Mamta ki Pariksha - 128 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 128

Featured Books
Categories
Share

ममता की परीक्षा - 128



कहते हुए गोपाल की आँखें जैसे कहीं शून्य में स्थिर हो गई हों ....मान और अपमान के बीच झूला झूलते और पल पल शर्मिंदगी के साथ मन में उठ रहे भावों से समझौता करके तिल तिल मरने का अहसास लिए अमेरिका में बिताया एक एक पल किसी फिल्म की रील की मानिंद उसकी आँखों के सामने नृत्य करने लगा और वह पूरा दृश्य जमनादास को यूँ सुनाने लगा जैसे संजय ने धृतराष्ट्र को महाभारत युद्ध का आँखों देखा हाल ज्यों का त्यों सुना दिया था।
अपनी बात शुरू करने से पहले गोपाल ने सभी नौकरों को वहाँ से हटा दिया था।

जमनादास उसकी बेबसी व मजबूरियों के साथ ही उसकी पत्नी सुशीला की अय्याशियों के किस्से सुनकर स्तब्ध रह गया था। ऐसे में सुशीला के पिता सेठ अंबादास का अपनी बेटी को प्रश्रय व उसको बढ़ावा देने का किस्सा सुनकर तो वह शर्म व क्षोभ से भर उठा।
'उफ्फ ! ऐसे पिता भी हो सकते हैं ? यह तो कल्पना से ही परे है। अरे माना कि वह विदेशी भूमि थी, लेकिन इनके संस्कार भी क्या विदेशी हो गये थे ? क्या इनकी आत्मा भी विदेशी हो गई थी ? क्या इन्हें अपने किए की कोई शर्मिंदगी नहीं ? ' जैसी बातें सोचते हुए जमनादास ने गोपाल की तरफ देखा जो अभी अभी अपने आँसुओं को पोंछकर रुमाल अपनी जेब के हवाले कर रहा था।

"खैर, ये तो हुई मेरी रामकहानी ! अब अपनी सुना ! कैसा है तू ? भाभी कहाँ है ? बच्चे कितने हैं ? कैसे हैं ?" गोपाल ने अधीरता से पूछा।

"मैं ठीक हूँ गोपाल, और कुदरत ने जब हमें फिर से एक बार मिला ही दिया है तो हम दोनों दोस्त मिलकर बिता वक्त भले न वापस ला पाएँ, लेकिन जो बिगड़ा है उसे अवश्य बना लेंगे। अब मैं कहीं नहीं जा रहा हूँ। इत्मीनान रख, तुझे तेरे सारे सवालों का जवाब मिल जाएगा। पहले तो तुझे वह खुशखबरी दे दूँ जिसका तुझे वर्षों से इंतजार रहा होगा.......!"
जमनादास अभी आगे कुछ और कहने ही जा रहा था कि उसकी बात बीच में ही काटते हुए अधीरता से गोपाल लगभग चीख ही पड़ा था, "क्या ...? खुशखबरी .…?"
और फिर अचानक उदास होते हुए बोल पड़ा, "ये कंबख्त खुशखबरी शब्द तो अब मुझे चिढ़ाते हुए से लगते हैं जमना। मेरी खुशियाँ तो मेरी साधना के साथ ही मुझसे रूठ गई हैं ! अब साधना के बिना मेरे लिए बड़ी से बड़ी खुशी भी बेमानी होगी। वक्त के बेरहम थपेड़ों से बेजार मेरे इस ठूँठ रूपी जीवन में अगर खुशियाँ नाम की कोंपलें कभी फुट सकती हैं तो अवश्य उन कोंपलों का नाम साधना ही होगा ! नहीं तो बदरंग, बेरंग और ठूँठ सी दिखनेवाली मेरी जिंदगी का यह सूखा तरुवर किसी दिन वक्त के थपेड़ों के आगे झुककर टूट जाएगा और मिट्टी में मिलकर खो देगा अपना अस्तित्व हमेशा हमेशा के लिए !" कहते हुए गहरी निराशा के साथ ही मन की वेदना भी उसके शब्दों से झलक रही थी।

सुनते ही अमर और बिरजू भी चौंक पड़े थे और उस कृषकाय मगर सख्त से दिखनेवाली काया में छिपे कोमल से हृदय को पहचानने का प्रयास कर रहे थे।

इधर गोपाल की अवस्था देखकर आँखों में तैरनेवाले आँसुओं को बड़ी मुश्किल से जज्ब करके होठों पर जबरदस्ती मुस्कान लाने का प्रयास करते हुए जमनादास बोला, "मैं समझ सकता हूँ मेरे दोस्त और इसीलिए यह बताते हुए बड़ी खुशी हो रही है कि ये खुशखबरी भी साधना से संबंधित ही है।" अपनी बात कहते हुए जमनादास ने बड़े अपनेपन से गोपाल के कंधे पर हाथ रखा। वह यहीं पर नहीं रुका, बल्कि उसने आगे अपनी बात जारी रखी, "मैं साधना भाभी से मिल चुका हूँ गोपाल !"

