लक्खूराम चहवरिया का समग्र साहित्य
रामगोपाल भावुक
मोवाइल-9425715707
चहवरिया जी की शिव सहस्त्रनाम कृति में आपने कविता, गीत गजल, बुन्देली गीत, दोहे, चैपाई के साथ कहानी लेखन एवं समीक्षायें भी लिखी हैं। आप जनवादी लेखक संघ डबरा इकाई कें अध्यक्ष रहे हैं। डबरा की साहित्यिक संस्था मुक्त मनीषा के भी आप उपाध्यक्ष रहे है।
शिव सहस्त्रनाम के सम्पादक नगर के चर्चित कवि वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’ हैं। वे सम्पादकीय में लिखते है- चिन्तनशील मानव कभी बैठे नहीं रह सकते। वे अनेकों संधर्षों से गुजरते हुए अपने मुकाम तक अवश्य पहुंचते हैं।
वे लिखते है कि साहित्य की अनेक विद्याये हैं। वे उपजकर शून्य में विलीन होने को नहीं होतीं हैं बल्कि समय आने पर अपना विस्तार ही करती है।
आपका ‘शिव सहस्त्रनाम ’दोहा छन्द में उनके आत्मिक चिन्तन की कसौटी है। इस रचना में चहवरिया जी के जीवन में आध्यात्मिक आस्था का केन्द्र विद्यमान है।
इसमें उन्होंने अपनी जिज्ञासा को भी स्थान दिया है-
वाम देव व्याली, गिरीश ,वृषा कपि, वृषांक।
विश्वनाथ बिगरैं नहीं, चहवरिया कर्मांक।।
वे हमेंशा ही कर्तव्य को प्रमुख मानते रहे हैं।
इसमें अनेकों दोहे पीर निवारण के लिये लिखे गये हैं-
ग्रहण, गणेश्वर,गोप्ता,गोपित,गय गंभीर।
गिरजाधव, गिररत, गुरुद, हर चहवरिया पीर।।
इसी कृति में पुत्रों के भाग्य उदय हेतु प्रार्थना की गई है-
न्यायध्यक्ष, अनंत दृष्टि,इष्ट अरिष्ट, नेति।
ओज, तेज युत, सुत करो, चहवरिया सुख हेत।
इस प्रकार संसार के हित में आपने इस शिव सहस्त्रनाम का सृजन किया है। वे इसका सतत् पाठ करने वालों के कल्याण की कामना भी कर गये हैं।
चेहवरिया जी की रचनायें सभी को चेतना प्रदान करने वाली रचनायें हैं। ये मुख्य रूप से बुन्देली कें कवि रहे हैं उनकी यह रचना हमें बहुत ही प्यारी लगती रही है- ऐसा गांव बना लो-
शोषित श्रमिक दुःखी मानव को खों, छाती सों चिपकालो।
अपनो भाग्य हाथ सों अपने, सुन्दर सुधर बना लो।।
राम राज कौ सपनो पूरो, करवै कै दिन आ गये।
पंचायत राज की पावन गंगा,बड़े भाग सों पा गये।।
बैरभाव विद्वेश घृणा के पातक पुंज छुड़ालो।
शोषित श्रमिक दुःखी मानव सों छाती सों चिपकालो।।
यह रचना मैंने अनेक बार सुनी है फिर भी सुनने से मन नहीं भरा है। उनके द्वारा कई वार सुनी नरेन्द्र उत्सुक जी के सम्पादन पंचमहल की माटी में प्रकाषित रचना सामने है। वे इस बात से दुःखी है कि मानव से मानव की दूरी बढ़ती जा रही है।
मानव से मानव की दूरी बढ़ती जाती है।
उलझा आम आदमी अपने जाल अभावों में।
परहित भाव नहीं आ पाते, स्वार्थ ख्वाबों में।।
क्षण क्षण तृष्णा नागिन आकर दंत गड़ाती है।
मानव से मानव की दूरी बढ़ती जाती है।
इसी संग्रह में बात पर बात जैसे विषय पर भी पांच छन्द समाहित किये गये हैं-
बात कश्मीर की तो, बात से बात होग्री हल,
एक साथ बैठ बात, साफ कर लीजिए।
बत नहीं जाकी ताकी, पूछत न कोउ बात।
बात बारे बान बारे बात पै ही लीजिए।
पाक राखै बात निज,और न बढ़ावै बात।
लंधन न देवै सीस, ऐसी मति कीजिए।।
छेवन के काज मात, मंथरा की रख बात।
बणी चहवरिया की बात रख लीजिए।।
ऐसी करुणा मय प्रभु की पुकार संत ह्रदय से ही हो सकती है।
मैंने एक कविता युवाओं की मनोदशा पर लिखी थी कि युवा किस तरह सोचते है-
अब तो हम सड़क के मध्य में चलेंगे।
अपनी प्रगति के लिये जी जान से लड़ेंगे।।
फुटपाथ पर चलने का चलन पुराना है।
वये हाथ चलकर , वेमौत ना मरेंगे।
उन्हें मेरी कविता रुचिकर नहीं लगी। उन्होंने इसके विरोध में अपनी बात कहीं थी-
सड़क के मध्य में चलने की जो तुमने आज ठानी है।
गलत ने सत्य से निश्चय हमेशा हार मानी हैं।
आपकी यह रचना हमारे गृह नगर में बहुत चर्चित रही है।
श्री लक्खूराम चहवरिया जी म. प्र साहित्य परिषद के पाठक मंच की कृतियों के पठन- पाठन में सक्रीय भूमिका का निर्वाह करते रहे। उनकी प्रतिक्रियायें साहित्य परिषद की साक्षत्कार पत्रिका में लगातार प्रकाषित होतीं रहीं।
शिव सहस्त्रनाम की प्रकाशकीय में राजवीर खुराना जी ने चहवरिया जी की भाषा शैली की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की हैं।
कनाडा से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका हिन्दी चेतन में आपकी रचनायें प्रकाशित होती रहीं हैं। आज वे संसार में नहीं हैं लेकिन उनकी यस गाथायें आज भी इस धरा पर विचरण कर रहीं हैं।
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