लाज लुटा देने के पश्चात किरण दीपक पर और भी अधिक जी-जान से निछावर हो गयी। पहले से भी अधिक वह उसको प्यार करने लगी। इतना अधिक कि दीपक के खयालों में वह प्लूटो को भी भूलने लगी, और भूलना अब स्वाभाविक भी था। एक औरत, जिसने प्यार किसी अन्य से किया हो- दिल कहीं अन्यत्र दे बैठी हो, परन्तु उसका कौमार्य किसी दूसरे की भेंट चढ़ चुका हो, तो ये बहुत स्वाभाविक भी हो जाता है कि वह उसी को अपना भगवान, अपने दिल का देवता समझने लगती है, जिसके साथ वह एक हो लेती है। यही किरण का भी हुआ था। भावनाओं के तौर पर उसने प्लूटो को चाहा था। उसे प्यार किया था। उसे अपने दिल में देवता समझकर बसाया था और उसी की बनना भी चाहा था, परन्तु ऐसा हो नहीं सका था। प्लूटो उसको राह-ए-सफ़र में ही छोडकर बेगाना कर गया था, परन्तु इतना होने पर भी वह प्लूटो को भूली नहीं थी। शायद भूलती भी नहीं। सारी उम्र वह प्लूटो की याद में रो-रोकर बसर कर लेती, लेकिन तभी दीपक उसके जीवन में आ गया था। फिर जब वह दीपक के करीब आ गयी -उसमें उसने अपना खोया हुआ प्यार ढूंढा, तो वह फिर बहकने लगी। वह दीपक पर अपना सब-कुछ कुरबान कर बैठी। दीपक के साथ उसने एक अच्छा-खासा समय व्यतीत किया था। अपने जीवन का बहुमूल्य समय- वह वक्त गुजारा था कि जिस पर हरेक कुंवारी लड़की को अपने ऊपर एक गर्व होता है, और जिसे प्रत्येक लड़की अपने जीवन में किसी एक ही पुरुष को समर्पित करने की लालसा रखती है। वह अविस्मरणीय समय, जब एक लड़की, लड़की से पूर्ण नारी बनती है। अपना कौमार्य उस पुरुष को ये जानकर भेंट कर देती है कि वह उसका पति है, अथवा भावी पति होगा- किरण भी दीपक के साथ यही सब कर बैठी थी। फिर इतना होने पर जाहिर था कि वह दीपक के प्रति ही सोचती। प्लूटो का प्रभाव स्वत: ही कम होता। और जब धीरे-धीरे समय गुज़रने लगा तो किरण दीपक को ही अपना सब-कुछ मान बैठी। उसके साथ जिन्दगी गुजारने के सपने देखने लगी। उसी पर न्यौछावर हो गयी। एक अधिकार के साथ वह दीपक से बात करती। उसके साथ एक साये के समान हर समय आगे-पीछे लगी रहती। जैसे ही उसे छुटूटी मिलती, वह निश्चित समय से पूर्व दीपक की प्रतीक्षा करने लगती। अक्सर उसे ही याद करती। दीपक के खयालों में ही खो जाती- यहाँ तक कि काँलेज में भी गुमसुम हो जाती। स्वभाव से वह पहले ही से गम्भीर थी, परन्तु अब एक खामोशी भी उसके मुख-मण्डल पर विराजमान हो गयी थी। हर समय चुपचाप रहना उसके स्वभाव में जुड़ गया। उसकी अन्य सहेली, अध्यापिकायें यदि उससे कुछ पूछती, तो वह तुरन्त ही टाल जाती। किसी को कुछ भी नहीं बताती। बस दिल-ही-दिल में दीपक के साथ अपने विवाह की कल्पनायें तैयार करती रहती, क्योंकि दीपक पर उसने अपने जीवन की शेष सारी इच्छायें जो लगा रखी थीं। प्लूटो के पश्चात दीपक ही अब उसका सब-कुछ था। उसका प्यार, उसका सपना- और उसके जीवन का सरताज भी।
समय के बीतने के साथ-साथ स्थिति फिर सामान्य हो गयी। किरण की मनोदशा सुधर गयी। दीपक के सहारे उसने जीना सीख लिया। उसी को अपना माँझी मानकर, वह सांसारिक समुद्र में अपने जीवन की नैया को डालकर साहिल तक पहुँचने की गुजारिश करने लगी और प्लूटो का खयाल, उसका सपना, उसके वियोग का वह दर्द, स्वत: ही, धीरे-धीरे उसके जहन से उतर गया कि जिसकी स्मृतिमात्र से ही उसकी आँखें कभी छलक जाती थीं।
इसी बीच किरण को अपने पिता से तार प्राप्त हुआ- तार को देखा तो वह तुरन्त ही घबरा भी गयी। उसके पिता ने उसे शीघ्र ही बुलाया था। किरण ने तार प्राप्त होने के बारे में दीपक को तुरन्त बताया दीपक ने भी उसे शीघ्र ही घर जाने का सुझाव दिया, लेकिन किरण तार पढकर कुछ शंकित अवश्य हो गयी थी। दीपक से विदा लेने से पूर्व वह संशय के स्वर में बोली,
"मुझे तो डर लग रहा है, पता नहीं क्या बात हो?"
