नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक / नौंवा भाग
सुबह ग्यारह बजे से लेकर शाम के पांच बजे तक हामिद मानो अपने घोड़े-खच्चर सब बेचकर गहरी नींद सोता रहा. इस मध्य सारे घर में सन्नाटा किसी मातम वाले घर के समान पसरा रहा. मोहिनी अभी तक अपने स्थान पर बैठी हुई थी. जब से वह बैठी थी, तब से एक ही बात के बारे में वह लगातार सोच रही थी. जिस बात के लिए वह सोच रही थी वह यही थी कि, जब से वह इस संसार में आई थी, तब से उसे अपने आपको मोहिनी साबित करने में हर तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ रही थीं. और जिस घर में, जिस स्त्री के बदन में उसे 'शान्ति के राज्य' के राजा 'मनुष्य के पुत्र' ने भेजा है, उस स्त्री का नाम इकरा था.
इकरा मर चुकी थी और आसमान में जा चुकी थी, मगर उसके शरीर के दफ़न होने से पहले ही, अर्थात इकरा के शरीर के नष्ट होने से पूर्व ही मोहिनी की भटकती हुई आत्मा को, आसमानी राज्य के द्वारा उसमें भेज दिया गया था. यह बात मोहिनी जानती थी. मगर, सबसे बड़ी परेशानी यही थी कि, कोई भी उसे मोहिनी मानने और स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता था. जबकि, हकीकत यह थी कि, जब मोहिनी खुद को आयने में देखती थी तो उसे अपनी शक्ल मोहिनी की दिखाई देती थी, जबकि, हामिद, उसके पिता तथा उसके अन्य जानने वालों को वह इकरा ही दिखाई देती थी. वे समझते थे कि, इकरा मरकर भी वापस जीवित होकर दोबारा आ चुकी है. यही कारण था कि जब मोहिनी खुद को मोहिनी बताती थी तो जैसी कि, अंध-विश्वासियों की धारणा होती है, उनको मोहिनी में किसी प्रेतात्मा, दुष्ट-आत्मा, भूत-प्रेत और जिन्न आदि दुष्टों की आत्मा का निवास-स्थान दिखाई देता था और वे मोहिनी की किसी भी बात पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे.
इन हालातों में मोहिनी को अब केवल एक ही उम्मीद बची थी. वह सोचती थी कि, यहाँ, तो इकरा और उसके समुदाय के लोग हैं. कोई भी उसे मोहिनी के रूप में नहीं जानता है. इसलिए वे उस पर विश्वास भी क्यों करेंगे? मगर जब वह अपने घर जायेगी, अपने माता-पिता से मिलेगी, अपने भाई-बहन को देखेगी तो सब उसे पहचान लेंगे. इतना ही नहीं, जब उसका होने वाला मंगेतर मोहित उसे फिर से पायेगा तो वह भी उसे क्योंकर नहीं पहचानेगा? इसलिए यही सब सोच और समझकर उसने सबसे पहले हामिद के घर से बाहर निकलना पहले उचित समझा. हामिद के घर से बाहर आने के लिए, हामिद ही उसकी सबसे अच्छी मदद कर सकता है.
तब मोहिनी ने उठकर किचिन में गंदे पड़े मांस, मछली और चटक मसाले के सारे बर्तन चूल्हे में पड़ी राख से मांज़-मांज़ कर धोये और फिर खाना बनाने बैठ गई. हामिद के बाप ने जब मोहिनी को यह सब करते देखा तो वह अपने दोनों हाथ आसमान में उठाकर अपने अल्लाह की दोहाई देने लगा. मोहिनी ने अपने तरीके से सारा खाना बनाया. खाने में उसने दाल, सब्जी, चावल, चटनी, रोटी और रायता भी बनाया. जब तक उसने खाना बनाकर तैयार किया, हामिद भी सोकर उठ गया. मोहिनी ने उसे जागते देख कर कहा कि,
'जा, जल्दी से स्नान कर, फिर आकर खाना खा ले.'
'?'- हामिद ने मोहिनी को इस प्रकार से कहते देखा तो आश्चर्य से उसका मुखड़ा ही देखता रह गया. लेकिन, उसने कुछ भी नहीं कहा. वह चुपचाप उठा और गुसलखाने में नहाने के लिए चला गया.
फिर जब तक वह स्नानादि करके आया तब तक मोहिनी ने नीचे दरी बिछाकर सारा भोजन लगाकर रख दिया था. फिर जब हामिद खाने के लिए आया तो उसे चप्पल पहने हुए ही खाने पर बैठते देख मोहिनी ने उसे टोक दिया. बोली,
'अरे ! तुझे ज़रा भी सहूर है कि, नहीं? चप्पल पहने हुए ही दरी पर खाने के लिए बैठ गया. जा, चप्पल उतार."
