The Author Miss Chhoti Follow Current Read सत्य ना प्रयोगों - भाग 8 By Miss Chhoti Hindi Spiritual Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books શ્રીમદ્ ભગવદ્ ગીતા - સંપૂર્ણ ૐ ઊંધ્ટ્ટ થ્ૠધ્ધ્અૠધ્ઌશ્વ ઌૠધ્ઃ ગરુડ પુરાણ અનુક્રમણિકા ૧. પ્રથમ અધ્યાય निलावंती ग्रंथ - एक श्रापित ग्रंथ... - 1 निलावंती एक श्रापित ग्रंथ की पूरी कहानी।निलावंती ग्रंथ नियती - भाग 50 भाग 50त्यावर तोही तिला खट्याळपणे म्हणाला...."काय झालं...?? ब... क्रीपि फाईलज - खरी दृष्य भीतीची ... - सीजन 1 - भाग 18 देवी योगेश्वरी माता महिमा भाग 1 नमस्कार मित्रहो सदर कथा सत्... दुष्ट चक्रात अडकलेला तो - भाग 4 आरती आणि अजित जेवतानासुध्दा भूतकाळात घडलेल्या घटनेच्या विचार... विचारांचा प्रवास "विचारांचा प्रवास" जीवनातील संघर्ष, निर्णय आणि अनुभव... अनुबंध बंधनाचे. - भाग 31 अनुबंध बंधनाचे.....( भाग ३१ )शिल्पाच्या घरी सर्वांची तयारी च... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Novel by Miss Chhoti in Hindi Spiritual Stories Total Episodes : 13 Share सत्य ना प्रयोगों - भाग 8 (5) 1.4k 3.5k आगे की कहानी धर्म की झाँकी... छह या सात साल से लेकर सोलह साल की उमर तक मैंने पढ़ाई की, पर स्कूल में कहीं भी धर्म की शिक्षा नहीं मिली। यों कह सकते है कि शिक्षकों से जो आसानी से मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। फिर भी वातावरण से कुछ-न-कुछ तो मिलता ही रहा। यहाँ धर्म का उदार अर्थ करना चाहिए। धर्म अर्थात आत्मबोध, आत्मज्ञान। मैं वैष्णव संप्रदाय में जन्मा था, इसलिए हवेली में जाने के प्रसंग बार-बार आते थे। पर उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई। हवेली का वैभव मुझे अच्छा नहीं लगा। हवेली में चलनेवाली अनीति की बातें सुनकर उसके प्रति उदासीन बन गया। वहाँ से मुझे कुछ भी न मिला।पर जो हवेली से न मिला, वह मुझे अपनी धाय रंभा से मिला। रंभा हमारे परिवार की पुरानी नौकरानी थी। उसका प्रेम मुझे आज भी याद है। मैं ऊपर कह चुका हूँ कि मुझे भूत-प्रेत आदि का डर लगता था। रंभा ने मुझे समझाया कि इसकी दवा रामनाम है। मुझे तो रामनाम से भी अधिक श्रद्धा रंभा पर थी, इसलिए बचपन में भूत-प्रेतादि के भय से बचने के लिए मैंने रामनाम जपना शुरू किया। यह जप बहुत समय तक नहीं चला। पर बचपन में जो बीज बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ। आज रामनाम मेरे लिए अमोघ शक्ति है। मैं मानता हूँ कि उसके मूल में रंभाबाई का बोया हुआ बीज है।इसी अरसे में मेरे चाचाजी के एक लड़के ने, जो रामायण के भक्त थे, हम दो भाइयों को राम-रक्षा का पाठ सिखाने का व्यवस्था की। हमने उसे कंठाग्र कर लिया और स्नान के बाद उसके नित्यपाठ का नियम बनाया। जब तक पोरबंदर रहे, यह नियम चला। राजकोट के वातावरण में यह टिक न सका। इस क्रिया के प्रति भी खास श्रद्धा नहीं था। अपने बड़े भाई के लिए मन में जो आदर था उसके कारण और कुछ शुद्ध उच्चारणों के साथ राम-रक्षा का पाठ कर पाते है इस अभिमान के कारण पाठ चलता रहा।