Prem Gali ati Sankari - 8 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 8

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प्रेम गली अति साँकरी - 8

खासा लंबा समय लगा उन काँटों की चुभन को छुड़ा पाने में | समय के काँटे सबके दिलों में चिपक गए थे लेकिन ज़िंदगी जब तक होती है, उसका मोह कहाँ छूटता है? उसके कर्तव्य कहाँ छूटते हैं ? उसकी रोजाना की तकलीफ़ें कहाँ छूटती हैं ? वे तो चंदन वृक्ष पर सर्प सी लिपटी रहती हैं | सर्प अपना काम करते हैं, चंदन अपनी महक फैलाने का !

दिव्य बार-बार अपने पिता जगन से पूछता कि वह पढ़ाई के साथ अगर संगीत की शिक्षा भी ले लेता तो उसका भविष्य सुधर जाता | मुझे भी हमेशा ऐसा ही लगा है कि कोई भी चीज लादने से इतनी फलदाई नहीं होती जितनी मन से की हुई वह चीज़ जिसमें खुद का इनवॉलवमेंट हो | दिव्य की अनुभूति को वही समझ पाता था जो उसकी रूहानी शख्सियत से बाबस्ता होता, उसका शराबी बाप नहीं जो उसकी माँ रतनी को किसी के सामने भी बाल खींचकर पीटने को तैयार ही रहता | किसी के बीच में पड़ने से दो-चार मुक्के तो उसको भी लगने स्वाभाविक ही थे। पीए हुए हाथ के पड़ने से जबड़ा न टूटे, इसकी क्या गारंटी थी ? जगन के घर में घुसते ही माहौल ऐसा हो जाता जैसे कोई राक्षस को दूर से ही देखकर लोग इधर-उधर छिपने लगते हों, वैसे तो अधिकतर उसके घर में लौटने के समय तक सब सो ही चुके होते, हाँ शीला दीदी भाई की चिंता में करवटें बदलतीं | 

उसका घर में घुसते ही खाना माँगना जिसके लिए बेचारी रतनी जागकर उसकी प्रतीक्षा में झटोके खा रही होती | दो छोटे कमरों, रसोई, बाथरूम का छोटा सा मकान था जिसमें एक में तो सब सिमटे-सिकुड़े पड़े रहते, दूसरा घर के उस मालिक का था जो शायद ही रात में कभी होश में घर में घुसता हो | खाना खाकर वह झूमता हुआ बीबी को ऑर्डर देता “जल्दी आना, मेरी आँख न लग जाए कहीं –” रतनी बेचारी चुप रहती तो डपटकर कहता ;

“ए---सुना कि नहीं, बहरी तो नहीं हो गई–साला–रात को मरद थका मांदा आए और ये महारानी रसोई समेटने के बहाने उसके सोने का इंतजार करती रहे | तुझे कोई और मिल जाता है क्या ? जरूरत तेरी भी है कि नहीं ---?” ऐसे ऐसे संवाद सुनकर रतनी का दिल कहीं डूब मरने का हो आता | शोर मचाने की स्थिति में तो वो कभी भी नहीं रही | शुरू-शुरू में जब वह प्रेम में नहाई हुई नव-कलिका सी पति के इंतज़ार में रहती तब भी वह उसे एक प्रकार से घसीटता हुआ ले जाकर कमरे में बंद कर पलंग पर पटक देता और अपनी हवस शांत करके एक तरफ़ को लुढ़क जाता | वह बेचारी डर के मारे रोना भी भूल गई थी और ऐसे ही ये दो बच्चे उसके पेट में आ गए थे | कहने को वह शादीशुदा थी लेकिन उसे लगता वह एक पत्नी नहीं है बाजारू औरत है | फ़र्क इतना था कि बाजारू औरत के शरीर को कोई भी नोच सकता था और वह कम से कम पैसों से तो अपने शरीर को बेचती है, उसकी जेब तो भरी रहती, वह अपनी जरूरतें तो पूरी करती | यहाँ तो वह दो जून रोटी और बिलाँद भर की छत के लिए अपने शरीर को रौंदवा रही थी, दो बच्चों को ढो रही थी और कुछ प्यार या सहानुभूति पाना तो दूर, चूँ-चपेट करने का भी उसे कोई अधिकार नहीं था| समाज का ठप्पा जो लगा था उसके रिश्ते पर!जगन उसे कैसे ही, कभी भी अपनी इच्छानुसार पटककर भोग सकता था, वह उसके अधिकार-क्षेत्र से जुड़ा था | 

शीला दीदी अपने प्यार के बारे में रतनी से साझा करती थीं लेकिन कसाई भाई के डर के कारण वह कुछ नहीं कर पा रही थी| अगर वह कोई कदम उठाती भी तो उसके बाद रतनी और दोनों बच्चों पर क्या बीतती ? सामने संस्थान में काम करने के बहुत दिनों के बाद तक तो दोनों भाभी-ननद ने जगन को खबर ही नहीं लगने दी लेकिन जब उसे पता चल तब कैसी हत्या मचाई थी उसने ! फिर जब देखा कि खासा पैसा घर में आ रहा था, उसने अपनी मुट्ठी और कस ली | अब क्या है, करेंगी दोनों मिलकर ! जगन और भी बेशर्म हो गया था | कितनी बार रतनी सोचती कि जगन को अपने शरीर की भूख के बारे में पता है, उससे भी वह पूछ सकता है, बेशक व्यंग्य में ही सही कि उसकी शरीर की भूख कोई और पूरी करता है क्या ? उसकी नज़र अपनी बहन पर क्यों नहीं पड़ती ? क्या उसकी निगाह में वह मिट्टी की माधो है?उसकी न तो मन की ज़रूरतें हैं, न ही तन की !