'?'- हामिद ने एक बार मोहिनी को देखा और फिर चप्पलें उतार दीं. तब मोहिनी ने उसके पिता को भी बुलाया. फिर दोनों बाप-बेटे, डरे-सहमें हुए खाना खाते रहे. इसी बीच मोहिनी ने जब देखा कि, वे दोनों सामान्य हो चुके हैं तब उनके खाने के बाद, मोहिनी ने उन्हें उठने नहीं दिया और कहा कि,
'मैं, आप दोनों से कुछ कहना चाहती हूँ. अगर आप सुनें और विश्वास करें तो ये मेरे लिए बहुत आनन्द की बात होगी?'
'?'- तब थोड़ी देर बाद हामिद के पिता बोले,
'जरुर... बेटी. जरुर. हम भी तो जानें कि, आखिर माजरा क्या है?'
तब मोहिनी ने कहना आरम्भ किया. वह बोली,
'मेरा नाम मोहिनी व्यास है. मेरे पिता का नाम राधे जप व्यास है. मेरी माता का नाम सोहनी है. मेरी एक छोटी बहन और एक छोटा भाई क्रमश: जोहनी और जीवा हैं. हमारा घर, आकाश नगर शहर के पास से कोई चालीस किलोमीटर दूर एक गाँव 'राजा के गाँव' में है. मैं आकाशनगर के विद्दुत विभाग में लिपिक की नौकरी करती थी. तब उन्हीं दिनों मेरा विवाह मोहित नामक युवक से होनेवाला था. हमारी सगाई भी हो चुकी थी. मगर, मोहित के पिता, उनके चाचा ने मुझे कार में मेरा गला, मेरी ही साड़ी से दबाकर, मुझे धोखे से मार डाला था और मुझे एक ईसाई कब्रिस्थान की पुरानी कब्र में रात में चुपके से दफना दिया था. मुझे उन लोगों ने केवल इसलिए मारा था, क्योंकि वे लोग एक बहुत ही ऊंची जाति से आते थे और मैं एक छोटी जाति से. इसलिए वे हमारा विवाह नहीं चाहते थे.'
इतना कहने के बाद मोहिनी थोड़ी देर को थमी तो हामिद के पिता ने साहस करते हुए कहा कि,
'उसके बाद क्या हुआ?'
'मरने के बाद मेरी आत्मा भटकती रही. मुझे अपनी उम्र पूरी होने तक आसमान में आत्माओं के संसार में रहना था. मगर मेरी मौत के कारण मेरा मंगेतर मोहित बहुत उदास और दुखी रहता था. इसलिए मैं आसमान का नियम तोड़कर भी उससे मिलती रही थी. तब उन्हीं दिनों, मैंने आसमान में एक बहुत ही सुंदर चमकता हुआ, किले के समान सोने की दीवारों से बना हुआ एक राजगढ़-सा देखा. उस गढ़ की दीवारों पर जगह-जगह लिखा हुआ था- 'शान्ति का राज्य', राजा-'मनुष्य का पुत्र.' 'प्रेम ही सच्चा संसार है,' मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ.' इसी तरह की बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें वहां पर लिखी हुई थी.'
'यह सब तुमने अपनी आँखों से इस कायनात से ऊपर आसमान में देखा था?' हामिद के पिता आश्चर्य से अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरने लगे.
'हां. यह सब मैंने अपनी आँखों से देखा था.'
'बाद में क्या हुआ?'
'बाद मे, मैंने सोचा कि, जरुर ही एक बार इस राजगढ़ के राजा से भेंट करनी चाहिए. यही सोचकर मैं उस गढ़ में जब गई तो अचानक ही सैकड़ों सफेद सिपाहियों ने मुझे अंदर जाने से रोका. मैं उनसे मिन्नतें करने लगी कि, एक बार मुझे उनसे मिलने दिया जाये. लेकिन वे सिपाही मुझे रोकते रहे और उन्होंने मुझे अंदर नहीं जाने दिया. मगर तभी राजगढ़ के अंदर से एक बहुत ही कोमल, मधुर और शान्ति देनेवाली आवाज़ मुझे सुनाई दी- 'इस दुखिया लड़की को अंदर आने दिया जाए,'
'उसके बाद राजगढ़ के भारी-भरकम सोने के बने हुए बड़े फाटक खुल गये. मैं अंदर पहुँची तो देखा कि, कोई सफेद पाले के समान वस्त्र पहने हुए मेरे सामने खड़ा है. उसके मुख पर सूरज के समान तेज प्रकाश चमक रहा था और मैं तो क्या ही, कोई भी उसका मुख नहीं देख सकता था.'
'फिर....?' इस बार हामिद की भी जिज्ञासा बढ़ चुकी थी.
'फिर, मैंने कहा कि, अगर आप आसमान के राजा हैं तो मुझे मेरे मोहित के पास दोबारा भेज दो.'
'तुम्हारा अपना शरीर, नष्ट हो चुका है. कहाँ भेज दूँ.'
आपके लिए सब मुमकिन है. मेरा नष्ट हुआ शरीर आप फिर से ठीक कर सकते हैं.'