पर जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा, वह था रामायण का पारायण। पिताजी की बीमारी का थोड़ा समय पोरबंदर में बीता था। वहाँ वे रामजी के मंदिर में रोज रात के समय रामायण सुनते थे। सुनानेवाले थे बीलेश्वर के लाधा महाराज नामक एक पंडित थे। वे रामचंद्रजी के परम भक्त थे। उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें कोढ़ की बीमारी हुई तो उसका इलाज करने के बदले उन्होंने बीलेश्वर महादेव पर चढ़े हुए बेलपत्र लेकर कोढ़वाले अंग पर बाँधे और केवल रामनाम का जप शुरू किया। अंत में उनका कोढ़ जड़मूल से नष्ट हो गया। यह बात सच हो या न हो, हम सुननेवालों ने तो सच ही मानी। यह सच भी है कि जब लाधा महाराज ने कथा शुरू की तब उनका शरीर बिलकुल नीरोग था। लाधा महाराज का कंठ मीठा था। वे दोहा-चौपाई गाते और उसका अर्थ समझाते थे। स्वयं उसके रस में लीन हो जाते थे। और श्रोताजनों को भी लीन कर देते थे। उस समय मेरी उमर तेरह साल की रही होगी, पर याद पड़ता है कि उनके पाठ में मुझे खूब रस आता था। यह रामायण-श्रवण रामायण के प्रति मेरे अत्याधिक प्रेम की बुनियाद है। आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूँ।कुछ महीनों के बाद हम राजकोट आए। वहाँ रामायण का पाठ नहीं होता था। एकादशी के दिन भागवत जरूर पढ़ी जाती थी। मैं कभी-कभी उसे सुनने बैठता था। पर भट्टजी रस उत्पन्न नहीं कर सके। आज मैं यह देख सकता हूँ कि भागवत एक ऐसा ग्रंथ है, जिसके पाठ से धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता है। मैंने तो उसे गुजराती में बड़े चाव से पढ़ा है। लेकिन इक्कीस दिन के अपने उपवास काल में भारत-भूषण पंडित मदनमोहन मालवीय के शुभ मुख से मूल संस्कृत के कुछ अंश जब सुने तो खयाल हुआ कि बचपन में उनके समान भगवद-भक्त के मुँह से भागवत सुनी होती तो उस पर उसी उमर में मेरा गाढ़ प्रेम हो जाता। बचपन में पड़े शुभ-अशुभ संस्कार बहुत गहरी जड़ें जमाते हैं, इसे मैं खूब अनुभव करता हूँ; और इस कारण उस उमर में मुझे कई उत्तम ग्रंथ सुनने का लाभ नहीं मिला, सो अब अखरता है। राजकोट में मुझे अनायास ही सब संप्रदायों के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा मिली। मैंने हिंदू धर्म के प्रत्येक संप्रदाय का आदर करना सीखा, क्योंकि माता-पिता वैष्णव-मंदिर में, शिवालय में और राम-मंदिर में भी जाते और हम भाइयों को भी साथ ले जाते या भेजते थे।फिर पिताजी के पास जैन धर्माचार्यों में से भी कोई न कोई हमेशा आते रहते थे। पिताजी के साथ धर्म और व्यवहार की बातें किया करते थे। इसके सिवा, पिताजी के मुसलमान और पारसी मित्र थे। वे अपने-अपने धर्म की चर्चा करते और पिताजी उनकी बातें सम्मानपूर्वक सुना करते थे। 'नर्स' होने के कारण ऐसी चर्चा के समय मैं अक्सर हाजिर रहता था। इस सारे वातावरण का प्रभाव मुझ पर पड़ा कि मुझ में सब धर्मों के लिए समान भाव पैदा हो गया।