"संदेह तो होगा ही, लेकिन डरने की आवश्यकता नहीं है, जहां तक मेरा अनुमान है, वहां तुम्हारे ही विवाह आदि की चर्चा चल रही होगी।" दीपक ने कहा।
इस पर किरण आश्चर्य से बोली,
"क्या कहा? विवाह !"
"हां ! विवाह ही। तुम्हारे पिताजी ने किसी युवक को पसन्द कर लिया होगा, बस उसी सिलसिले में तुम्हें
बुलाया गया है।"
"मान लो यदि ऐसा हुआ तो। … ?" किरण ने दीपक से पूछा।
"तो वया? कुछ भी नहीं। तुम फौरन ही अपनी अनुमति दे देना। सहमत हो जाना।"
"क्या ? -सहमति ! वह भी विवाह की। तुम्हें कुछ भी चिंता नहीं ?" किरण ने आश्चर्य से दीपक को देखा।
इस पर दीपक ने मुस्कुराकर किरण को देखा- फिर बोला,
"देखो किरण ! हर लडकी को एक-न-एक दिन अपने माँ-बाप के फैसले के आगे झुकना पडता है। ये तो भारतीय परम्परा है, और मेरी क्या? मैं समझ लूँगा कि मेरा साथ भी यहीं तक ही था। तुम्हें भी मेरे साथ यहीं तक आकर के चले जाना था। बाकी तो मैं तुम्हारी स्मृतियों के सहारे भी जी लूंगा। "
तब किरण ने दीपक को गाभीरता से देखर-सोचा, फिर बोली,
"देखो दीपक! तुम मेरे पिताजी को नहीं जानते हो। इसलिए तुम्हें शायद ये ज्ञात नहीं है कि मेरे पिताजी भी वही निर्णय करेंगे, जो मुझे स्वीकार होगा। वह बाजार में मुझे किसी बकरी के समान, मेरी इच्छा के विरुद्ध कहीं बाँध नहीं देंगे।" ,
"वह तो ठीक है, परन्तु तुम्हारा भी तो कोई फर्ज और कर्तव्य होगा, अपने पिता के आदशों और उनके मान-सम्मान को बनाये रखने केलिए?"
