The Author Miss Chhoti Follow Current Read सत्य ना प्रयोगों - भाग 4 By Miss Chhoti Hindi Spiritual Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books શ્રીમદ્ ભગવદ્ ગીતા - સંપૂર્ણ ૐ ઊંધ્ટ્ટ થ્ૠધ્ધ્અૠધ્ઌશ્વ ઌૠધ્ઃ ગરુડ પુરાણ અનુક્રમણિકા ૧. પ્રથમ અધ્યાય निलावंती ग्रंथ - एक श्रापित ग्रंथ... - 1 निलावंती एक श्रापित ग्रंथ की पूरी कहानी।निलावंती ग्रंथ પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 21 સગાઈ"મમ્મી હું મારા મિત્રો સાથે મોલમાં જાવ છું. તારે કંઈ લાવ... ખજાનો - 85 પોતાના ભાણેજ ઇબતિહાજના ખભે હાથ મૂકી તેને પ્રકૃતિ અને માનવ વચ... ભાગવત રહસ્ય - 118 ભાગવત રહસ્ય-૧૧૮ શિવજી સમાધિમાંથી જાગ્યા-પૂછે છે-દેવી,આજે બ... ગામડા નો શિયાળો કેમ છો મિત્રો મજા માં ને , હું લય ને આવી છું નવી વાર્તા કે ગ... પ્રેમતૃષ્ણા - ભાગ 9 અહી અરવિંદ ભાઈ અને પ્રિન્સિપાલ સર પોતાની વાતો કરી રહ્યા .અવન... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Novel by Miss Chhoti in Hindi Spiritual Stories Total Episodes : 13 Share सत्य ना प्रयोगों - भाग 4 (4) 1.6k 3.3k आगे की कहानी हास्कुल मे...... मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि विवाह के समय मैं हाईस्कूल में पढ़ता था। उस समय हम तीनों भाई एक ही स्कूल में पढ़ते थे। जेठे भाई ऊपर के दर्जे में थे और जिन भाई के विवाह के साथ मेरा विवाह हुआ था, वे मुझसे एक दर्जा आगे थे। विवाह का परिणाम यह हुआ कि हम दो भाइयों का एक वर्ष बेकार गया। मेरे भाई के लिए तो परिणाम इससे भी बुरा रहा। विवाह के बाद वे स्कूल पढ़ ही न सके। कितने नौजवानों को ऐसे अनिष्ट परिणाम का सामना करना पड़ता होगा, भगवान ही जाने! विद्याभ्यास और विवाह दोनों एक साथ तो हिंदू समाज में ही चल सकते है।मेरी पढ़ाई चलती रही। हाईस्कूल में मेरी गिनती मंदबुद्धि विद्यार्थियों में नहीं थी। शिक्षकों का प्रेम मैं हमेशा ही पा सका था। हर साल माता-पिता के नाम स्कूल में विद्यार्थी की पढ़ाई और उसके आचरण के संबंध में प्रमाणपत्र भेजे जाते थे। उनमें मेरे आचरण या अभ्यास के खराब होने की टीका कभी नहीं हुई। दूसरी कक्षा के बाद मुझे इनाम भी मिले और पाँचवीं तथा छठी कक्षा में क्रमशः प्रतिमास चार और दस रुपयों की छात्रवृत्ति भी मिली थी। इसमें मेरी होशियारी की अपेक्षा भाग्य का अंश अधिक था। ये छात्रवृत्तियाँ सब विद्यार्थियों के लिए नहीं थी, बल्कि सोरठवासियों में से सर्वप्रथम आनेवालों के लिए थी। चालीस-पचास विद्यार्थियों की कक्षा में उस समय सोरठ प्रदेश के विद्यार्थी कितने हो सकते थे। मेरा अपना खयाल है कि मुझे अपनी होशियारी का कोई गर्व नहीं था। पुरस्कार या छात्रवृत्ति मिलने पर मुझे आश्चर्य होता था। पर अपने आचरण के विषय में मैं बहुत सजग था। आचरण में दोष आने पर मुझे रुलाई आ ही जाती थी। मेरे हाथों कोई भी ऐसा काम बने, जिससे शिक्षक को मुझे डाँटना पड़े अथवा शिक्षकों का वैसा खयाल बने तो वह मेरे लिए असह्य हो जाता था। मुझे याद है कि एक बार मुझे मार खानी पड़ी थी। मार का दुख नहीं था, पर मैं दंड का पात्र माना गया, इसका मुझे बड़ा दुख रहा। मैं खूब रोया। यह प्रसंग पहली या दूसरी कक्षा का है। दूसरा एक प्रसंग सातवीं कक्षा का है। उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेड-मास्टर थे। वे विद्यार्थी प्रेमी थे, क्योंकि वे नियमों का पालन करवाते थे, व्यवस्थित रीति से काम लेते और अच्छी तरह पढ़ाते थे। उन्होंने उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए कसरत-क्रिकेट अनिवार्य कर दिए थे। मुझे इनसे अरुचि थी। इनके अनिवार्य बनने से पहले मैं कभी कसरत, क्रिकेट या फुटबाल में गया ही न था। न जाने का मेरा शरमीला स्वभाव ही एकमात्र कारण था। अब मैं देखता हूँ कि वह अरुचि मेरी भूल थी। उस समय मेरा यह गलत खयाल बना रहा कि शिक्षा के साथ कसरत का कोई संबंध नहीं है। बाद में मैं समझा कि विद्याभ्यास में व्यायाम का, अर्थात शारीरिक शिक्षा का, मानसिक शिक्षा के समान ही स्थान होना चाहिए।