इतना सुनते ही जैसे गोपाल पागल हो उठा हो, अपने दोनों हाथों से जमनादास के दोनों कंधों पर हाथ रखकर उन्हें बेसब्री से लगभग झिंझोड़ते हुए गोपाल चीख ही तो पड़ा था, "क्या .....? तू मिल चुका है मेरी साधना से ?.. कहाँ है वह ? कैसी है ?" और फिर आननफानन उठकर खड़े होते हुए जमनादास का हाथ पकड़कर बोला, "अब और देर न कर मेरे दोस्त ! चल, जल्दी से मुझे ले चल मेरी साधना के पास। मैं समझ सकता हूँ मेरे बिना कितना तड़पी होगी, कैसे रोज मर मर कर जिंदा रही होगी वह। मेरा गुनाह माफी के लायक तो बिल्कुल भी नहीं, लेकिन मुझे यकीन है कि वह देवी मुझे अवश्य माफ कर देगी। चल भाई, अब सब्र नहीं हो रहा। मैं जल्द से जल्द उसे देख लेना चाहता हूँ, उससे माफी माँगकर अपनी उस वादाखिलाफी का प्रायश्चित कर लेना चाहता हूँ जो वादा मैंने उससे अग्नि के गिर्द सात फेरे लेते हुए किया था।" कहते हुए गोपाल खुद पर काबू नहीं रख सका और धीरे से सोफे पर बैठकर किसी छोटे बच्चे की मानिंद फुट फ़ूटकर बिलख पड़ा। शायद अचानक मिली खुशी को वह सँभाल नहीं सका था।

उसे बिलखता देखकर पहले से ही भरी हुई जमनादास की आँखें भी गंगा जमुना की धार बरसाने लगी थीं। दोनों मित्रों के रुदन से अमर के कठोर हृदय ने भी द्रवित होकर उसकी आँखों को बहने की इजाजत दे दी थी।

अमर के मन में भावनाओं का बवंडर मचा हुआ था। गोपाल को लेकर उसके अंतर्मन में जबरदस्त संघर्ष मचा हुआ था। उसके मन में अनदेखे गोपाल की अपराधी व अपने मम्मी का गुनहगार होने की छवि अब धूमिल होकर प्रत्यक्ष दिख रहे सहृदय व सुकोमल दिल के मालिक व विलक्षण व्यक्तित्व के धनी गोपाल में तब्दील हो रही थी। गोपाल के लिए उसके दिल में जमी नफरत पिघलकर उसकी आँखों के रास्ते आँसुओं के रूप में बाहर निकल रही थी और साथ ही धुल रही थी गोपाल की गंदी छवि जो इतने दिनों से उसके दिलोदिमाग में गहरे जमी हुई थी। उसकी आँखों से बहनेवाले आँसुओं की धार गोपाल की छवि को और साफसुथरा व निर्मल बना रहे थे।
अपने आपको संयत करते हुए जमनादास गोपाल से लिपट पड़ा और उसके आँसू पोंछते हुए कहने लगा, "ऐसा मत कह मेरे यार ! तुम दोनों की इस प्रेम कहानी में वक्त और नसीब के अलावा अगर कोई इंसान खलनायक है तो वह मैं ही हूँ ! अंजाने में ही सही लेकिन भूल तो मुझसे ही हुई है, और जानता हूँ यह भूल माफी के लायक नहीं है...और फिर किस मुँह से तुझसे माफी की माँग करूँ ? फिर भी चाहूँगा दोस्त हो सके तो मुझे माफ़ कर देना !" कहते हुए जमनादास जी अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए गोपाल के सामने घुटनों पर झुक गए थे, लेकिन अगले ही पल गोपाल ने उन्हें कंधे से पकड़कर अपने सीने से लगा लिया।

भावविह्वल गोपाल कुछ कहना चाहता था लेकिन स्वर उसके गले से बाहर न निकल सके।
भावावेश में जमनादास ने आगे कहना जारी रखा, "मुझे अच्छी तरह पता है अब वो सुहाने दिन तो मैं तुम दोनों की जिंदगी में वापस लौटा नहीं सकता, लेकिन तुम दोनों को मिलाकर अपने दिल का बोझ कुछ कम अवश्य कर सकता हूँ। मैं अपने किये की प्रायश्चित करना चाहता हूँ।"

क्रमशः