"मेरे पिताजी के समक्ष मेरी सारी जिन्दगी की खुशियाँ भी तो हैं… और मैं ये अच्छी तरह जानती हूँ, कि मेरी इन खुशियों के आगे, मेरे पापा की नजरों में उनके आदशों की कोई कीमत नहीं है। वे मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं, और मुझे पूरा यकीन है कि वे मेरी पसन्द के बारे में अवश्य ही सोचेगे।"
किरण के इस कथन को सुनकर दीपक भी एक बार को निरुत्तर हो गया। उसने कुछ भी नहीं कहा। वह चुपचाप उसकी और देखकर, फिर धीरे-से अन्यत्र निहारने लगा…
किरण ने उसको इस मुद्रा में देखा, तो तुरन्त उसका हाथ पकड़कर थाम लिया, फिर बहुत ही प्यार से बोली,
"तुम क्यों चिंतित होते हो? मुझ पर भरोसा रखो। मैं तो तुम्हारी ही हूँ और सदैव तुम्हारी ही बनकर रहूँगी।"
"नहीं किरण ! मेरा ये आशय कतई नहीं था। में तो कुछ और ही विचार रहा था ।" कहकर दीपक ने उसे आश्वस्त किया, तो किरण चकित होकर बोली,
"मेरे तुम्हारे सामने रहते हुए तुम और क्या सोच रहे थे? "
"भई ! तुम्हारे ही बारे में।" दीपक बोला।
"मेरे बारे में ! क्या? " किरण ने पूछा।
"तुम ठीक-ठाक घर हो आओ। वहां सब-कुछ ठीक ही होगा … और फिर भी यदि कुछ विशेष बात हो, तो मुझे फोन करना- आँफिस में।" ये कहकर दीपक ने उसे समझाया।
फिर दूसरे दिन किरण अपने घर चली गयी- अपने पिता के पास।
अपने पिता को बिस्तर पर पाकर, वह तुरन्त ही घबरा गयी। सचमुच, वे बीमार थे। उनकी दशा खराब भी थी। लगता था कि जैसे वे पिछले कई दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। उनके कई-एक मिलनेवाले भी उनके चारों-गिर्द बैठे हुए, विचार-मग्न थे। किरण से जब उनका बिगड़ा हुआ हाल देखा नहीं गया, तो वह फफककर रो पड़ी। बुरी तरह। सुबक गयी। रोने लगी तो उसके पिता के कई-एक मित्रों ने उसे तसल्ली देनी चाही। उसे समझाया। धेर्य रखने को कहा।
किरण उस दिन घर पर ही रही ।
सारे दिन वह अपने पिता की सेवा-सुश्रूषा ही करती रही। फिर ऐसी स्थिति में उसके वहां से इतना शीघ्र वापस लौटने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उसके पिता को दिल का दौरा पड़ा था। इस कारण कमजोरी इस कदर थी कि वे बिस्तर पर से हिल-डुल भी नहीं सकते थे। डॉक्टरों ने तो उनको बात करने को भी मना किया हुआ था। किरण ने आते ही सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी, क्योंकि इतने बड़े घर में किसी भी स्त्री की अनुपस्थिति के सबब से घर का सारा सामान-असबाब आदि इधर-उधर बिखरा-सा पड़ा था। उसने घर की सारी वस्तुयें यथास्थान करीने से लगायी। एक-एक कमरे को झाड़ा, साफ किया, पोंछा और सफाई की। फिर जब साँझ ढल गयी और आकाश में दिनभर का थका-थकाया सूर्य निराश होकर अपना दम तोड़ने लगा, तो इसके साथ ही उसके पिता की दशा फिर खराब होने लगी… इतने पर भी उसके पिता ने अपनी ओर से कुछ मी जाहिर नहीं होने दिया। केवल किरण कों अपने पास बुला लिया और धीरे-से उसका हाथ अपने दोनों हाथों में थामकर उससे कुछेक बातें कहीं…. उसके विवाह के लिए भी कहा। अपने मित्र के इंजीनियर लड़के वीनस से विवाह का सुझाव रखा, परन्तु किरण ने इस पर कोई टीका टिप्पणी नहीं की। वह चुपचाप सिर झुकाये, मौन बनी अपने पिता की सारी बातें सुनती रही, क्योंकि वह ये स्पष्ट जानती थी कि ऐसी स्थिति में उसके द्वारा कोई भी ऐसी बात नहीं होनी चाहिए, जो उसके पिता की दशा के मनोनुकूल नहीं हो, नहीं तो जरा-सी भी असावधानी से उसके पिता का जीवन खतरे में पड़ जायेगा। उनके स्वस्थ होते ही वह अपने पिता को मना लेगी। उनसे विस्तार से बात भी कर लेगी, और फिर यदि आवश्यक हुआ, तो स्वयं ही वह उनके समक्ष दीपक से अपने विवाह का प्रस्ताव भी रखेगी ।
