पिछले अध्याय में अथर्ववेद के मंत्र प्राण ऊर्जा से उपचार के विषय मे क्या कहते है ? उनका उदाहरण देकर अर्थ के साथ मैने उल्लेख किया था । मंत्रो से भी चिकित्सा क्या होती है ? इस प्रश्न पर अपने विचार फिर कभी रखूंगा ।
यहां हम बात मंत्र शक्ति की नही कर रहे, हम मन की शक्ति की बात कर रहे है ।
अब हम मनकी शक्ति को अन्य प्रकार से समझते हैं ।
भावना शक्ति व इच्छा शक्ति दोनों ही एक ऊर्जा है । या ऐसा भी कह सकते हैं भावना और इच्छा शक्ति दोनों मन का ही विस्तार है ।
भावना की तरह ही इच्छाएं हैं जिन्हें मन का ही एक भाग समझ सकते है । इच्छाओं को यदि शासित कर लिया जाये अर्थात नियंत्रित कर लिया जाये तो मन की शक्ति को ओर बलवान बनाया जा सकता है ।
इसे और ठीक से समझते हैं जैसे कोई व्यक्ति किसी से मित्रता चाहता है तो वह अपनी दृढ इच्छा शक्ति से अपने मनोभावो को उसकी तरफ प्रेषित करता है । तो उसके मनोभाव बिना मुख से कहे भी उस तक पहुंचने लगते है । वह यदि सामान्य है तो मित्रता शीघ्र हो जायेगी । यदि पहले से ही शत्रुता है तो उस शत्रुता के भाव धीरे धीरे पिगल जाते हैं और मित्रता हो जाती है । यहां पर यह ध्यान जरूर रखना होगा उसके अंदर शत्रुता यदि स्वाभाविक है तो वह पूरी तरह नही बदलेगी । इसे उदाहरण से समझते है - जैसे किसी विधर्मी के मन मे पहले ही इतनी घृणा भरी गयी है जैसे जिहादी से मित्रता के व्यवहार की कामना करे तो यह असाध्य है । सामाजिक बंधन से बंधी किसी नारी से मित्रता नही हो सकती है ।
हमने पिछले अध्यायों मे मन की बिखरी हुई शक्ति को त्राटक साधना , बिन्दु साधना आदि से बलवान बनाने का जिक्र किया था । ठीक ऐसे ही इच्छा शक्ति को भी समझा जा सकता है । यदि बिखरी इच्छा शक्ति को भी शक्ति मे बदल लिया जाये तो चमत्कारिक लाभ उठाया जा सकता है । जिनकी पल पल मे या अवसरानुसार इच्छा बदलती रहती हैं , वे कामयाबी की सीढी नही चढ पाते । इस जगत मे इच्छाएं उत्पन्न सबके मन मे होती हैं । जिनमे कुछ पूरी होती हैं और कुछ ऐसे ही रह जाती हैं । इसका कारण अनेक इच्छाओं का होना , या इन्हे समय पर छोड़ देना , या बदलते रहना एक कारण हो सकता है।
प्राणायाम - इच्छाओ को अनुशासित करने का कार्य करता है । अतः नियमित प्राणायाम करके इच्छा शक्ति को दृढ कर एक दिशा मे लगाया जा सकता है ।
बिना इच्छा शक्ति के न तंत्र काम करता है न मंत्र काम करता है । दृढ इच्छा शक्ति से खुदका व दूसरो का भला किया जा सकता है ।
अथर्ववेद के मंत्र - अथर्ववेद के मंत्रो में जो चिकित्सा का क्रम कहा गया है ,उसी क्रम से सिर से लेकर पांव तक के सभी अंगो का ध्यान करते हुए, अपनी प्राण ऊर्जा को , दृढ इच्छा शक्ति से रोगी के शरीर मे प्रेषित करना ।
जब ऐसा करते है तो यदि रोगी सचेष्ट है तो उसे ऊर्जा मिलने का एहसास भी होगा । वह अपने शरीर मे झनझनाहट या गर्माहट महसूस करेगा । जो चिकित्सा कर रहा है उसे भी यह महसूस होता है कि मेरे द्वारा छोड़ी ऊर्जा रोगी के शरीर मे जा रही है । प्राण ऊर्जा दृढ इच्छा शक्ति से रोगी के शरीर के अंगो मे प्रवेश कर पाती है । चिकित्सा मे प्राण ऊर्जा कोई भी हो शत्रु हो मित्र हो उस पर काम करेगी । लेकिन यह वहां काम नही करेगी जो ठीक न होने का दृढ भाव बना चुका है । वहां पर उसकी नकारात्मक ऊर्जा बलवान हो जायेगी ।