दादी के बाद वे दोनों महिलाएँ जैसे अनाथ सी हो गईं | एक दादी ही थीं जो उन दोनों की प्रोटेक्टर बनी रहती थीं | जब भी पैसे-धेले की ज़रूरत पड़ती, दादी हाजिर थीं | अम्मा भी उन्हें बहुत मानती थीं लेकिन वे दोनों ही अम्मा से इतनी खुली हुई नहीं थीं जितनी दादी से| दादी को खोने के बाद अम्मा का संभलना सबसे कठिन था लेकिन उस समय शीला दीदी और रतनी ने उन्हें संभाला, घर को संभाला | यूँ तो घर में काम करने वाले कई सेवक थे लेकिन ये दोनों सेवक नहीं थीं, परिवार के सदस्य सी हो गईं थीं जिन्हें काफ़ी कुछ चीज़ें वे भी मालूम थीं जो हमें तक नहीं मालूम थीं | अम्मा को खड़े तो होना ही था, उन्हें अब अपने संस्थान के साथ अपने उदास पति को अधिक समय देने की ज़रूरत थी| मैं उस समय पोस्ट-ग्रेजुएशन कर रही थी | शिक्षा के साथ अम्मा ने शुरू से ही मुझे नृत्य और गायन में भी शिक्षित करवाया था| वैसे माँ शारदा की असीम कृपा मुझ पर भी थी लेकिन मैं कला के प्रति बहुत गंभीर नहीं थी | अम्मा की वजह से मुझे संस्थान से जुड़े रहना पड़ा जो आज अम्मा के कमज़ोर पड़ने पर काम आ रहा था | मैं अम्मा के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी थी और उनका सहारा बनने की कोशिश कर रही थी | 

मैं चाहती थी कि दिव्य संगीत की ट्रेनिंग जरूर ले सके जिससे उसका डिप्रेशन दूर हो सके | शीला दीदी ने बताया था कि वह अपने पिता के व्यवहार से बहुत उदास हो गया है| कितनी गलत बात है, जिस बच्चे को प्यार-दुलार मिलना चाहिए था उसके प्रति उसका पिता न केवल उदासीन बल्कि कठोर भी था| इतना कठोर कि बच्चे उसके सामने आने से घबराते थे | किसी तरह से वह जगन से डरते हुए पूछता लेकिन जगन अपने होशो हवास में होता तब न उसको कुछ सही उत्तर दे पाता | वह तो हमेशा घोड़े पर सवार रहता था और उसके लिए नृत्य-संगीत कलाएँ नहीं, गालियाँ थीं| 

उम्र के तकाज़े बड़े ही अजीब होते हैं, व्याख्याएँ भी अजीब होती हैं यानि जिस बात को एक समय हम सही समझते हैं, उसी बात का विरोध करने में हमें समय नहीं लगता| उम्र के भिन्न मोड़ों के साथ हमारी चिंतनशीलता नए नए मापदंड तैयार करने लगती है | मैं, जो शीला दीदी को कभी भी पसंद नहीं करती थी, न जाने क्यों ? शायद उस मुहल्ले के कारण जिसमें वे मजबूरी में रहती थीं, उन्हें देखते ही अजीब सा मुँह बनाने लगती थी जबकि दादी मुझे बहुत समझाया करती थीं कि मेरा वह व्यवहार किसी भी तरह से उचित नहीं था| वैसे मैं न तो नकचढ़ी थी, न ही लोगों को आसानी से नापसंद करती थी | कुछ ऐसा था उस मुहल्ले में जिसने मेरे मन पर कुछ ऐसी छाप छोड़ी थी कि मुझे शोर-शराबे से तकलीफ़ होती | जाने क्यों मेरा मन दिव्य और उसकी छोटी बहन डॉली की ओर लगा रहता | 

दादी के जाने के बाद जब शीला दीदी और रतनी ने अम्मा को संभाला तब मुझे इस बात का अहसास अधिक हुआ कि वे हमारे परिवार के लिए कितनी जरूरी थीं और दरसल हमारे सारे रिश्तेदारों से अधिक वे हमारे लिए महत्वपूर्ण थीं | जहाँ वे सब हर बात पर व्यंग्य के अलावा सलीके से बात ही नहीं कर सकते थे, वे दोनों हमारी हर ज़रूरत के लिए खड़ी दिखाई दीं थीं | 

अम्मा ने दिव्य से कहा था कि वह संगीत कक्षा में आया करे और पंडित जी के साथ रियाज़ किया करे | अम्मा को भी लगता, बार-बार लगता कि दिव्य जैसे कंठ की स्वर-साधन न होने देना माँ शारदा का अपमान था |