किरण ऐसा सोच रही थी, परन्तु कुदरत की आड़ का सहारा लेकर नियति कुछ और ही विचार कर रही थी। बिधाता या भाग्य की विडम्बना का दृष्टिकोण कहिये, अथवा अपने-अपने भाग्य की लिखी हुई रेखाओं का प्रतिबिम्ब। वह अक्स, जिसे लोग बुरा होने पर खोटा नसीब, बदनसीब या अपशकुन के नाम से दोहराते हैं, और अच्छा होने पर शकुन या भाग्यशाली होने का खिताब दिये फिरते है। कौन जानता है कि कब, क्या घटित हो जाये? कौन आये, और कौन चला जाये? जिन्दगी पर अपना किसी का कोई भी हक नहीं हुआ करता है। उधार या भेंट में दी गयी इस धरोहर के लिए लोग क्या-क्या नहीं कर जाते हैं, परन्तु परमेश्वर के नियम बड़े ही कठोर और अटल हुआ करते हैं। वह हर किसी को समय से भेजता है और समय आने पर बगैर पूर्व सूचित किये हुए बुला भी लेता है ।
आधी रात के ठीक बारह बजकर पाँच मिनट पर किरण के पिता ने इस संसार से अपना नाता तोड़ लिया। किरण तो चीख मारकर अपने पिता की छाती पर ही गिर पड़ी। उसकी चीख के शोर से आस-पास के पड़ोसी भी घबरा गये। सारे मोहल्ले में चीत्कार-सा मच गया और फिर सबके बीच से एक प्रियजन के उठ जाने से सारा इलाका गम और विषाद के लबादे में बैठकर अपनी बेबसी पर आँसू बहाने लगा। चारों ओर एक कोहराम-सा मच गया- इस कदर कि वातावरण की भयानकता से भयभीत होकर मौहल्ले के कुतों ने भी रोना आरम्भ कर दिया था। रात अँधेरी थी- साथ ही बेहद काली और भयावनी। उस पर एक मौत हो जाने के सबब से माहोल भी कांपा-कांपा और डरावना-सा प्रतीत हो रहा था ! गलियों में कुत्ते रो रहे थे। आधी रात में सारा मौहल्ला ही जाग गया था। आसपास के पडोसी, बुजुर्ग, जवान और वयोवृद्ध औरतें तथा स्त्रियां किरण के घर आकर एकत्रित होने लगी थीं। किरण से सभी को सहानुभूति थी। उसकी स्थिति सचमुच ही दयनीय हो गयी थी। वह तो बिलकुल ही अनाथ हों चुकी थी। सन्तान के ऊपर पिता का साया जीवन का सबसे बड़ा रक्षक बनकर रहा करता है, परन्तु किरण का तो अब वह भी नहीं रहा था। अपने इस दु:ख को वह झेल रही थी- रो-रोकर-आँसू बहा-बहाकर। उसकी एक-एक हिचकी में उसका दर्द था। पिता की मृत्यु का सदमा था। होंठों पर बेबसी थी। किरण के दु:ख का सहारा लेकर वातावरण भी एक शव के समान शान्त पड़ गया था। अपनी बेबसी के कारण वह भी दुखी था। मौहल्ले के एक-एक चप्पे में दुख था। वेदनायें थीं। आँसू थे। सारा इलाका ही रो रहा था।
पौ फटने से पूर्व ही किरण ने अपने दिल पर पत्थर समान बोझ रखकर दीपक को फोन किया। अब इस भरे संसार में दीपक के अतिरिक्त उसका था ही कौन? वही तो उसका सबकुछ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् अब उसकी सारी आशाएँ दीपक से लगनी थीं। दीपक को जैसे ही उसके कार्यालय के चपरासी ने आकर बताया कि कोई किरण नाम की महिला आपसे फोन पर बात करना चाहती है, और वह आधे घंटे के पश्चात् पुन: फोन करेंगी, तब दीपक तुरन्त ही कार्यालय पहुँच गया। तब तक वह सोकर उठ भी नहीं पाया था। आँखों में अभी भी जैसे रात की नींद बाकी थी। फिर किरण का फोन पुन: आने पर उसने चिन्तित स्वर में कहा,
"हैलौ, मैं दीपक बोल रहा हूँ ?"
तब उधर से किरण की बोझिल आवाज सुनायी दी,
"दीपक … ओह ! … "
"कौन? किरण ! "
"हाँ मैं किरण बोल रही हूँ."
"कहो सब ठीक तो है…? दीपक ने आश्चर्य से पूछा।
"नहीं। दीपक … वो… पिताजी … "
"पिताजी … ? क्या हुआ उनको ?" दीपक भी घबराकर बोला ।
"वे…. वे चले गये !"
भरे गले से किरण रोकर बोली, तो दीपक भी पलभर को जम-सा गया, तुरन्त ही उसके मुख से निक्ल पड़ा,
"ओह माइ गॉड !"
