आगे की कहानी...
उस समय तो मुझे जान पड़ा कि मेरी मर्दानगी को बट्टा लगा और मैंने चाहा कि धरती जगह दे तो मैं उसमे समा जाऊँ। पर इस तरह बचने के लिए मैंने सदा ही भगवान का आभार माना है। मेरे जीवन में ऐसे ही दूसरे चार प्रसंग और आए हैं। कहना होगा कि उनमें से अनेकों में, अपने प्रयत्न के बिना, केवल परिस्थिति के कारण मैं बचा हूँ। विशुद्ध दृष्टि से तो इल प्रसंगों में मेरा पतन ही माना जाएगा। चूँकि विषय की इच्छा की, इसलिए मैं उसे भोग ही चुका। फिर भी लौकिक दृष्टि से, इच्छा करने पर भी जो प्रत्यक्ष कर्म से बचता है, उसे हम बचा हुआ मानते हैं; और इन प्रसंगों में मैं इसी तरह, इतनी ही हद तक, बचा हुआ माना जाऊँगा। फिर कुछ काम ऐसे है, जिन्हें करने से बचना व्यक्ति के लिए और उसके संपर्क में आनेवालों के लिए बहुत लाभदायक होता है, और जब विचार शुद्धि हो जाती है तब उस कार्य में से बच जाने कि लिए वह ईश्वर का अनुगृहीत होता है। जिस तरह हम यह अनुभव करते हैं कि पतन से बचने का प्रयत्न करते हुए भी मनुष्य पतित बनता है, उसी तरह यह भी एक अनुभव-सिद्ध बात है कि गिरना चाहते हुए भी अनेक संयोगों के कारण मनुष्य गिरने से बच जाता है। इसमें पुरुषार्थ कहाँ है, दैव कहाँ है, अथवा किन नियमों के वश होकर मनुष्य आखिर गिरता या बचता है, ये सारे गूढ़ प्रश्न हैं। इसका हल आज तक हुआ नहीं और कहना कठिन है कि अंतिम निर्णय कभी हो सकेगा या नहीं ।
पर हम आगे बढ़े। मुझे अभी तक इस बात का होश नहीं हुआ कि इन मित्र की मित्रता अनिष्ट है। वैसा होने से पहले मुझे अभी कुछ और कड़वे अनुभव प्राफ्त करने थे। इसका बोध तो मुझे तभी हुआ जब मैंने उनके अकल्पित दोषों का प्रत्यक्ष दर्शन किया। लेकिन मैं यथासंभव समय के क्रम के अनुसार अपने अनुभव लिख रहा हूँ, इसलिए दूसरे अनुभव आगे आयेगे।
इस समय की एक बात यहीं कहनी होगी। हम दंपती के बीच जो जो कुछ मतभेद या कलह होता, उसका कारण यह मित्रता भी थी। मैं ऊपर बता चुका हूँ कि मैं जैसा प्रेमी था वैसा ही वहमी पति था। मेरे वहम को बढ़ानेवाली यह मित्रता थी, क्योंकि मित्र की सच्चाई के बारे में मुझे कोई संदेह था ही नहीं। इन मित्र की बातों में आकर मैंने अपनी धर्मपत्नी को कितने ही कष्ट पहुँचाए। इस हिंसा के लिए मैंने अपने को कभी माफ नहीं किया है। ऐसे दुख हिंदू स्त्री ही सहन करती है, और इस कारण मैंने स्त्री को सदा सहनशीलता की मूर्ति के रूप में देखा है। नौकर पर झूठा शक किया जाय तो वह नौकरी छोड़ देता है, पुत्र पर ऐसा शक हो तो वह पिता का घर छोड़ देता है, मित्रों के बीच शक पैदा हो तो मित्रता टूट जाती है, स्त्री को पति पर शक हो तो वह मन मसोस कर बैठी रहती है, पर अगर पति पत्नी पर शक करे तो पत्नी बेचारी का भाग्य ही फूट जाता है। वह कहाँ जाए? उच्च माने जानेवाले वर्ण की हिंदू स्त्री अदालत में जाकर बँधी हुई गाँठ को कटवा भी नहीं सकती, ऐसा एकतरफा न्याय उसके लिए रखा गया है। इस तरह का न्याय मैंने दिया, इसके दुख को मैं कभी नहीं भूल सकता। इस संदेह की जड़ तो तभी कटी जब मुझे अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ, यानी जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा और यह समझा कि पत्नी पति की दासी नहीं, पर उसकी सहचारिणी है, सहधर्मिणी है, दोनों एक दूसरे के सुख-दुख के समान साझेदार है, और भला-बुरा करने की जितनी स्वतंत्रता पति को है उतनी ही पत्नी को है। संदेह के उस काल को जब मैं याद करता हूँ तो मुझे अपनी मूर्खता और विषयांध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता-विषयक अपनी मूर्च्छा पर दया आती है।
__चोरी और प्रायश्चित
मांसाहार के समय के और उससे पहले के कुछ दोषों का वर्णन अभी रह गया है। ये दोष विवाह से पहले के अथवा उसके तुरंत बाद के हैं।
अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने को शौक लगा। हमारे पास पैसे नहीं थे। हम दोनों में से किसी का यह खयाल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फायदा है, अथवा गंध में आनंद है। पर हमें लगा सिर्फ धुआँ उड़ाने में ही कुछ मजा है। मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उन्हें और दूसरों को धुआँ उड़ाते देखकर हमें भी बीड़ी फूँकने की इच्छा हुई। गाँठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए काकाजी पीने के बाद बीड़ी के जो ठूँठ फेंक दे्ते, हमने उन्हें चुराना शुरू किया।
पर बीड़ी के ये ठूँठ हर समय मिल नहीं सकते थे, और उनमें से बहुत धुआँ भी नहीं निकलता था। इसलिए नौकर की जेब में पड़े दो-चार पैसों में से हमने एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और हम बीड़ी खरीदने लगे। पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे सँभाल कर रखें कहाँ। हम जानते थे कि बड़ों के देखते तो बीड़ी पी ही नहीं सकते। जैसे-तैसे दो-चार पैसे चुराकर कुछ हफ्ते काम चलाया। इसी बीच सुना एक प्रकार का पौधा होता है जिसके डंठल बीड़ी की तरह जलते हैं और फूँके जा सकते हैं। हमने उन्हें प्राप्त किया और फूँकने लगे!