फिर भी मुझे कहना चाहिए कि कसरत में न जाने से मुझे नुकसान नहीं हुआ। उसका कारण यह रहा कि मैंने पुस्तकों में खुली हवा में घूमने जाने की सलाह पढ़ी थी और वह मुझे रुची थी। इसके कारण हाईस्कूल की उच्च कक्षा से ही मुझे हवाखोरी की आदत पड़ गई थी। वह अंत तक बनी रही। टहलना भी व्यायाम ही है, इससे मेरा शरीर अपेक्षाकृत सुगठित बना। अरुचि का दूसरा कारण था, पिताजी की सेवा करने की तीव्र इच्छा। स्कूल की छुट्टी होते ही मैं सीधा घर पहुँचता और सेवा में लग जाता। जब कसरत अनिवार्य हुई, तो इस सेवा में बाधा पड़ी। मैंने विनती की पिताजी की सेवा के लिए कसरत से छुट्टी दी जाये। गीमी साहब छुट्टी क्यों देने लगे? एक शनिवार के दिन सुबह का स्कूल था। शाम को चार बजे कसरत के लिए जाना था। मेरे पास घड़ी नहीं थी। बादलों से धोखा खा गया। जब पहुँचा तो सब जा चुके थे। दूसरे दिन गीमी साहब ने हाजिरी देखी, तो मैं गैर-हाजिर पाया गया। मुझसे कारण पूछा गया। मैंने सही-सही कारण बता दिया उन्होंने उसे सच नहीं माना और मुझ पर एक या दो आने (ठीक रकम का स्मरण नहीं है) का जुर्माना किया। मुझे बहुत दुख हुआ। कैसे सिद्ध करूँ कि मैं झूठा नहीं हूँ। मन मसोसकर रह गया। रोया। समझा कि सच बोलनेवालों को गाफिल भी नहीं रहना चाहिए। अपनी पढ़ाई के समय में इस तरह की मेरी यह पहली और आखिरी गफलत थी। मुझे धुँधली सी याद है कि मैं आखिर यह जुर्माना माफ करा सका था।मैंने कसरत से तो मुक्ति कर ही ली। पिताजी ने हेडमास्टर को पत्र लिखा कि स्कूल के बाद वे मेरी उपस्थिति का उपयोग अपनी सेवा के लिए करना चाहते है। इस कारण मुझे मुक्ति मिल गई।व्यायाम के बदले मैंने टहलने का सिलसिला रखा, इसलिए शरीर को व्यायाम न देने की गलती के लिए तो शायद मुझे सजा नहीं भोगनी पड़ी, पर दूसरी गलती की सजा मैं आज तक भोग रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि पढ़ाई मे सुंदर लेखन आवश्यक नहीं है, यह गलत खयाल मुझे कैसे हो गया था। पर ठेठ विलायत जाने तक यह बना रहा। बाद में, और खास करके, जब मैंने वकीलों के तथा दक्षिण अफ्रीका में जन्में और पढ़े-लिखे नवयुवकों के मोती के दानों-जैसे अक्षर देखे तो मैं शरमाया और पछताया। मैंने अनुभव किया कि खराब अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी मानी जानी चाहिए। बाद में मैंने अक्षर सुधारने का प्रयत्न किया, पर पके घड़े पर कहीं गला जुड़ता है? जवानी में मैंने जिसकी उपेक्षा की, उसे आज तक नहीं कर सका। हर एक नवयुवक और नवयुवती मेरे उदाहरण से सबक ले और समझे कि अच्छे अक्षर विद्या का आवश्यक अंग हैं। अच्छे अक्षर सीखने के लिए चित्रकला आवश्यक है। मेरी तो यह राय बनी है कि बालकों को चित्रकला पहले सिखानी चाहिए। जिस तरह पक्षियों, वस्तुओं आदि को देखकर बालक उन्हें याद रखता है और आसानी से उन्हें पहचानता है, उसी तरह अक्षर पहचानना सीखे और जब चित्रकला सीखकर चित्र आदि बनाने लगे तभी अक्षर लिखना सीखे, तो उसके अक्षर छपे अक्षरों के समान सुंदर होंगे। ईस समय के विद्याभ्यास के दूसरे दो संस्मरण उल्लेखनीय है। विवाह के कारण जो एक साल नष्ट हुआ, उसे बचा लेने की बात दूसरी कक्षा के शिक्षक ने मेरे सामने रखी थी। उन दिनों परिश्रमी विद्यार्थो को इसके लिए अनुमति मिलती थी। इस कारण तीसरी कक्षा में छह महीने रहा और गरमी की छुट्टियों से पहले होनेवाली परीक्षा के बाद मुझे चौथी कक्षा मे बैठाया गया। इस कक्षा से थोड़ी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से होनी थी। मेरी समझ में कुछ न आता था। भूमिति भी चौथी कक्षा से शुरू होती थी। मै उसमें पिछड़ा हुआ था ही, तिस पर मैं उसे बिलकुल समझ नहीं पाता था। भूमिति के शिक्षक अच्छी तरह समझाकर पढ़ाते थे, पर मैं कुछ समझ ही न पाता था। मै अकसर निराश हो जाता था।