वह कुछ देर मौन रहा, फिर किरण को सांत्वना देते हुए बोला,
"किरण। घबराओ नहीं, मैं वहीं आ रहा हूँ।" फिर जब बात कट गयी, तो किरण माउथपीस को पकड़ कर ही रो पड़ी- फिर से- आँसू बहाने लगी। दीपक ने किस कदर उसको तसल्ली दी थी- उसके दु:ख-दर्द को समझा था- महसूस किया था। यहां तक कि वह अब तक तो वहाँ से चल भी पड़ा होगा- शायद? भूखा-प्यासा। सुबह-सुबह ही। नाश्ता किये बगैर ही- बगैर कुछ भी खाये-पिये हुए।
अन्तिम-संस्कार पूर्ण होने से पूर्व ही दीपक किरण के पास आ गया। किरण ने दीपक को देखा, तो तुरन्त ही उससे लिपट गयी और फूट-फूटकर रो पड़ी। इतने लोगों की भीड़ में, बिना किसी की परवाह किये हुए वह दीपक की छाती पर सिर रखकर आँसू बहाती रही। दीपक स्वयं भी उसको तसल्ली देने की कोशिश करता रहा… । किरण के पिता का अन्तिम-सस्कार करके उनको श्रद्धांजलि दे दी गयी। उनके जीवन की इस अन्तिम-यात्रा में जैसे सारा शहर ही उमड़ पड़ा था। आसपास के तथा कुछ दूर-दूर के इलाकों के वे सब लोग भी वहां पहुँच गये थे, जिनसे वे परिचित थे । उनके निधन पर हर कोई दु:खी था। प्रत्येक के दिल में उनके प्रति श्रद्धा थी। सहानुभूति थी। अपनत्व और प्यार था। दीपक भी किरण के साथ उसके दु:ख में शामिल था। वह किरण को बार-बार समझा रहा था। तसल्ली दे रहा था। फिर किरण को स्वयं भी इस वक्त उसके सहारे की बेहद आवश्यकता थी। दीपक के अतिरिक्त अब उसका इस संसार में बचा ही कौन था। किस पर वह आस रखती? किधर और किस सहारे के लिए ताकती। किसको अब उम्मीद-भरी नजरों से देखती? माँ उसकी बचपन में ही उसे सुबकता हुआ छोड़ गयी थी और पिता उसके हाथ पीले करने से पूर्व ही इस संसार से प्रस्थान कर चुके थे। ऐसे ऐन वक्त पर जबकि किरण को सचमुच उनकी आवश्यकता थी। उनका साथ और आसरा चाहिए था, परन्तु अब तो ये सहारा भी विधाता ने उससे छीन लिया था। पता नहीं उसने किसी का क्या बिगाड़ा था कि जो उसको इस प्रकार दु:ख पर दु:ख मिलते जा रहे थे। अभी प्लूटो की मृत्यु का घाव शायद भर भी नहीं पाया था कि ये एक दुसरा जखम और हो गया था। पहले ही की रोती-तरसती हुई आँखों के आँसू ढंग से सूखे भी नहीं थे कि अब ये एक दरिया-सा बहने लगा था। शायद यही कारण मनुष्य के जीवन के पतित होने का भी हो जाता है? बार-बार ठोकरें खाना, गिरना-पडना, और जिन्दगी में बे-दर्द जमाने की चोटें सह-सहकर आदमी अपने उसूलों को छोडने पर विवश हो जाता है- फिर वह विवश होकर कोई भी कर्म ऐसा कर बैठता है जो समाज और कानून के विरुद्ध होता है। ऐसी स्थिति में किसे दोष दें? किसे बुरा-भला कहें? नियति को अथवा मनुष्य के भाग्य को? प्यार और अपनत्व से भरी जिन्दगी की तलाश करते-करते यदि मनुष्य भटक जाता है, तो फिर वह कहीं का भी नहीं रहता है। नारियाँ तो किसी हद तक स्वयं को समझा भी लेती हैं। हरेक परिस्थिति से समझौता करके, उसके अनुकूल चलने को विवश हो जाती हैं, परन्तु एक पुरुष का ऐसी परिस्थिति में स्थिर रहना कठिन ही हुआ है। किरण भी एक नारी थी। वह भी किसी प्रकार अपने को समझाना चाह रही थी। आँसू बहा-बहाकर अपना दर्द कम कर रही थी। अपने जीवन की इस बदकिस्मती का उसे सामना जो करना था- किसी भी तरह-स्वयं दु:ख झेलकर, अथवा दीपक के सहारे, अपनी जिन्दगी के दिन बसर करने थे?