एक ईसाई धर्म अपवादरूप था। उसके प्रति कुछ अरुचि थी। उन दिनों कुछ ईसाई हाईस्कूल के कोने पर खड़े होकर व्याख्यान दिया करते थे। वे हिंदू देवताओं की और हिंदू धर्म को माननेवालों की बुराई करते थे। मुझे यह असह्य मालूम हुआ। मैं एकाध बार ही व्याख्यान सुनने के लिए खड़ा रहा होऊँगा। दूसरी बार फिर वहाँ खड़े रहने की इच्छा ही न हुई। उन्ही दिनो एक प्रसिद्ध हिंदू के ईसाई बनने की बात सुनी। गाँव में चर्चा थी कि उन्हें ईसाई धर्म की दीक्षा देते समय गोमांस खिलाया गया और शराब पिलाई गई। उनकी पोशाक भी बदल दी गई और ईसाई बनने के बाद वे भाई कोट-पतलून और अंग्रेजी टोपी पहनने लगे। इन बातों से मुझे पीड़ा पहुँची। जिस धर्म के कारण गोमांस खाना पड़े, शराब पीनी पड़े और अपनी पोशाक बदलनी पड़े, उसे धर्म कैसे कहा जाय? मेरे मन ने यह दलील की। फिर यह भी सुनने में आया कि जो भाई ईसाई बने थे, उन्होंने अपने पूर्वजों के धर्म की, रीति-रिवाजों और देश की निंदा करना शुरू कर दिया था। इन सब बातों से मेरे मन में ईसाई धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई।इस तरह यद्यपि दूसरे धर्मो के प्रति समभाव जागा, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मुझ में ईश्वर के प्रति आस्था थी। इन्हीं दिनों पिताजी के पुस्तक-संग्रह में से मनुस्मृति की भाषांतर मेरे हाथ में आया। उसमें संसार की उत्पत्ति आदि की बातें पढ़ी। उन पर श्रद्धा नहीं जमी, उलटे थोड़ी नास्तिकता ही पैदा हुई। मेरे चाचाजी के लड़के की, जो अभी जीवित है, बुद्धि पर मुझे विश्वास था। मैंने अपनी शंकाएँ उनके सामने रखीं, पर वे मेरा समाधान न कर सके। उन्होंने मुझे उत्तर दिया : 'सयाने होने पर ऐसे प्रश्नों के उत्तर तुम खुद दे सकोगे। बालकों को ऐसे प्रश्न नहीं पूछने चाहिए।' मैं चुप रहा। मन को शांति नहीं मिली। मनुस्मृति के खाद्य-विषयक प्रकरण में और दूसरे प्रकरणों में भी मैंने वर्तमान प्रथा का विरोध पाया। इस शंका का उत्तर भी मुझे लगभग ऊपर के जैसा ही मिला। मैंने यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि 'किसी दिन बुद्धि खुलेगी, अधिक पढ़ूँगा और समझूँगा।' उस समय मनुस्मृति को पढ़कर में अहिंसा तो सीख ही न सका। मांसाहार की चर्चा हो चुकी है। उसे मनुस्मृति का समर्थन मिला। यह भी खयाल हुआ कि सर्पादि और खटमल आदि को मारनी नीति है। मुझे याद है कि उस समय मैंने धर्म समझकर खटमल आदि का नाश किया था।पर एक चीज ने मन में जड़ जमा ली - यह संसार नीति पर टिका हुआ है। नीतिमात्र का समावेश सत्य में है। सत्य को तो खोजना ही होगा। दिन-पर-दिन सत्य की महिमा मेरे निकट बढ़ती गई। सत्य की व्याख्या विस्तृत होती गई, और अभी हो रही है।फिर नीति का एक छप्पय दिल में बस गया। अपकार का बदला अपकार नहीं, उपकार ही हो सकता है, यह एक जीवन सूत्र ही बन गया। उसमे मुझ पर साम्राज्य चलाना शुरू किया। अपकारी का भला चाहना और करना, इसका मैं अनुरागी बन गया। इसके अनगिनत प्रयोग किए। वह चमत्कारी छप्पय यह है :पाणी आपने पाय, भलुं भोजन तो दीजेआवी नमावे शीश, दंडवत कोडे कीजे।आपण घासे दाम, काम महोरोनुं करीएआप उगारे प्राण, ते तणा दुखमां मरीए।गुण केडे तो गुण दश गणो, मन, वाचा, कर्मे करीअपगुण केडे जो गुण करे, तो जगमां जीत्यो सही।_सत्य ना प्रयोगों ‹ Previous Chapterसत्य ना प्रयोगों - भाग 7 › Next Chapter सत्य ना प्रयोगों - भाग 9 Download Our App