पर हमें संतोष नहीं हुआ। अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी। हमें दुख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम उब गए और हमने आत्महत्या करने का निश्चय कर किया!
पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन दें? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती है। हम जंगल में जाकर बीज ले आए। शाम का समय तय किया। केदारनाथजी के मंदिर की दीपमाला में घी चढ़ाया, दर्शन किए और एकांत खोज लिया। पर जहर खाने की हिम्मत न हुई। अगर तुरंत ही मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिक भी दो-चार बीज खाए। अधिक खाने की हिम्मत ही न पड़ी। दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि रामजी के मंदिर जाकर दर्शन करके शांत हो जाएँ और आत्महत्या की बात भूल जाएँ।
मेरी समझ में आया कि आत्महत्या का विचार करना सरल है, आत्महत्या करना सरल नहीं। इसलिए कोई आत्महत्या करने का धमकी देता है, तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता है अथवा यह कहना ठीक होगा कि कोई असर हो ही नहीं।
आत्महत्या के इस विचार का परिणाम यह हुआ कि हम दोनों जूठी बीड़ी चुराकर पीने की और नौकर के पैसे चुराकर पैसे बीड़ी खरीदने और फूँकने की आदत भूल गए। फिर कभी बड़ेपन में पीने की कभी इच्छा नहीं हुई। मैंने हमेशा यह माना है कि यह आदत जंगली, गंदी और हानिकारक है। दुनिया में बीड़ी का इतना जबरदस्त शौक क्यों है, इसे मैं कभी समझ नहीं सका हूँ। रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में बहुत बीड़ी पी जाती है, वहाँ बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है और धुँए से मेरा दम घुटने लगता है।
बीड़ी के ठूँठ चुराने और इसी सिलसिले में नौकर के पैसे चुराने के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ, उसे मैं अधिक गंभीर मानता हूँ। बीड़ी के दोष के समय मेरी उमर बारह तेरह साल की रही होगी; शायद इससे कम भी हो। दूसरी चोरी के समय मेरी उमर पंद्रह साल की रही होगी। यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी। उन पर मामूली सा, लगभग पच्चीस रुपए का कर्ज हो गया था। उसकी अदायगी के बारे हम दोनो भाई सोच रहे थे। मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस कड़ा था। उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था।
कड़ा कटा। कर्ज अदा हुआ। पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गई। मैंने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करूँगा ही नहीं। मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकार भी कर लेना चाहिए। पर जीभ न खुली। पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे, इसका डर तो था ही नहीं। मुझे याद नहीं पड़ता कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो। पर खुद दुखी होंगे, शायद सिर फोड़ लें। मैंने सोचा कि यह जोखिम उठाकर भी दोष कबूल कर लेना चाहिए, उसके बिना शुद्धि नहीं होगी।
आखिर मैंने तय किया कि चिट्ठी लिख कर दोष स्वीकार किया जाए और क्षमा माँग ली जाए। मैंने चिट्ठी लिखकर हाथोंहाथ दी। चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही। आग्रहपूर्वक बिनती की कि वे अपने को दुख में न डालें और भविष्य में फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की।
मैंने काँपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी। मैं उनके तख्त के सामने बैठ गया। उन दिनों वे भगंदर की बीमारी से पीड़ित थे, इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। खटिया के बदले लकड़ी का तख्त काम में लाते थे।
उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आँखों से मोती की बूँदें टपकीं। चिट्ठी भीग गई। उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें मूँदीं, चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लेट गए।
मैं भी रोया। पिताजी का दुख समझ सका। अगर मैं चित्रकार होता, तो वह चित्र आज भी संपूर्णता से खींच सकता। आज भी वह मेरी आँखों के सामने इतना स्पष्ट है।
मोती की बूँदों के उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना। इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है।
रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे।
(राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो वही जान सकता है।)
मेरे लिए यह अहिंसा का पदार्थपाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूँ। ऐसी अहिंसा के व्यापक रूप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता है? ऐसी व्यापक अहिंसा की शक्ति की थाह लेना असंभव है।
_सत्य ना प्रयोगों