अपने पिता का अन्तिम-संस्कार करके जब किरण दीपक के साथ टैक्सी मैं वापस होने के लिए बैठी, तो स्वत: ही उसने अपना सिर उसकी गोद में रख दिया- बहुत प्यार और अपनत्व के साथ। उसकी गोदी में ही सिमट-सी गयी। टैक्सी चल पडी, तो जैसे ही ठंडी-ठंडी हवाओं ने उसके गालों और पलकों को स्पर्श किया, तो उसने अपनी आँखें भी बन्द कर ली- दीपक के अतिरिक्त उसका इस संसार में अब था ही कौन? शीघ्र ही वह अब उसकी हो जायेगी। उससे विवाह करके-अपना एक छोटा-सा घर बसा लेगी। फिर उसकी इस छोटी-सी दुनिया में उसे दु:ख मिले या सुख, वह इसी में समझौता कर लेगी। उसका ये घर उसका अपना होगा। उसका अपना संसार- प्यार भरा- दीपक की गोद में सिर रखे हुए किरण पल भर में ही ये सपना देख बैठी।
टैक्सी भागी जा रही थी। अपनी एक निश्चित गति पर। मार्ग के पेड, मील के पत्थर सब ही पीछे भागते जा रहे थे। दीपक खामोश था। किरण खामोश थी। उन दोनों की इस खामोशी में भी एक आवाज थी। इस आवाज में किरण का दु:ख-दर्द समाया हुआ था- यह वह सदमा था जो किरण के साथ-साथ दीपक ने भी उठाया था। किरण अभी तक आँखें बन्द किये हुए उसकी गोद में सिर रखे हुए थी। उसकी गर्म-गर्म साँसों के स्पर्श से दीपक के हाथ की अँ'गुलियाँ भी प्रभावित थीं। दीपक ये अच्छी तरह जानता था कि किरण को इस समय कितना दु:ख है। किसकदर दर्द मिला है! इसी कारण वह स्वयं भी चुप था। उन दोनों की खामोशी के असर से प्रभावित होकर टैक्सी ड्राइवर भी नि:सन्देह उनके दु:ख को महसूस कर रहा था।
दीपक किरण के शहर में एक दिन और रुकने के पश्चात् दूसरे दिन मथुरा वापस हो लिया। उसके साथ ही किरण भी चली आयी। अपने बचपन की सारी भूली-बिसरी यादों को सदा के लिए तिलांजलि देकर उसने अपना वह शहर छोड दिया, जहां पर रहकर वह पली थी। जहाँ की धूल-मिट्टी में हँस-खेलकर वह जवान हुई थी, परन्तु किसी को क्या ज्ञात था कि उसकी ये जन्मभूमि ही एक दिन उसकी सारी खुशियों को झंझोड़कर रख देगी। उसका सारा कुछ छीनकर जब्त कर लेगी। वह शहर, उसके बचपन और अतीत का वह टुकडा, जिससे उसके जीवन का एक बहुत बड़ा सम्बन्ध रहा था, वही एक दिन उसको अपने घर की चौखट से सदा के लिए विदा करने को विवश हो जायेगा। किरण के लिए उसकी जिन्दगी का ये वह तमाचा था, जो उसके गालों पर कसकर पड़ा था। वक्त ने बडी बे-दर्दी से अपना पंजा मारा था। इतने कठोर स्वभाव से कि वह तिलमिलाकर रह गयी थी । शायद गिर भी पडती, यदि ऐन वक्त पर उसे दीपक का सहारा नहीं मिलता- वह उसे नहीं संभालता। अब उसे इस शहर से लेना भी क्या था? क्या सरोकार था? अब वह इस शहर में रुकती भी क्यों? सम्बन्ध तो टूट ही चुका था। जिस शहर ने उसे सब कुछ दिया था, उसी ने एक दिन जैसे स्वयं कंगाल होकर उससे वापस ले भी लिया था। यहां पर तो उसका सारा कुछ ही नष्ट हो चुका था। उसका सब कुछ छिन गया था- छिन गया था, उसके बचपन का प्यार प्लूटो- उसका सबसे बड़ा सहारा, आसरा- माँ-बाप का प्यार। उसका घर। उसका ठिकाना। उसका परिवार। अपना बाबुल- सब ही कुछ का नाम तक मिट चुका था।
शेष अगले अंक में.