कभी-कभी यह भी सोचता कि एक साल में दो कक्षाएँ करने का विचार छोड़कर मैं तीसरी कक्षा मे लौट जाऊँ। पर ऐसा करने में मेरी लाज जाती, और जिन शिक्षक ने मेरी लगन पर भरोसा करके मुझे चढ़ाने की सिफारिश की थी उनकी भी लाज जाती। इस भय से नीचे जाने का विचार तो छोड़ ही दिया। जब प्रयत्न करते-करते मैं युक्लिड के तेरहवें प्रमेय तक पहुँचा, तो अचानक मुझे बोध हुआ कि भूमिति तो सरल से सरल विषय है। जिसमें केवल बुद्धि का सीधा और सरल प्रयोग ही करना है, उसमें कठिनाई क्या है? उसके बाद तो भूमिति मेरे लिए सदा ही सरल और सरस विषय बना रहा।भूमिति की अपेक्षा संस्कृत ने मुझे अधिक परेशान किया। भूमिति में रटने की कोई बात थी ही नहीं, जब कि मेरी दृष्टि से संस्कृत में तो सब रटना ही होता था। यह विषय भी चौथी कक्षा में शुरू हुआ था। छठी कक्षा में मैं हारा। संस्कृत के शिक्षक बहुत कड़े मिजाज के थे। विद्यार्थियों को अधिक सिखाने का लोभ रखते थे। संस्कृत वर्ग और फारसी वर्ग के बीच एक प्रकार की होड़ रहती थी। फारसी सिखानेवाले मौलवी नरम मिजाज के थे। विद्यार्थी आपस में बात करते कि फारसी तो बहुत आसान है और फारसी सिक्षक बहुत भले हैं। विद्यार्थी जितना काम करते हैं, उतने से वे संतोष कर लेते हैं। मैं भी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी वर्ग में जाकर बैठा। संस्कृत शिक्षक को दुख हुआ। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा : 'यह तो समझ कि तू किनका लड़का है। क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा? तुझे जो कठिनाई हो सो मुझे बता मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूँ। आगे चल कर उसमें रस के घूँट पीने को मिलेंगे। तुझे यों तो हारना नहीं चाहिए। तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ।' मैं शरमाया। शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर सका। आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर मास्टर का उपकार मानती है। क्योंकि जितनी संस्कृत मैं उस समय सीखा उतनी भी न सीखा होता, तो आज संस्कृत शास्त्रों का मैं जितना रस ले सकता हूँ उतना न ले पाता। मुझे तो इस बात का पश्चाताप होता है कि मैं अधिक संस्कृत न सीख सका। क्योंकि बाद में मैं समझा कि किसी भी हिंदू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किए बिना रहना ही न चाहिए। अब तो मैं यह मानता हूँ कि भारतवर्ष की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में मातृभाषा के अतिरिक्त हिंदी, संस्कृत, फारसी, अरबी और अंग्रेजी का स्थान होना चाहिए। भाषा की इस संख्या से किसी को डरना नहीं चाहिए। भाषा पद्धतिपूर्वक सिखाई जाए और सब विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से सीखने-सोचने का बोझ हम पर न हो, तो ऊपर की भाषाएँ सीखना न सिर्फ बोझरूप न होगा, बल्कि उसमें बहुत ही आनंद आएगा। और जो व्यक्ति एक भाषा को शास्त्रीय पद्धति से सीख लेता है, उसके लिए दूसरी का ज्ञान सुलभ हो जाता है। असल में तो हिंदी, गुजराती, संस्कृत एक भाषा मानी जा सकती हैं। इसी तरह फारसी और अरबी एक मानी जाएँ। यद्यपि फारसी संस्कृत से मिलती-जुलती है और अरबी का हिब्रू से मेल है, फिर भी दोनों का विकास इस्लाम के प्रकट होने के बाद हुआ है, इसलिए दोनों के बीच निकट का संबंध है। उर्दू को मैंने अलग भाषा नहीं माना है, क्योंकि उसके व्याकरण का समावेश हिंदी में हो जाता है। उसके शब्द फारसी और अरबी ही हैं। उँचे दर्जे की उर्दू जाननेवाले के लिए अरबी और फारसी का ज्ञान जरूरी है, जैसे उच्च प्रकार की गुजराती, हिंदी, बँगला, मराठी जाननेवाले के लिए संस्कृत जानना आवश्यक है।_सत्य ना प्रयोगों ‹ Previous Chapterसत्य ना प्रयोगों - भाग 3 › Next Chapter सत्य ना प्रयोगों - भाग 5 Download Our App