प्याकर से, बस प्यार से, बस प्यार से, बस प्यासर से।।
मॉं कविता के माध्यकम से वह सामाजिक समानता के पक्षधर है। ‘पसीने’ की कमाई में पूंजीवादी व्यमवस्था पर आंखें तरेरते हैं। प्रजातंत्र की विड़म्व।ना से त्रस्ते होकर वह ‘सच्चास प्रजातंत्र का सृजन कर आदर्श राज्यत की कल्पडना के हिमायती है।
अर्थ के इस युग में सबकी परिभाषायें बदल गई हैं आदमियत भीख मांगने को विवश है, देखिये –
सहन शक्ति पारदर्शी हो गई है इसीलिए मंदिरों मस्जिदों को ढहाने ठेकेदार तलाशे जाने लगे हैं।
कृति की अधिकांश रचनाओं में सामाजिक मर्म को स्पार्श किया है। सलीव जैसी कृति के माध्य म से वह डॉ. सीताकिशोर के सदृश पश्चालताप में जलने के लिए सोचने पर मजबूर कर देते हैं, जिसमें दादा खरे ने कहा था –
धरती तो, अनव्यातही मां सी हर गुनाह का विष पी लेगी लेकिन ये बादल हम सबकीं करतूते ले बरस पड़े तो कल आने वाली फसलों का क्या होगा।।
कृति की रचनाओं में एक ओर व्यंग्य की धार है तो दूसरी ओर अनुभूति की नदी है यों नदी और धार का संयोग ‘ व्यंग्यस गणिका’ निश्चहय ही प्रशंसनीय कृति है। व्यंग्य विद्या के धुरंधरों के लिए नई वहस को जन्मम देगी और समाज को वह दिशा दिखाने में सफल होगी जो उसे विकृति की ओर ले जा रही है। कृतिकार को सप्रणाम ।।
पुस्तक : व्यंग्य गणिका काव्य-संकलन
लेखक : रामगोपाल भावुक Mo- 9425715707
पृष्ठ : 104
मूल्य :125 /-
प्रकाशक : रजनी प्रकाशन Delhi 110051
पुस्तक समीक्षा : डॉ. अनिल कुमार गुप्ता1
शा. उत्कृ ष्टक उ.मा. वि. डबरा