'हमारे यहाँ के नियम उलटे नहीं चलते हैं.'
'फिर भी मुझे विश्वास है कि, आप कुछ तो जरुर कर सकते हैं. मेरी परेशानी को दूर जरुर कर सकते हैं. मुझे अन्य आत्माओं ने जो यहाँ आत्माओं के संसार में अपनी अधूरी ज़िन्दगी पूरी कर रही हैं, बताया है कि, आप निहायत ही दयावान हैं. आप तो दया के सागर हैं? कृपया मुझ पर दया कीजिये. मैं अपने मोहित के बगैर नहीं रह सकती हूँ.'
- तब काफी देर की मूक शान्ति के बाद फिर से एक मधुर आवाज़ आई,
'बेटी, मैं तुम्हारा दुःख समझता हूँ. पर, मैं तुम्हें भेज तो दूं, मगर उसके बाद तुम्हें संसार में, मुसीबतें बहुत उठानी पड़ेंगी.'
'मुझे मंजूर है. मोहित के लिए मैं हर तरह का कष्ट उठा लूंगी.'
'ठीक है. तुम प्रतीक्षा करो. जैसे ही मुझे तुम्हारी उम्र का कोई शरीर मिलेगा, मैं तुमको उसमें भेज दूंगा....
... उपरोक्त बातें होने के बाद, काफी समय के बाद एक दिन मुझे लगा कि, दो सफेद सैनिक मेरे पास आये और उन्होंने मुझे नीचे धक्का दे दिया. मैं गिरती हुई जैसे किसी सुरंग में चली जा रही थी कि इसी भय के कारण मैं बेहोश हो गई थी. मुझे तनिक भी होश नहीं रहा था. मगर जब मेरी आँख खुली तो तुम सब लोग मुझे कब्र में दोबारा दफनाने जा रहे थे. उसके बाद की कहानी तो तुम लोगों को मालुम ही है. इसलिए, मैं अभी भी कहती हूँ कि, मेरी बात पर विश्वास करो कि, मैं तुम्हारी इकरा नहीं, बल्कि मोहिनी हूँ. तुम्हारी इकरा मर चुकी है और उसी के शरीर में अब मैं मोहिनी बनकर जीवित हूँ. अगर अब भी विश्वास नहीं है तो, मेरे साथ मेरे गाँव 'राजा के गाँव' में चलो और पता लगाओ कि, जो बातें मैंने कही हैं, वे कहाँ तक सत्य हैं? अगर मेरी बातें आप लोगों को गलत और झूठ मिलती हैं तो फिर, मैं वही सब करूंगी जैसा आप लोग कहेंगे.'
'?'- हामिद और उसका पिता एक संशय, भेदभरी दृष्टि के साथ अपने मुंह फाड़कर कभी मोहिनी तो कभी आपस में एक-दूसरे का मुंह ताकते थे.
मोहिनी, अपनी कहानी सुनाकर चुप बैठी थी. हामिद और उसका पिता, कभी आपस में एक-दूसरे को कनखियों से देखते थे तो कभी मोहिनी की तरफ निहारकर अपनी नज़रें फेर लेते थे. तब इसी उहापोह में कई एक क्षण और बीत गये. काफी देर की सोच और चुप्पी के बाद हामिद के पिता ने बात आगे बढ़ाई. वे बोले,
'बहु, तुमने जो कुछ भी बताया है, वह हमारे लिए यकीन-ए-काबिल नहीं है, क्योंकि इस्लाम तुम्हारी सच्चाई की हांमी नहीं भरता है. मगर फिर भी हम दुनियाबी तौर पर वह सब कुछ सच्चाई जानने की कोशिश करेंगे, जो तुमने हमें बताई हैं. इसलिए हामिद तुम्हारे साथ, तुम्हारे गाँव 'राजा का गाँव' जाएगा और तुम्हारे बाप, मां, भाई-बहन से मिलेगा और साथ ही वह तुम्हारे मंगेतर से भी मिलेगा. अगर, तुम्हारी बातों में सच निकलेगा तो फिर हम तुम्हें तुम्हारी किस्मत पर आज़ाद कर देंगे.'
'?'- हामिद के पिता की बात पर मोहिनी की आँखों में अपने अतीत की आनेवाली तमाम खुशियों की जो चमक आई तो उसका बुझा-बुझा-सा चेहरा अचानक ही फूल के समान खिल गया.
'अब तो तुझे उम्मीद हो गई कि, हम लोग इतने बुरे नहीं हैं जितना कि, तू सोचे बैठी थी. कल मैं और तू तेरे गाँव चलेंगे. चल, अब तो खाना ढंग से खा ले. न जाने कितने दिनों से रोज़े पर बैठी होगी?'
हामिद बोला तो मोहिनी ने सिल्वर की बनी हुई प्लेट उठाई और अपने लिए भोजन परोसने लगी.
-क्रमश: