The Author Miss Chhoti Follow Current Read सत्य ना प्रयोगों - भाग 12 By Miss Chhoti Hindi Spiritual Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books શ્રીમદ્ ભગવદ્ ગીતા - સંપૂર્ણ ૐ ઊંધ્ટ્ટ થ્ૠધ્ધ્અૠધ્ઌશ્વ ઌૠધ્ઃ ગરુડ પુરાણ અનુક્રમણિકા ૧. પ્રથમ અધ્યાય निलावंती ग्रंथ - एक श्रापित ग्रंथ... - 1 निलावंती एक श्रापित ग्रंथ की पूरी कहानी।निलावंती ग्रंथ अपराध ही अपराध - भाग 25 अध्याय 25 पिछला सारांश: कीरंनूर जाकर वापस आए धनंजय शि... शोहरत का घमंड - 103 घर खाली देख कर आलिया बहुत ही परेशान हो जाती हैं। वो आस पास क... नफ़रत-ए-इश्क - 16 रायचंद हाऊसरायचंद हाऊस में आज यशवर्धन रायचंद के दिल का टुकड़... शुभम - कहीं दीप जले कहीं दिल - पार्ट 34 "शुभम - कहीं दीप जले कहीं दिल"( पार्ट -३४)NGO की हेड ज्योति... प्रेम और युद्ध - 6 अध्याय 6: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत... 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मैंने परोसनेवाले को अपने पास बुलाया। मित्र समझ गए। चिढ़ कर पूछा, 'क्या है?'मैंने धीरे से संकोचपूर्वक कहा, 'मैं जानना चाहता हूँ कि इसमे मांस है या नहीं।''ऐसे गृह में यह जंगलीपन नहीं चल सकता। अगर तुम्हें अब भी किच-किच करनी हो तो तुम बाहर जाकर किसी छोटे से भोजन-गृह में खा लो और बाहर मेरी राह देखो।'मैं इस प्रस्ताव से खुश होकर उठा और दूसरे भोजनलय की खोज में निकला। पास ही एक अन्नाहारवाला भोजन-गृह था। पर वह तो बंद हो चुका था। मुझे समझ न पड़ा कि अब क्या करना चाहिए। मैं भूखा रहा। हम नाटक देखने गए। मित्र ने उक्त घटना के बारे में एक शब्द भी मुँह से न निकाला। मेरे पास तो कहने को था ही क्या?लेकिन यह हमारे बीच का अंतिम मित्र-युद्ध था। न हमारा संबंध टूटा, न उसमें कटुता आई। उनके सारे प्रयत्नों के मूल में रहे प्रेम को मैं पहचान सका था। इस कारण विचार और आचार की भिन्नता रहते हुए भी उनके प्रति मेरा आदर बढ़ गया। पर मैंने सोचा कि मुझे उनका डर दूर करना चाहिए। मैंने निश्चय किया कि मैं जंगली नहीं रहूँगा। सभ्यता के लक्षण ग्रहण करूँगा और दूसरे प्रकार के समाज में समरस होने योग्य बनकर अपनी अन्नाहार की अपनी विचित्रता को छिपा लूँगा।मैंने 'सभ्यता' सीखने के लिए अपनी सामर्थ्य से परे का और छिछला रास्ता पकड़ा।विलायती होने पर भी बंबई के कटे-सिले कपड़े अच्छे अंग्रेज समाज में शोभा नहीं देगे, इस विचार से मैंने 'आर्मी और नेवी' के स्टोर में कपड़े सिलवाए। उन्नीस शिलिंग की (उस जमाने के लिहाज से तो यह कीमत बहुत ही कही जाएगी) 'चिमनी' टोपी सिर पर पहनी। इतने से संतोष न हुआ तो बॉण्ड स्ट्रीट, जहाँ शौकीन लोगों के कपड़े सिलते थे, दस पौंड पर बत्ती रख कर शाम की पोशाक सिलवाई। भोले और बादशाही दिलवाले बड़े भाई से मैंने दोनो जेबों में लटकने लायक सोने की एक बढ़िया चेन मँगवाई और वह मिल भी गई। बँधी-बँधाई टाई पहनना शिष्टाचार में शुमार न था, इसलिए टाई बाँधने की कला हस्तगत की। देश में आईना हजामत के दिन ही देखने को मिलता था, पर यहाँ तो बड़े आईने के सामने खड़े रहकर ठीक से टाई बाँधने में और बालों में सीधी माँग निकालने में रोज लगभग दस मिनट तो बरबाद होते ही थे। बाल मुलायम नहीं थे, इसलिए उन्हें अच्छी तरह मुड़े हुए रखने के लिए ब्रश (झाड़ू ही समझिए!) के साथ रोज लड़ाई चलती थी। और टोपी पहनते तथा निकालने समय हाथ तो मानो माँग को सहेजने के लिए सिर पर पहुँच ही जाता था। और बीच-बीच में, समाज में बैठे-बैठे, माँग पर हाथ फिराकर बालों को व्यवस्थित रखने की एक और सभ्य क्रिया बराबर ही रहती थी।पर इतनी टीमटाप ही काफी न थी। अकेली सभ्य पोशाक से सभ्य थोड़े ही बना जा सकता था? मैंने सभ्यता के दूसरे कई बाहरी गुण भी जान लिए थे और मैं उन्हें सीखना चाहता था। सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिए। उसे फ्रेंच अच्छी तरह जान लेनी चाहिए, क्योंकि फ्रेंच इंग्लैंड के पड़ोसी फ्रांस की भाषा थी, और यूरोप की राष्ट्रभाषा भी थी। और, मुझे यूरोप में घूमने की इच्छा थी। इसके अलावा, सभ्य पुरुष को लच्छेदार भाषण करना भी आना चाहिए। मैंने नृत्य सीखने का निश्चय किया। एक सत्र में भरती हुआ। एक सत्र के करीब तीन पौंड जमा किए। कोई तीन हफ्तों में करीब छह सबक सीखे होगे। पैर ठीक से तालबद्ध पड़ते न थे। पियानो बजता था, पर क्या कह रहा है, कुछ समझ में न आता था।'एक, दो, एक' चलता, पर उनके बीच का अंतर तो बाजा ही बताता था, जो मेरे लिए अगम्य था। तो अब क्या किया जाए? अब तो बाबाजी की बिल्लीवाला किस्सा हुआ। चूहों को भगाने के लिए बिल्ली, बिल्ली के लिए गाय, यों बाबाजी का परिवार बढ़ा, उसी तरह मेरे लोभ का परिवार बढ़ा। वायलिन बजाना सीख लूँ तो सुर और ताल का खयाल हो जाय। तीन पौंड वायलिन खरीदने मे गँवाए और कुछ उसकी शिक्षा के लिए भी दिए। भाषण करना सीखने के लिए एक तीसरे शिक्षक का घर खोजा। उन्हें भी एक गिन्नी तो भेंट की ही। बेल 'स्टैंडर्ड एलोक्युशनिस्ट' पुस्तक खरीदी। पिट का एक भाषण शुरू किया।इन बेल साहब ने मेरे कान ने बेल (घंटी) बजाई। मैं जागा।मुझे कौन इंग्लैंड में जीवन बिताना है? लच्छेदार भाषण करना सीखकर मैं क्या करूँगा? नाच-नाचकर मैं सभ्य कैसे बनूँगा? वायलिन तो देश में भी सीखा जा सकता है। मै तो विद्यार्थी हूँ। मुझें विद्या-धन बढ़ाना चाहिए। मुझे अपने पेशे से संबंध रखनेवाली तैयारी करनी चाहिए। मै अपने सदाचार से सभ्य समझा जाऊँ तो ठीक है, नहीं तो मुझे यह लोभ छोड़ना चाहिए।इन विचारो की धुन में मैंने उपर्युक्त आशय के उद्गारोंवाला पत्र भाषण-शिक्षक को भेज दिया। उनसे मैंने दो या तीन पाठ ही पढ़े थे। नृत्य-शिक्षिका को भी ऐसा ही पत्र लिखा। वायलिन शिक्षिका के घर वायलिन लेकर पहुँचा। उन्हें जिस दाम भी बिके, बेच डालने की इजाजत दे दी। उनके साथ कुछ मित्रता का सा संबंध हो गया था। इस कारण मैंने उनसे अपने मोह की चर्चा की। नाच आदि के जंजाल में से निकल जाने की मेरी बात उन्होंने पसंद की।_सत्य ना प्रयोगों ‹ Previous Chapterसत्य ना प्रयोगों - भाग 11 › Next Chapter सत्य ना प्रयोगों - भाग 13 - अंतिम भाग Download Our App