Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 13 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 13

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 13


जीवन सूत्र 13 कभी अप्रिय निर्णय भी हो जाते हैं अपरिहार्य

इस लेखमाला में मैंने गीता के श्लोकों व उनके अर्थों को केवल एक प्रेरणा के रूप में लिया है।यह न तो उनकी व्याख्या है न विवेचना क्योंकि मुझमें मेरे आराध्य भगवान कृष्ण की वाणी पर टीका की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।मैं बस उन्हें आज के संदर्भों से जोड़ने व स्वयं अपने उपयोग के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का एक मौलिक प्रयत्न मात्र कर रहा हूं।वही मातृभारती के आप सुधि पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत कर रहा हूं।आज प्रस्तुत है 13 वां जीवन सूत्र:

कभी अप्रिय निर्णय भी हो जाते हैं अपरिहार्य

(भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन में चर्चा जारी है।)

यह आत्मा कभी किसी काल में भी न जन्म लेता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर गायब हो जाने वाला है।यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है,शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

(20 वें श्लोक से आगे का प्रसंग)

आत्मा के स्वरूप को नहीं जानने के कारण ही मनुष्य अपने कार्यों का कर्ता और स्वयं को निर्णय लेने वाला संप्रभु मान लेता है। ऐसा व्यक्ति यह नहीं समझ पाता है कि वह निमित्त मात्र है और सामने वाले व्यक्ति पर कोई कठोर कार्यवाही करने की कोई विवशता आन पड़ी है तो इसके पीछे कोई ठोस कारण है।

इसे और स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं: -

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2/21।।

हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी, नित्य और नष्ट न होने वाला अव्ययस्वरूप जानता है,वह कैसे किसी को मरवाएगा और कैसे किसी को मारेगा?

अर्जुन के मन में कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत का युगपरिवर्तनकारी युद्ध शुरू होने के पूर्व अनेक संशय थे।भगवान कृष्ण एक योद्धा के मन में उठने वाले इन प्रश्नों का लगातार समाधान करते जाते हैं। अर्जुन के मन में एक संदेह स्वयं द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति विशेष रुप से अपने ही संबंधियों की हत्या को लेकर है।अर्जुन इस भीषण रक्तपात वाले महायुद्ध का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे। भगवान कृष्ण उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि अगर शरीर एक रथ है तो आत्मा उसका स्वामी है। यह आत्मा तो कभी नष्ट नहीं होती। इसका अस्तित्व तब तक सदा है जब तक यह मोक्ष की पात्रता प्राप्त नहीं कर लेती है। इस आत्मा पर वस्तु के क्षय का नियम भी लागू नहीं होता। अगर अर्जुन यह सोच रहे हैं कि वे किसी को मार रहे हैं या किसी के निर्देश पर किसी की हत्या कर रहे हैं तो उनका यह सोचना गलत है।इस धर्म युद्ध और न्याय युद्ध में यही अधर्म हो जाता ,अगर सत्य के पक्ष में भगवान श्री कृष्ण के समझाने पर भी अर्जुन दोबारा हथियार नहीं उठाते।

ज़रा अलग हटके

चोर और पुलिस जैसे शाश्वत खेल है

सदियों से जारी

एक तोड़ता है नियम

तो दूसरा कराता है उसका पालन

एक दूसरों के धन को

हड़पना चाहता है अनायास

दबे पांव ,चोरी-छिपे

तो दूसरा करता है बचाव

और पकड़ता है ऐसा करने वाले को

की मेहनत से कमाई राशि या संपत्ति

कोई बैठे-बिठाए ही ना ले जाए;

और कुतर्क गढ़ा जाता है कई बार

कि हालात ने किसी को मजबूर कर दिया

चोरी करने को

पर जिसका धन लुट जाए

उसके हालात का क्या?

और

चोर पुलिस का यह खेल

सीमित नहीं है केवल

धनराशि को चोरी-छिपे हथियाने तक

ये खेल

कभी-कभी वे भी खेलते हैं

जो करते हैं दूसरों को

वंचित उनके अधिकारों से;

जो हक मारते हैं दूसरों का;

जो अकर्मण्य हैं

जो शोषण करते हैं श्रम का

जो खेलते हैं लोगों की भावनाओं से

क्या ये सब चोरी नहीं?

वह भी तब

जब स्वयं को समझते हैं वे

समाज में

पुलिस की भूमिका में।

डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय