घर में सन्नाटा पसर गया | दादी का जाना जैसे एक वट-वृक्ष का जड़ से कट जाना ! पहले तो उ.प्रदेश से काफ़ी रिश्तेदारों की गहमा-गहमी रही | कालिंदी के व्यवहार से तो पहले ही रिश्तेदार चकित रहा करते थे | अब सास के लिए इतना दुखी होते हुए देखकर बहुत से रिश्तेदार तो आश्चर्य ही कर रहे थे कि उनके परिवार की कोई भी बहुएँ ऐसी प्यार, सम्मान देने वाली और सुगढ़ न थीं जैसी ये मद्रासन निकली थी| पापा बताया करते थे कि उनकी शादी में उनके रिश्तेदारों ने कितने मुँह बनाए थे | उन्हें पापा गोरे लगते और अम्मा साँवली और वे यह भी कहने से न चूकते कि –“बिल्ली के भागों छींका टूट गया --” दादी को इस बात से इतनी चिढ़ लगती कि उनके मुँह से बार-बार निकल जाता कि वे अपने घर में चॉक से पुती हुई बहू लेकर आएँ, हमारी तो साँवली ही भली | जिस पर सारे रिश्तेदार चिढ़ गए थे | दादा जी तो थे नहीं दादी की तरफ़दारी करने वाले लेकिन दादी के स्वभाव के कारण उनके पास बहुत से लोग हमेशा उनकी सहायता के लिए बने रहते |
दादी के होते अम्मा को न तो अपने संस्थान की चिंता रहती और न ही घर की | सामने वाले मुहल्ले के हमेशा वही हाल रहे | शीला दीदी और रतनी घर पर आते-जाते रहे| दादी के पास काम करने वालों की कोई कमी न थी लेकिन शीला दीदी और रतनी के आने से दादी को जो तसल्ली मिलती थी, उससे अम्मा को और भी मानसिक संतुष्टि मिलती, वे रिलेक्स रहतीं | शीला दीदी का गला तो बहुत मीठा था ही लेकिन दिव्य यानि उनके भतीजे का तो कमाल ही था | माँ वीणापाणि ने उन दोनों पर अपना आशीष ऐसे बरसा रखा था कि यदि वो लोग उस मुहल्ले में न रहते और उन्हें सही मार्ग दर्शन मिल जाता तो न जाने तो कोई सोच ही नहीं सकता था कि वे किसी अच्छे, सभ्य परिवार के नहीं हैं| देखा जाए तो शीला जीजी के निकम्मे भाई के अलावा सभी बहुत अच्छे व सलीके वाले थे लेकिन कहते हैं न कि घर के सबसे बड़े सदस्य से ही परिवार का नाम चलता है और हमेशा जुड़ा रहता है| हमारे समाज की यही सच्चाई है |
दादी ने बताया तो था कि शीला जीजी का उनसे कैसे परिचय हुआ था, अब तो मुझे याद भी नहीं है| हाँ, अम्मा के कला-संस्थान में वे अपने छोटे से भतीजे को संगीत की शिक्षा दिलाना चाहती थीं, यह अम्मा ने बताया था | अम्मा का संस्थान कई कलाओं के जुड़ाव से खूब प्रसिद्धि पा चुका था| इसके लिए कोठी से पीछे की खाली पड़ी ज़मीन खरीद ली गई थी और वहाँ पर एक बड़ी बिल्डिंग खड़ी हो गई थी | अम्मा के इस संस्थान में प्रवेश करने का रास्ता भी पीछे वाली बड़ी सड़क की ओर से निकलवाया गया था जिससे आगे के, सामने वाली गली में बसने वालों का प्रभाव उस संस्थान में आने वालों के ऊपर न पड़े, उन्हें संस्थान में आने में कोई हिचक न हो| आखिर ‘क्लासी लोगों की क्लासी बातें’ !
बरसों बीत चुके थे कला संस्थान को दिल्ली में अपना ऊँचा स्थान बनाए हुए | दिल्ली के अधिकतर पौष एरिया के लोग इस कला-संस्थान में प्रवेश लेने के लिए पंक्ति में खड़े रहते | इस संस्थान में प्रवेश लेना एक सपना सा होता कला-विद्यार्थियों के लिए ! दिव्य जैसे बड़ा होता जा रहा था, वैसे–वैसे संस्थान बुलंदियों पर पहुँच रहा था | शीला दीदी एक स्कूल में पढ़ाती थीं और उनकी भाभी रतनी आस-पड़ौस से सिलाई के कपड़े लाकर सिलाई करती थीं और मिलकर घर व दोनों बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करतीं | दादी के पास आते-आते शीला दीदी को अम्मा ने कितनी बार अपने संस्थान के लिए कुछ काम भी करवाए, जिन्हें वे पूरी लगन व अपनत्व से करतीं |
दादी ने अम्मा से बात की थी और रतनी के हाथ में सिलाई की सफाई देखते हुए एक बड़ा निर्णय लेने का निश्चय किया था | संस्थान के कलाकारों के लिए जो ड्रेसेज़ सिलवाई जाती थीं, वे बहुत प्रसिद्ध डिज़ाइनर्स से सिलवाई जाती थीं | जो पैसे तो मनमाने लेते ही थे, नखरे भी बहुत करते थे | किसी फ़ंक्शन पर ड्रेस तैयार न होने पर कभी-कभी अम्मा टेंशन में भी आ जाती थीं | दादी ने अम्मा से कहा था कि क्यों न रतनी को सिलाई की ट्रेनिंग दिलवाई जाए? उन्हें रतनी में टेलेंट नज़र आता और महसूस होता कि यह बिना किसी ट्रेनिंग के इतना अच्छा काम कर सकती है, यदि ट्रेनिंग मिल जाए तो उस मुहल्ले के छोटे-मोटे कपड़ों की जगह वह कुछ ऐसे परिवारों से भी जुड़ सकती है जो उसे कुछ बेहतर काम दे सकें और जब वह काम समझ जाएगी तब वह संस्थान की पोषाकें भी सिल सकेगी |
शीला दीदी जिस स्कूल में पढ़ाती थीं, उसमें उनसे अधिक पैसों पर साइन करवाकर मुट्ठी भर पारिश्रमिक पकड़ा दिया जाता | हद थी ऐसे सिस्टम की, वह अक्सर दादी के पास ही आती थीं और दादी से सारी बातें साझा करती थीं| अम्मा के पास तो समय ही नहीं होता था। उन्हें पापा को भी समय देना होता वरना पापा का गाना शुरू हो जाता कि उनकी पत्नी उन्हें प्यार ही नहीं करती | जबकि वे अम्मा के संस्थान के प्रति बहुत संवेदनशील थे और अपनी पत्नी यानि अम्मा पर गर्वित ! हर पंद्रह दिन में कहने लगते कि ‘हमें डेट पर जाना चाहिए’, बहुत जरूरी है | यह क्या हुआ कि शादी हुई, बच्चे हुए और रोमांस ने ज़िंदगी से टाटा, बाय-बाय कर दिया !’ हम सब उनके इस अंदाज़ पर खूब हँसते और दादी अपने बेटे यानि पापा को सपोर्ट करतीं कि ठीक ही तो कह रहा है, शादी के बाद संबंधों को नए सिरे से जीना कितना जरूरी होता है, रिफ्रेश करना बहुत जरूरी है| काम-काम में ताउम्र लड़ते रहो और ज़िंदगी कब किनारे पर आ लगे, कुछ पता ही न चले | उनका और दादा जी का वैवाहिक जीवन भी रोमांस से भरपूर रहा था | हमने अपने किसी और मित्र के यहाँ उनके माँ-पापा के बीच ऐसी गहरी मुहब्बत नहीं देखी थी | हमें बहुत अच्छा भी लगता और कभी–कभी अजीब भी | दादी तो गज़ब ही थीं, उनकी और उनके साथ बहू के रिश्ते की तो नज़र ही उतारते रहो, कुछ ऐसी ! लेकिन दादी को न जाने किसकी नज़र लग ही गई और अम्मा हकबकी सी खड़ी रह गईं, आँखों में आँसू लिए मुँह बाए !
समय मिलने पर अम्मा और दादी के बीच में काफ़ी सारी बातें तय हो जाती थीं| दादी के कहने से ही अम्मा ने शीला दीदी को संस्थान के मैनेजर के पद पर रख लिया था | शीला दीदी ने बहुत अच्छी प्रकार से संस्थान का कार्यभार संभाल लिया जिससे अम्मा का स्ट्रेस काफ़ी हल्का हो गया था| दादी के सुझाव अम्मा के लिए कितने उपयोगी होते कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक साधारण शिक्षित स्त्री अपने अनुभवों व अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के सही प्रयोग से चीजों को किस प्रकार संभाल सकती थीं | अम्मा दादी पर कितना गर्व करती थीं, अपनी बहू का संस्थान, अपने बेटे की दोस्ताना मुहब्बत में दोनों को सराबोर देखकर दादी का पेट जैसे ज़रूरत से ज्यादा भरा रहता था|
जो पूरा सैटिंग करती थीं, जिनके बिना मेरी अम्मा को अपना अस्तित्व ही अधूरा लगता था, उनका इस तरह अचानक ही अपनी यात्रा के लिए सुदूर निकल लेना, यूँ तो सभी के लिए आधात था लेकिन अम्मा के लिए तो गाज गिरने के समान प्रकृति का भयंकर प्रकोप था | पापा के लिए भी कम आधात तो नहीं था, लेकिन उन्होंने अम्मा को संभालने में अपना पूरा जतन कर लिया था फिर भी वे टूटने की कगार पर आ खड़ी हुई थीं | दादी अम्मा के लिए फ्रैंड, फ़िलॉस्फर, गाइड –क्या नहीं थीं ?
वो ही तो थीं जो अम्मा–पापा में मध्यस्थ हो उनके प्रेम को तरोताज़ा बनाए रखने में सक्षम थीं | कैसे-कैसे बहाने बनाकर वे अम्मा-पापा को जैसे नव-विवाहित जोड़ा बनाए रखना चाहती थीं | वास्तव में यह अनमोल रिश्ता था जो शायद ही कहीं देखा जाता हो | रतनी और शीला दीदी भी एक प्रकार से परिवार का अंग दादी के कारण ही बनी थीं | जिससे अम्मा की सहूलियत में और वृद्धि ही हुई थी | दादी की इच्छा थी कि यह परिवार किसी तरह वह मुहल्ला छोड़ सके तो अच्छा था | इसके लिए अपनी सोसाइटी के पीछे बने हुए दो बैड-रुमज़, हॉल के नए एपार्टमेंट्स में दादी शीला दीदी को लेजाकर कुछ पैसे भरकर एक एपार्टमेंट बुक भी कर आईं थीं | ये अभी बन ही रहे थे और सबको उम्मीद थी कि इनमें आकर इस परिवार की जीवन शैली सौ प्रतिशत बेहतर ही होने वाली थी| इस परिवार की सबसे बड़ी मुसीबत जगन था जो घर का सबसे बड़ा मर्द था, बच्चे तो उसके छोटे ही थे अभी | जिसे दरसल अपने परिवार के बारे में सोचना चाहिए था, उसका ही कर्तव्य था कि वह परिवार की बेहतरी के बारे में सोचे लेकिन उसका अपना बेहूदा व्यवहार व पीने का व्यापार इन सबके जीवन को नर्क बनाए हुए थे | इतने प्यारे बच्चे थे जो जगन के सामने सहमे ही रहते |
दादी ने शीला और रतनी से कहा था कि अभी वे जगन को कुछ न बताएँ कि वे एक फ़्लैट के लिए पैसे भर आए हैं वरना उसे यही शक होता कि आखिर पैसे आए कहाँ से ? दिव्य, जगन का बेटा, जिसको वास्तव में ही कंठ में माँ शारदा की दिव्यता प्राप्त थी, संगीत सीखने के लिए पिता से परमीशन मांगते-मांगते थक गया था लेकिन उसे तो लगता था कि संगीत सीखना भड़ुओं (वैश्याओं के दलाल) का काम है| शीला अपना सिर पीटकर रह जाती थी | उसे इस बात का भी अफ़सोस होता कि रतनी जैसी लड़की को उसने क्यों अपने सिरफिरे शराबी भाई के साथ बांध दिया | उसका मन इस बात के लिए उसे बहुत प्रताड़ित करता लेकिन बहुत देर हो चुकी थी| “दादी जी, दरसल आदमी बहुत स्वार्थी होता है | मैं भी हो गई अपने निकम्मे भाई के लिए -- मैंने सोचा था कि एक सुगढ़ पत्नी के आने के बाद जगन में कुछ सुधर जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और उसकी बदतमीज़ियाँ और खुराफ़ातें बढ़ती गईं और दबाने के लिए उसे रतनी और मिल गई जिसे वह कभी भी कुछ भी कह सकता है, जैसे चाहे उसका भोग कर सकता है---यह सब मेरी ही गलती है दादी जी| ” वह अक्सर दादी से कहकर अपना गिलट हल्का करने की कोशिश करतीं| रतनी को यह सब अच्छा नहीं लगता था और दादी भी उसे समझातीं कि यह सब भाग्य का खेल है, उसने जान-बूझकर तो यह सब किया नहीं है, उसने तो परिवार की भलाई ही सोची थी| शीला दीदी मन में सोचतीं कि करने का कारण नहीं उसका परिणाम देखा जाता है और अक्सर उदास हो जातीं |
एक दादी के न रहने से कितने लोग खुद को उजड़ा हुआ महसूस कर रहे थे | मैं और भाई तो जैसे सालों तक उम्मीद लगाए रहे कि अचानक दादी कहीं से आकर हमारे सामने खड़ी हो जाएंगी और हम उन्हें छेड़ना शुरू कर देंगे | लेकिन ‘गॉन विद द विंड’ हो चुकी थीं दादी जिनके पीछे उड़ती हुई धूल भर दिखाई देती|
जीवन की वास्तविकता को दूर से देखना और समझना बिलकुल ऐसे जैसे गुलाब के फूल को दूर से देखना, कुछ पास जाकर उसे सूंघ लेना और उसकी डाली को पकड़कर उसके काँटों की चुभन महसूस करना !